उन पाप के नोटों का क्या होगा?
डॉ. कविता भट्टप्रस्तर खंडों से टकराती,
चल रही मेरी व्याकुल धारा।
हिमालय से विदा हो रही,
सागर ही मेरा प्रेमी प्यारा।
असंख्य कामनाएँ मिलन की
तन पर अपने शृंगार लिए।
सोचा– स्नेहमय ससुराल होगा, किंतु
तुमने मायके में भी व्यभिचार किये।
मुझे क़ैद कर डाला तुमने,
रेत सीमेंट की दीवारों में।
अपनी सुख–सुविधा के लिए
अपने फैलते अन्धे व्यापारों में।
मूक कहानी सुना रही हूँ,
मीलों चलकर ये क्या पाया?
धाराओं में झनझना रही हूँ।
काली कर दी चम्पयी काया।
स्वच्छ धवल नीर बहाया था,
स्तब्ध खड़ा– पर्वत मेरा पिता लाचार।
फूट–फूट रोता और अश्रु बहाता,
देख अपनी बेटी का हाय! तिरस्कार।
कहने को कुम्भ नहाते हो,
अगणित मुझमें पाप बहाते हो।
किन्तु, उन पाप के नोटों का क्या होगा?
जो तकियों में छिपाये जाते हो।
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