भगवान इंसान के क्लासिक फर्मे को हाईटेक कब बनायेंगे?
सुदर्शन कुमार सोनीईश्वर की बनाई दुनिया कहाँ से कहाँ पहुँच गई परन्तु एक मामले में ईश्वर कोई ध्यान नहीं दे रहे हैं, पता नहीं क्यों? जैसे भारत ने भी भले ही चाँद पर यान भेज दिया है परन्तु एक मामले में अभी तक तरक़्क़ी नहीं हुई है आधे से ज़्यादा लोग अभी भी फ़ारिग होने बाहर जाते है चाँद पर भी अगर हमारा कब्ज़ा हो गया तो फिर वहाँ के वातावरण के लिये बड़ा ख़तरा पैदा हो जायेगा! उसका बनाया इंसान नित नये-नये कमाल बात व करामात कर रहा है परन्तु पता नहीं क्यों ईश्वर इस एक मामले में इतना कंज़रवेटिव बना हुआ है? गंगू को भी अभी तक समझ में नहीं आया है। ईश्वर ने अभी तक इंसान का फर्मा नहीं बदला है जबकि दुनिया कितनी बदल गई है हर चीज़ बदल गई है! जनसंख्या ज़रूर बढ़ रही है लेकिन वही दो हाथ, दो पैर, एक नाक एक मुँह उसमें भद्दी सी बत्तीसी, दो आँख, एक पेट व एक छाती वाले व सिर पर बाल वाले इंसान बना रहा है। ये एक सा ही फर्मा हम इंसान भी कई लाख पीढ़ियों से देख-देखकर बोर हो गये हैं। इंसान को देखो पृथ्वी में रहते-रहते बोर हो गया तो चंद्रमा व अन्य ग्रहों में अपने लिये रैन-बसेरा या फ़ुर्सत-बसेरा तलाश करने के अभियान में लगा हुआ है। ऊँची से ऊँची बिल्डिंग बना रहा है इतनी ऊँची कि इसी में बैठ के ईश्वर से बातें कर लेगा। ये तो ईश्वर छोटे- छोटे कमाल तेरे पुराने क्लासिक फर्मे वाले इंसान द्वारा किये गये हैं! यदि तूने इन्हें और उन्नत फर्मे का बना दिया होता तो पता नहीं ये क्या से क्या कर जाते!
तू एक और चालाकी करता है जिसके कारण विश्व में इतना तनाव व संकट व्याप्त रहता है। सबको तू एक ही रंग का क्यों नहीं बना कर भेजता है, कुछ काले, कुछ गोरे सफेद, कुछ पीले, तो कुछ तामिया रंग के, तो कोई भूरे, तो कोई साँवले, पता नहीं कितने रंग के लोग तू बना-बना कर भेजता है। और ये लोग लड़ते रहते हैं रंग पर कि पता नहीं ये कैसा काला सा है और कि पता नहीं ये कैसा पीला सा है और ये काले व गोरे का मिश्रण है, साँवला या भूरा पता नहीं कैसी संकर नस्ल है। रंगभेद की नीति राजनीति शास्त्र में अगर लोग पढ़ रहे हैं तो इसके पीछे तू ही है। लेकिन हाईट के बारे में फिर तू गड़बड़ करता है, किसी को छोटा तो किसी को मध्यम, तो किसी को लंबा और बहुत थोड़ों को तू बहुत लंबा जैसा कि हो खंबा या बौना जिसका कि होना या न होना बराबर लगता है, बनाकर भेजता है। क्या तू एक सी हाईट के लोग बनाकर नहीं भेज सकता? सारे के सारे या तो लिटिल ऐसे जैसे हो कोई पिल बना दे या सारे के सारे लंबे खंबे जैसे बना दे या सारे मध्यम बना दे जो सबसे अच्छा मार्ग माना जाता है। कम से कम गारमेंट बनाने वाली कंपनियों, फर्नीचर बनाने वालों, इत्यादि को कितनी सहूलियत हो जायेगी; तू क्या नहीं जानता? फिर जान-बूझकर तू ऐसे विभेद क्यो पैदा करता रहता है? रंग भेद, वर्ग विभेद की समस्या तेरी ही खड़ी की हुई है!
जब तेरी बनाई गई दुनिया के लोग रोज़ नयी-नयी खोज तेरे आर्शीवाद से ही कर रहे हैं, तो तू कुछ परिवर्तन, इनोवेशन इंसान के फर्मे में कर दे; हम इंसान भी बोर हो गये हैं; थोड़ा सा परिवर्तन तो भले ही पायलट के रूप में करना चाहे करके तो देख। या कुछ नहीं तो इन अंगो में थोड़ा बहुत परिवर्तन चाहे तो स्थान, आकार या डिज़ाइन के रूप में कर दे। तुझे भी अच्छा लगेगा और हम इंसानों को भी भायेगा, तू ही कहता है कि "परिवर्तन ही जीवन है"।
गंगू के पास कुछ सुझाव हैं, चाहे तो तू मान ले नहीं तो ठुकरा दे। तेरे कुछ बंदे बेचारे सर्दी खाँसी से बहुत परेशान रहते हैं इन्हें क्या तू एक की जगह दो नाक नहीं दे सकता? सोच तो कितना अच्छा लगेगा एक नाक वाले और दो नाक वाले लोग। तेरा बनाया इंसान हर बात में विकल्प रखता है जैसे हवाई जहाज़ में दो इ्रंजन रखता है; एक के खराब होने पर दूसरा काम आ जाता है। ऐसे ही दो नग नाक होने पर हो सकेगा। वैसे इसमें यह संकट ज़रूर है कि इंसान ने अपनी साख इतनी गिरा दी है कि वह अपनी एक ही नाक ऊपर नहीं रख पा रहा है तो दो कैसे रख पायेगा? या ये नाक कहीं और शिफ़्ट कर दे तो बहुत अच्छा उन लोगों के लिये होगा जो चाहे जहाँ अपनी नाक कटवा लेते हैं या चाहे जहाँ सर्दी की बेदर्दी को बेशर्मी से बाहर करने लगते हैं। ऐसे लोगों का अगर कहीं लुकी-छिपी जगह में तेरी ओर से नाक दे दी जाये तो बड़ा भला होगा। इससे बड़ी और क्या हमदर्दी इन लोगों के साथ तेरी होगी। इससे आपके बनाये ये कुछ नगीने कुछ-कुछ पाक साफ़ रह सकेगें।
जब तूने शिव को तीसरा नेत्र दिया है तो हम कुछ इंसानों को भी दे सकता है। या फिर एक आँख वाले भी बना सकता है, इसमें कुछ बुरा नहीं है। आजकल एक का ही ज़माना है "हम दो हमारा एक" का तो नारा हम लोग लगा ही रहे हैं। इससे एक फ़ायदा और होगा, जो लोग चाहते हैं कि यदि उनकी एक आँख फूटने से पड़ोसी की दोनों फूट रही हैं तो वे एक आँख फुड़वाने तैयार होने के पहले कम से कम दस बार सोचेंगे! या आँखों का स्थान थोड़ा सा परिवर्तित कर दे, क्योंकि युवाओं को इसमें थोड़ी दिक़्क़त है; युवतियों से आँखें लड़ाते समय बुज़ुर्ग लोग देख लेते हैं। एक और फेरबदल तू कर सकता है आँखों में तीन सौ साठ डिग्री का मूवमेंट कर दे तो बड़ा अच्छा होगा। अभी क्या है जवान छोरों को बहुत दिक़्क़त होती है। फिर पीछे चल रही छोरियों को भी ये आराम से आन-बान व शान से कान के पीछे से भी देख सकेंगे।
बापू के इस देश में अत्याचार बहुत बढ़ गया है तो बार-बार बापू के तीन बंदर याद आते हैं; बुरा न देखो, बुरा न बोलो, बुरा न सुनो, और इसके लिये हाथ तीन जगह रखना पड़ता है। ये करते-करते ही हम इंसानों को न जाने कितनी बुराईयाँ या घिनौनी चीज़ें सुननी देखनी पड़ती हैं। अतः क्या तू यहाँ भी एक लॉकिंग सिस्टम नहीं दे सकता है कि बस हाथ में लगा एक रिमोट जैसा बटन दबाया और आँख, कान, मुँह पूरी तरह बंद!
मुँह की जगह चाहे तो तू बदल सकता है ये तेरा इंसान बहुत चपड़-चपड करता है और बड़ा बुरा लगता है जब यह बकबक करता है। एक और प्रॉब्लम है इसमें कइयों के मुँह से गटर से भी ज़्यादा दुर्गंध आती है तो सामने वाले का खड़ा रहना मुश्किल हो जाता है। इसे ऐसी जगह देदे कि ये समस्या दूर हो जाये और इसमें एक लॉक भी देदे कि ज़्यादा चपड़-चपड़ करने वाले को रोका जाये या एक सेल्फ़ रेगुलेशन की व्यवस्था हो कि एक मात्रा से ज़्यादा शब्द निकल जाने पर ऑटो-लॉक हो जाये जैसा कि तूने अन्य कई चीज़ों के लिये किया है; जैसे एक सीमा से ज़्यादा खाने पर पेट फूलने लगता है, परन्तु ज़्यादा बोलने वाले का मुँह कभी नहीं फूलता है?
एक तेरे बनाये इंसान का सबसे बड़ा विकार यह है कि यह अपने को दो समूह में मानता है एक स्त्री व एक पुरुष जबकि तूने इनको शरीर के अंदर दोनों के हार्मोन्स दिये हैं, वो तो जिस एक के थोड़े से ज़्यादा हो जातेहैं तो वह उस ओर झुक जाता है। लेकिन वह उसका पूरी दुनिया में फ़ायदा उठा रहा है बल्कि कहा जाये कि यह अत्याचार व अति कर रहा है तो ग़लत नहीं होगा। यह स्त्री के साथ ज़ोर-ज़बरदस्ती का रोज़ दोषी ठहराया जाता है। लेकिन इसकी यह प्रवृत्ति रुकने का नाम नहीं ले रही भले ही इस कुकृत्य में सलिंप्त रहने वाले गिने-चुने लोग हैं। परन्तु इसमें किशोर, जवान से लगाकर बुढ्ढे सभी शामिल हैं और तेरी बनायी ममता व स्नेह की मूर्ति इस अत्याचार के बाद जीवन भर कराहती रहती है, लेकिन इन बेदर्दों को कोई फ़र्क नहीं पड़ता है। अतः गंगू का करबद्ध निवेदन है कि तू ऐसी कोई परिवर्तन की व्यवस्था इस फर्मे में कर कि यह समस्या जड़ से ही समाप्त हो जाये। इस बारे में मेरा सुझाव है कि तू चाहे तो स्त्री को एक्स-रे वाली आँखें दे सकता है तो वे दीवार के पीछे भी देख सकती है। कम से कम दुराचारियों के द्वारा बनायी जा रही करतूतों को वह समय रहते भाँप सकेगी या तू इन्हें ऐसे कान देदे कि वे बहुत धीरे से भी कही गयी बातें सुन सके या जो बात बोली जाने वाली है उसका भी अनुमान लगा सके। वैसे तूने एड्स व कुछ अन्य बीमारियों के माध्यम से इसे दूर करने की कोशिश की है लेकिन ये निर्लज्ज इससे अभी तक कुछ ख़ास नहीं सीखे हैं बस इस बीमारी में घसीटे जाने पर खींसे निपोरते रहते हैं।
ये तेरा इंसान बड़ा दगाबाज़ है पीठ पीछे अपने ही साथियों पर वार करता है इसीलिये कहावत भी बन गयी है "पीठ में छुरा घोंपना"। तो सुझाव है कि तू कुछ ऐसी व्यवस्था कर कि ज़रूरत पड़ने पर तेरा यह इंसान पीछे देख सके। तूने उल्लू जैसे जीव को, जिसे हम उल्लू ग़लत संबोधन के लिये उपयोग करते हैं, को तीन सो साठ डिग्री तक घूमने वाली गर्दन दी है तो यह व्यवस्था हमारे क्लासिक फर्मे में थोड़े से परिवर्तन के साथ कर दे तो कितना अच्छा होगा।
भगवन तू तो हमे फिर से पूँछ देदे कितना अच्छा लगेगा घोड़े या गाय या चीता की तरह पूँछ से मक्खी, मच्छर अच्छी तरह भगाने के काम में तेरे इंसान ने परिवेश को इतना गंदा कर दिया है कि हर जगह मच्छर-मक्खी बजबजा रहे हैं। अब जब जेनेटिक्स के क्षेत्र में तेरे इंसान ने इतनी खोज कर ली है तो तू उसे पैदा होते ही साथ में एक पेटी कहीं पर चिपकी हुई भी दे दे जिसमें डीएनए कोड होगा और ज़रूरत पड़ने पर डाक्टर इसके माध्यम से बीमारियो के बारे में विस्तृत जानकारी ले सकेंगे। बच्चों के लिये भी तू कुछ नया कर दे। कई दुर्जन लोग यहाँ उनका तरह-तरह से शोषण करते हैं। तो तू उन्हें कुछ ऐसा प्रतिरक्षा सिस्टम देदे कि वे अपनी सुरक्षा आप कर सकें। तूने तो कई जीवों में इस तरह के सिस्टम दिये हैं जैसे इलेक्ट्रिक रे नामक मछली बिजली का झटका मारती है, तो साँप छेड़ने पर ज़हर छोड़ सकता है। तू तो स्त्रियों के लिये इस तरह का सोच सकता है जैसे कि कोई उनका शील भंग करने की कोशिश करे तो उन्हें शरीर से कील या इस तरह की कोई डिवाईस निकालने की सुविधा हो और इसकी मात्र इंच भर पिंच जब अपराधी फ़ील करे तो उसकी हालत ख़राब हो जाये। फ़ैशन के इस युग में डिज़ायनर बेबी के बारे में भी सोच।
भारत जैसे गर्म देशों में पैदा होने वाले इंसानों को गर्मी हलकान कर देती है। क्या तू एक छोटा सा एसी नहीं इनके दिमाग़ में फ़िट कर सकता है कि ये शांत रहें। नहीं तो ये आपस में लड़ते रहते हैं। लोग समझते हैं कि ये बहुत झगड़ालू हैं, परन्तु असली समस्या गर्मी के कारण दिमाग़ निंयत्रण में नहीं रहने से होती है। जब तूने वायरस व बैक्टीरिया जैसे सूक्ष्म जीव पैदा कर दिये हैं तो तू निश्चित रूप से एक मिनएचर एसी भी इंसान के शरीर में लगा सकता है।
ईश्वर तेरे इंसान में असीमित क्षमताएँ तूने दी हैं इसलिये असीमित सुझाव आ रहे हैं लेकिन आपको और भी काम है इसीलिये यहाँ बेक्र कर रहा हूँ, शेष ब्रेक के बाद।
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