शर्म का शर्मसार होना!

01-07-2021

शर्म का शर्मसार होना!

सुदर्शन कुमार सोनी (अंक: 184, जुलाई प्रथम, 2021 में प्रकाशित)

अलसुबह बंद दुकानों के सामने के चबूतरों पर बैठे हाकर्स अख़बारों के बंडल बना रहे थे।अख़बारों के ताज़े-ताज़े बंडल देखकर क़दम थम गये थे। आश्चर्य का ठिकाना नही था शर्म भी हैडलाईंस पर नज़रें गड़ाये खड़ी थी। मुँह से अनायास निकला। शर्म तुम यहाँ। वह थोड़ा सा सकुचायी।

एक हैडलाईन "मोक्षधाम में दाह संस्कार के लिये शव भी क़तार में।" चार-छह घंटे इंतज़ार करना पड़ रहा है। दूसरा समाचार—देर शाम तक पाँच छह शवों के कोई संबंधी नहीं आये। ऊपर से लकड़ियों की कमी। मोक्षधाम प्रबंधन ने इन सबको एक के ऊपर एक रखकर दाह संस्कार किया। मैं बुदबुदाया सामूहिक विवाह—सामूहिक अन्त्येष्टि। 

शर्म बोली। ऐसे शर्मसार करते शर्मनाक समाचार देख-देख कर मैं घुलती जा रही हूँ। अचानक शर्म ग़ायब हो गयी। 

हमने रोज़ की तरह संकल्प किया कि कोरोना काल के नकारात्मक व शर्मसार करते समाचारों से भरे समाचार पत्र बस आज के बाद पढ़ना बंद। लेकिन दूसरे दिन सुबह जब सैर पर बाज़ार के सामने से निकले तो क़दम अपने आप थम गये। बेशर्मी से मुस्कराती खडी़ शर्म ने हमें देखते ही हैड लाईन्स की ओर इंगित किया। "गंगा के घाट किनारे फिर से नीचे दबे शव ऊपर को उतराये।" रेत डलवाने के बावजूद ये दुनिया भर में अपना डंका बजवाने से नहीं मान रहे। जैसे कि बार-बार कहना चाह रहे हों कि हमें सम्मान से जीने का नहीं तो मरने का तो अधिकार दो। फारेंसिक एक्सपर्ट सही कहते हैं कि मुर्दा बोलता है। शर्म मेरी फटी आँखें देख ऊपर बेशर्मी से मुस्करायीं पर अंसवेदनशीलता की पराकाष्ठा देखकर भीतर गड़ी जा रहीं थीं। मैंने कहा एक तू ही है जो इतने बडे़ देश में इतनी छोटी-छोटी बातों को दिल पर ले रही है। बडे़-बडे़ नहीं ले रहे। मैंने अख़बार से नज़रें हटायीं तो उसे नदारद पाया। 

राजधानी के एक नामी-गिरामी अस्पताल में रेमडेसिविर इंजेक्शनों की हेराफेरी का रैकेट धराया था। इधर मरीज़ों को नक़ली इंजेक्शन। असली इंजेक्शनों की हेराफेरी उधर कर लाखों छापे जा रहे थे। अगले दिन मैंने कहा कि कल तू बहस अधूरी छोड़ कहाँ चली गयी थी। बोली ऐसे माहौल में मेरा दम घुटता है। गिने-चुने जो शर्मदार बचे हैं मैं उन्हीं की शरण में चली जाती हूँ। 

आज मेरी व उसकी नज़र एक साथ ख़बरों पर गयी। संबंधियों ने कोरोना से मृत माँ की देह के पास आने से इंकार किया। पर जब फोन आया तो झट पास आकर पायल अंगूठी उतार ली। शर्म पुनः शर्मसार हो अब तो मुझे जीने का कोई अधिकार नहीं बोलते पलक झपकते ग़ायब हो गयी थी। 
अगले दिन का समाचार "अढ़ाई लाख लेकर रेमडेसिविर की कालाबाज़ारी करने वाले नामी अस्पताल के कर्मचारी को जाँचकर्ता दो इंसपेक्टरों ने छोड़ा।" 

अगले दिन मैंने शर्म से कहा इतनी जल्दी दिल छोटा करने की ज़रूरत नहीं है। देख आज के समाचार। शर्मनाक करतूतों करने वालों के झुंड में शर्मदार भी हैं। दोनों निलंबित कर दिये गये हैं। एक और ख़बर। हिन्दु-मुस्लिम युवाओं का एक समूह अपने कार्यों का बग़ैर डंका पीटे ज़रूरतमंदों की मदद मास्क लगाकर करता है। एक अन्य समूह कोरोना में मृत ऐसे लोगों का दाह संस्कार करता है जिनके अपने जानबूझकर सामने नहीं आते। 

शर्म अब मुझे आत्मविश्वास से भरी व प्रसन्न लगी। उसने प्रण किया कि ऐसे परोपकारी जब तक जीवित हैं तब तक वह हरगिज़ लुप्तप्रायः नहीं होगी। शर्मसार करने वालों की जमात व कोरोना दोनों को परास्त करने अपना भरसक योगदान देगी। 

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