परोपकार में सेंध
सुदर्शन कुमार सोनी(व्यंग्य संग्रह - अगले जनम मोहे कुत्ता कीजो से साभार)
रोज़मर्रा की तरह अलसुबह शहर के इस कंपनी गार्डन में तेज़-तेज़ क़दमों से तीन चक्कर लगाने के बाद नख से शिख तक पसीने से सराबोर अपनी इस पंसदीदा जगह पर आ बैठा हूँ। यहाँ का एक चक्कर लगभग दो किलोमीटर का होता है। यह जगह ऊँचे घने वृक्षों की छाँव से घिरी है। इसके बीचों-बीच में गोलाकार आकृति में एक बड़ी क्यारी बनी है, आसपास और छोटी-छोटी क्यारियाँ हैं, जिनमें बहुत से क्रोटन व फूलदार पौधे लगे हैं। इस स्थान पर थोड़ी-थोड़ी दूरी पर चार-पाँच आराम कुर्सिया भी रखीं हैं, जहाँ आकर सुबह की सैर वाले प्राणायाम या योग या अन्य कसरत करते, साथ बैठकर गप्पें भी मारते हैं।
मैं भी एक बेंचनुमा कुर्सी पर बैठकर प्राणायाम करता हूँ, रोज़ की तरह इस बेंच पर आकर बैठ गया हूँ, और प्राणायाम आरम्भ कर दिया है। थोड़ी ही देर बाद प्राणायाम के बीच में ही मुझे भान होता है कि मेरे बिल्कुल समीप ही कुछ कुछ मद्धिम सा शोरगुल हो रहा है। मैं सोचता हूँ कि ऐसा शोर तो यहाँ सतत होते रहता है? लेकिन मैं फिर अनुभूति करता हूँ। सुरीली भोली सी लगती स्वर लहरी, मद्धिम स्वर लहरी का मिश्रित शोरगुल, नेत्र अपने आप खुल जाते हैं। मेरे पाँवों के पास एक-दो, तीन नहीं पाँच-पाँच पिल्ले झूम रहे थे। नन्हें प्यारे से हल्के पीले व भूरे रंग के अच्छे तंदुरुस्त ऐसे कि उनकी नन्ही काया की सम्पूर्ण ताज़गी के सामने सुबह की ताज़गी अपने को हीन समझने लगे! ईश्वर की हर नयी कृति में ऐसी ही ताज़गी होती है! ताज़े फल और अभी-अभी खिले फूल जैसे कोमल व सुंदर बच्चे या पिल्ले। मैंने सोचा अल्सेशियन जैसे लगते ये पिल्ले यहाँ कैसे? वे मेरे पैरों को चाटने की कोशिश कर रहे थे। साथ-साथ उनकी नन्ही पूँछ भी तीव्रता से हिलायमान थी, बड़ा ही मनोहारी दृश्य बन पड़ा था। एक पिल्ला अचानक थोड़ी दूरी पर दौड़ गया। मैंने नज़रें दौड़ायी तो वहाँ उनकी माँ दिखी, उससे जैसे चलते ही नहीं बन रहा है, रुग्ण सी काया, गिर-गिर पड़ती थी। तिस पर भी वह मेरी बेंच के पीछे की झाड़ियों में कहीं बैठ कर अपने जिगर के टुकड़ों पर बराबर नज़र रखे हुये थी! वह बीमार व अशक्त होने पर भी सजग थी। चौकन्नी होकर तुरंत बाहर को आ गयी थी।
माँ गिर-गिर पड़ती थी। मुझे आश्चर्य हुआ कि इतनी कमज़ोर माँ के पिल्ले इतने तंदुरुस्त? तू धन्य है माँ! पिल्ले अब उसके चारों ओर झूम रहे थे। घूम रहे थे। वे भूखे थे। माँ के दूध की उन्हें आवश्यकता थी। लेकिन माँ गिर गिर पड़ रही थी। वह संभवतः पाँच-पाँच बच्चों की इच्छा की पूर्ति नहीं कर पा रही थी। लेकिन बच्चे क्या करें वे तो माँ की तकलीफ़ से अनभिज्ञ थे। माँ के बारे में शिशु को बाद में पता चलता है कि उसकी माँ ने कितनी तकलीफ़ उठाकर पाला, कितने जतन किये, ख़ुद भूखी रही, लेकिन उसकी उदर पूर्ति कैसे भी हो करती रही! लेकिन ये तो पिल्ले हैं। एक समय बाद तो यह भी भूल जायेंगे कि उनकी माँ कौन सी है! न कहो उसे ही बडे़ होकर गुर्राने लगें! अपने इलाक़े से खदेड़ दें! लगता है इंसान के साथ रहते-रहते कुत्तों में भी उसके कुछ अवगुण आ गये हैं! आदमी माँ बाप को वृद्धाश्रम की ओर खदेड़ते हैं तो कुत्ते भी इलाक़े से खदेड़ देते हैं।
मेरे अंदर प्राणी मात्र के प्रति छिपा हुआ दया का भाव जागृत हो गया! मैंने फिर सोचा कि माँ इतनी कमज़ोर है कि गिर-गिर पड़ रही है। इसके दूध नहीं बचा है और पिल्लों को ज़बरदस्त भूख लगी है। वे सतत चिल्ल पों मचाये हैं; मैं व्यथित हो, यहाँ से लगभग दौड़ते हुये ही अपने घर गया और सीधे किचन में घुस गया। इस समय तक पत्नी उठ गयी थी। मुझे सीधे किचन में आया देखकर बोली, क्या बात है? वैसे भी अधिकांश पत्नियों को किचन में पति का एकदम से अतिक्रमण नागवार गुज़रता है!
मैंने कहा कि पार्क में पाँच पिल्ले हुये हैं, बेचारे भूखे हैं, और उनकी माँ इतनी कमज़ोर है कि उन्हें ठीक से दूध भी नहीं पिला पाती होगी। अतः मैं ब्रेड के टुकड़े व रोटी लेकर जा रहा हूँ। मुझे घर में ब्रेड के टुकडे़ नहीं मिले तो मैं पत्नी से खीज कर बोला कि जब ज़रूरत हो ब्रेड नहीं मिलेगी। मेरे मन को बहुत जल्दी थी, मुझे लग रहा था कि अब इन पिल्लों पर परोपकार करने का विशेषाधिकार केवल व केवल मेरा है! मैं घर से झट दो पहिये में पार्क पहुँच गया, ताकि समय न जाया हो। वहाँ पहुँचकर मैंने पाया कि दो पिल्ले एक पेड़ के नीचे बैठे पेड़ की छाल कुतर रहे थे। उन्हें कुछ खाने नहीं मिला तो वे ये छाल कुतर रहे थे! कुछ तो चाहिये उदर को, यह देख मुझे अब इन पर दया व ममता का गुबार सा आ गया! बाक़ी तीन मुझे दिखे नहीं। मैंने इन दोनों के सामने रोटी के छोटे-छोटे टुकडे़ करके डाल दिये। मेरे आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा कि वे उसे कुतर-कुतर कर खाने लगे। केवल पंद्रह बीस दिन के पिल्ले दूध छोड़कर रोटी कुतरने लगे। इंसान के बच्चे हों तो वमन कर दें! मैंने मन में कहा। हे ईश्वर! तुझे व तेरी व्यवस्था को नमन। थोड़ी देर में ही वे तीन भी आ गये। उन्हें पता नहीं कहाँ से रोटी की गंध आ गयी थी। मैंने उन नन्हों को भी रोटी के नन्हे नन्हे टुकडे़ करके डाल दिये। थोड़ी दूरी पर बैठी उनकी माँ मेरे परोपकारी कृत्य का जायज़ा अजीब नज़रों से ले रही थी। शायद उसे अभी तक दुत्कार ही मिलती आयी थी और आज पिल्लों के ही बहाने सही उसे सम्मान मिला तो शायद एकदम से उसकी नज़रें विश्वास नहीं कर रहीं होंगी, उसे जब यह संतुष्टि हो गयी कि मैं कोई क्षति इन्हें नहीं देने वाला तो वह गर्दन एक ओर ज़मीन पर टिकाकार आराम फ़रमाने लगी।
पाँचों पिल्लों को रोटी खिलाकर मैं गदगद था। मैं सोच रहा था कि ऐसे ही पुण्य कार्यों के कारण एक व्यक्ति का उद्धार होता है! देखो अपने साथ आज तक कोई बुरा नहीं हुआ, क्योंकि अपन भी अवसर मिलते ही परोपकार का काम करने में देरी कहाँ करते हैं? और कोई ऐसा करता क्या कि छह किलोमीटर की वाक के बाद की थकान के बावजूद तुरन्त घर दौड़ लगाकर इनके लिये रोटी लाये और वापिस आकर इन्हें प्रेमपूर्वक खिलाये।
मैंने यहाँ वहाँ नज़र घुमायी कि मेरे इस परोपकार के काम को कोई देख रहा है कि नहीं, लेकिन मुझे कोई दिखा नहीं! ख़ैर कोई बात नहीं कोई एक दिन में कौन परोपकार के काम को पहचान मिलती है? मैंने मन को तसल्ली दी। लोग सालों काम करते है तब कहीं उनको पहचान बड़ी मुश्किल से मिलती है। मुझे शांति का ’नोबल पुरस्कार’ पाने वाले सत्यार्थी जी की तुरन्त याद आयी! कि वो कितने सालों से काम करते आ रहे थे और कोई उनका काम व नाम नहीं जानता था और इतने सालों बाद उन्हें नोबल से पहचान मिली है! मुझे लगा कि मैं भी कितना नोबल काम हाथ में ले बैठा हूँ।
मैं अब इस पिल्ला प्रकरण के बाद घर लौट आया। मुझे लगा कि मैंने बहुत बड़ा तीर मार लिया है। अब मेरा रोज़ का यह रूटीन हो गया कि पार्क में दो तीन चक्कर लगाने के बाद इन पिल्लों की इस जगह पर रोज़ तीमारदारी करना। अब मैं बक़ायदा रोटी व ब्रेड लेकर ही घर से निकलता और आकर इन्हें खिलाता। इस परोपकारी कार्य पर मेरा दो दिवसीय एकाधिकार रहा, लेकिन तीसरे ही दिन मुझे ज़ोर का झटका धीरे से महसूस हुआ!
मैं जब आज तीसरे दिन घूमकर आने के बाद पिल्लों को ढू़ढ़ते हुये आया तो एक पेड़ के नीचे तीन पिल्ले दिखे। मैं ख़ुश हो गया मैंने रोटी व ब्रेड के टुकडे़ उनकी ओर फेंके, लेकिन दूसरे ही पल मेरा मन मायूस हो गया, उन्होंने उसकी ओर वैसी लपक नहीं दिखायी जैसी पिछले दो दिन दिखायी थी। कारण इसके पीछे का यह था कि पहले ही कोई अनाम परोपकारी बिस्किट एक-दो नहीं पूरा पैकेट उनके पास डाल गया था और वे इसे शायद खा-खाकर थक गये थे। आख़िर पिल्लों का पेट एक बार में कितना अंदर कर पायेगा! थोड़ी ही देर में दो दूसरे पिल्ले भी आ गये, लेकिन उन्होंने कोई ज़्यादा पूछ-परख मेरी अपनी पूँछ हिलाकर नहीं की। उनका भी पेट टुन्न दिखा! तीन दिन में ही मुझ परोपकारी की पूछ-परख बंद हो रही थी। मैं आज दुखी मन से घर को लौटा था। मेरे परोपकारी कार्य में किसी ने अलसुबह सेंध लगा दी थी!
आज चौथा दिन है। मैं, फिर से घर से अपनी जैकेट में ब्रेड व रोटी के टुकडे़ डाल कर इस पार्क में आ गया हूँ। पहले मैंने अपने स्वास्थ्य को चुस्त-दुरस्त रखने के लिये तीन चक्कर तेज़-तेज़ गति से रोज़ की तरह चलते हुये लगा लिये हैं। अब मैं इसी जगह पर पिल्लों को ढूँढ़ रहा हूँ। मुझे, वे दिखे नहीं मैं एक बेंच पर बैठ गया हूँ। मेरे सामने गोलाकार आकृति में बनी क्यारी है, जिसके आख़िरी घेरे में मेंहदी लगी है जो कि चार फीट से अधिक ऊँची है अतः दूसरी ओर यदि कोई खड़ा हो तो उसका केवल चेहरा ही दिख पायेगा।
मेरी नज़र पिल्लों पर तो नहीं गयी। दो ख़ूबसूरत चेहरों पर चली गयी। कुछ देर तक तो मैं इन्हें एकटक देखता रहा। मैंने सोचा कि सुबह-सुबह की ताज़ी हवा का डोज़ डबल हो जाता है यदि ऐसे ताज़गी भरे चेहरे भी दिख जायें! लेकिन मैंने इन दोनों चेहरों के भाव पढ़ने शुरू कर दिये। इनके चेहरे पर दया, करुणा, प्रेम वात्सल्य, संतोष व ख़ुशी के भाव एक साथ आ रहे थे। मैंने सोचा कि बात क्या है? इनकी हसीन नज़रें किसे देख रहीं हैं? क्या अपनी हालत ऐसी हो गयी है कि लोग देखकर दया, करुणा दिखायें? नहीं अपने को नहीं देख रही हैं! अपने को देखते ज़माना गुज़र गया। जब से शादी हुई है तो शायद चौखटा ही ऐसा हो गया है कि अब लड़कियाँ समझ जाती हैं कि ये तो ’सेकेण्ड हैंड आलरेडी सोल्ड कबाड़ माल’ है। कुँवारा यौवन रूपी स्वर्ण नहीं विवाहित रोल्ड गोल्ड है! समय बरबाद करने में कोई फ़ायदा नहीं!
मैंने अब दिमाग़ को और ज़ोर देकर खडे़ हो जाना उचित समझा, मैंने देखा कि वे मेंहदी के बाहर से गोले के अंदर अपनी माँ के साथ विराजमान पिल्लों को ब्रेड डाल रहीं थीं। वो भी ब्रिटेनिया के मीठे केक जो बाज़ार में मिलते हैं। अब ये ख़ूबसूरत चेहरे मुझे बदसूरत से भी बदतर लगने लगे! मैं, मन की बात बताऊँ ये हसीन चेहरे मुझे कमीन से लगने लगे! पार्क के बाहर को जाने इसी स्थान के पास गेट लगा है। वहाँ से पता नहीं कहाँ से दो भिखारियों ने आकर इन हसीनाओं द्वारा पिल्लों की पेटभराई का दृश्य झाँक लिया था और वे आशाभरी नज़रों से टकटकी लगाये थे कि हसीनायें उन पर भी नज़रें इनायत करेंगी। लेकिन एकाध बार हसीनाओं ने इन दोनों भिखारियों की ओर देखा भी तो तिरस्कार भरी नज़रों से। आख़िरकार इन्होंने मेरे परोपकार के काम के एकाधिकार को तोड़ दिया था, कहाँ जहाँ मैं पूरा श्रेय लेना चाहता था, अब उससे वंचित हो गया था! मैं अंदर ही अंदर दाँत पीसते हुये इन दोनों चेहरों को देखता रहा और न जाने मन में क्या-क्या सोचता रहा, इनके बारे में! बाप की रईसी है तो इतना महँगा केक पिल्लों को खिला रही हैं? पढ़ाई लिखाई में मन नहीं लगता सुबह से पिल्लेबाज़ी।
मैं सीधे घर आ गया। आज मूड ख़राब हो जाने के कारण मैंने प्राणायाम की भी छुट्टी कर दी। आख़िर इन दो ख़ूबसूरत चेहरों ने जो वैसे अब मुझे इस शहर के सर्वाधिक बदसूरत चेहरे लग रहे थे, परोपकारी एकाधिकार मुझसे छीनने पर तुलीं थी। मेरे परोपकार में ज़बरदस्त सेंधमारी कर दी थी, अभी तक सुना था कि हसीनाएँ केवल रात दिन का चैन व दिल चुराती हैं! लेकिन यहाँ तो परोपकार ही चुरा लिया!
आज पाँचवा दिन है। मैंने आशा नहीं छोड़ी है। घूम कर आने के बाद सीधे इस स्थान की ओर आ गया हूँ, लेकिन ब्रेड डालने के बाद भी ये पिल्ले मुझे लिफ़्ट नहीं दे रहे हैं! बाद में मेरी नज़र गयी कि कोई इनके पास एक प्लास्टिक कोटेड काग़ज़ का कटोरा रख गया है, जिसमें पानी है और पास में ही एक प्लास्टिक की प्लेट में ब्रेड व रोटी के टुकडे़ रखे हैं, अब इन पिल्लों के कई रखवाले पैदा हो गये थे! पिल्लों का भी पेट पूरी तरह टुन्न लग रहा था। ये ज़ालिम मुझे देखकर थोड़ी बहुत ही पूँछ कामचलाऊ उतनी रुक-रुक कर जिससे मैं दुखी न होऊँ हिला रहे थे। इतनी जल्दी ये पिल्ले राजनीति व कूटनीति सीख गये? जब चारों ओर वातावरण राजनीति मय हो तो इंसान के बच्चे क्या पिल्ले पर भी असर पड़ता है! मैं मायूस था। एक अवसर हाथ से निकल गया था। ज़्यादा परोपकारी हो जायें तो यह तो होना ही है। मुझे लगा कि प्रति व्यक्ति आय बढ़ने का यह दुष्परिणाम है कि यहाँ एक व्यक्ति एकाधिकार से परोपकार का काम भी नहीं कर सकता! मुझे इस समय पिछले सालों में हुआ उदारीकरण व विकास दर नौ प्रतिशत या उससे अधिक रहने में ख़ामी दिख रही थी। मुझे विश्व बैंक की वह रिपोर्ट भी सही लगी जिसमें दावा किया गया था कि पिछले कुछ सालों में ग़रीबी में व ग़रीबों की संख्या में सबसे ज़्यादा कमी भारत में हुई है!
आज छटवें दिन तो ग़ज़ब हो गया। मैं वॉक पूरी कर जब इस स्थान पर आकर बैठा हूँ और पिल्लों से टॉक की कोशिश की वैसे आधे अधूरे मन से, क्योंकि मेरा परोपकार का एकाधिकार तो कब का ख़त्म हो चुका था! तो मैं यह देख कर "शॉक्ड" हो गया कि पिल्लों की माँ व पिल्ले सारे के सारे माँ से लिपटे हुये बक़ायदा एक प्लास्टिक की शीट पर घोडे़ बेचकर सो रहे थे। पास में एक बडे़ थर्मोकोल के कटोरे में दूध आधा भरा हुआ था! पानी अन्य एक कटोरे में, पास में रोटी के बहुत सारे टुकडे़ अधखाये हुये, इन्हें इतने परोपकारी भोज के डोज़ अब रोज़ मिल रहे थे कि खाते नहीं अघा रहे थे। प्लास्टिक की सेज पर आराम फ़रमा रहे थे! मेरे पुकारने पर भी मुश्किल से एकाध पिल्ले ने सोते में से उपेक्षा भरी नज़रें उठायीं और फिर से वापिस सो गया। मुझे देखकर पूँछ हिलाना तो अब इतिहास की बात हो गयी थी! सारे पिल्ले तो तानकर सो रहे थे। मैंने फिर पुकारा तो एक-दो पिल्ले जाग गये। लेकिन भाओं-भाओं कर रहे थे जो कि मुझे सुनाई दे रहा था जाओ-जाओ! पिल्ला माँ ने मेरी ओर ज़रूर कुछ देर ज़्यादा घूर कर देखा कि यह कौन है ज़बरदस्ती आराम में खलल डालने चला आया। मैंने अब यहाँ से खिसक जाना ही उचित समझा, नहीं तो बच्चों के पास बैठी माँ बड़ी ख़तरनाक होती है। मुझे कब दौड़ा दे कह नहीं सकते! डिस्कवरी चैनल में मैंने कई बार ऐसे सीन देखे थे! जहाँ पहले दिन मैं दौड़ते हुये रोटी लाने घर गया था। आज भी निराशा में परोपकार के टोटल फेलयर पर दौड़ते हुये घर की ओर प्रस्थान कर गया था! जीत व हार, पास व फेल, आशा व निराशा दोनों में आदमी दौड़ लगा सकता है! मुझे इस समय गीता के उपदेश ध्यान आ रहे थे तुम्हारा क्या गया जो तुम रोते हो। क्या साथ लाये थे। क्या साथ ले जाओगे जो लिया यहीं से जो दिया यहीं दिया आदि। इससे मुझे काफ़ी सुकून महसूस हुआ।
लेकिन मैंने हिम्मत नहीं हारी है, आशा नहीं खोई है, फिर कहीं ऐसे ही आवारा पिल्ले होंगे। कहा भी गया है न कि प्रत्येक शिशु का इस दुनिया में आना भगवान के इंसान से निराश न होने का संकेत है और पिल्ले भी तो शिशु ही हैं! मैं देखता हूँ कि मेरे इस एकाधिकार को अब कोई कैसे छीनता है! अबकि मैं पूर्ण योजना बनाकर काम करूँगा फिर अख़बारों में मेरा नाम छपेगा कि ये कितने दयालु हैं पिल्लों को कहीं भी हों देखभाल करते हैं, पालते हैं।
गंगू की इस पिल्ला प्रकरण से लर्निंग इतनी सी है कि परोपकार का काम भी अब इतना आसान नहीं रहा इसमें ज़बरदस्त प्रतिस्पर्धा है! क्योंकि हर गली में अच्छे-ख़ासे परोपकारी घूम रहे हैं, धूम मचा रहे हैं। बाज़ारवाद में परोपकार भी एक कलात्मक व्यवसाय व हॉबी बन गया है।
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