कैसा ये रिश्ता है ?
हँसाता है, रुलाता है,
और कभी यादों की दहलीज़ पर
आकर खड़ा हो जाता है
 
कभी चल पड़ता है क्षितिज की ओर
और उसे घंटों निहारता है
आसमा में ढूँढ़ता है अपनो को
तारों से बतियाता है
 
किसी अनजाने बंधन में बँध जाता है
कभी रूठता है, कभी मनाता है
कभी काँच सा टूट,
ज़मीन पर बिखर जाता है
 
कभी किसी डोर से जुड़ कर
पतंग बन जाता है और
उड़कर आसमां छू आता है
कभी आँख से टपक कर
आँसू बन जाता है
कैसा ये रिश्ता है?
 
अनेकों प्रश्न बन मेरे सामने
एक उलझन बन जाता है
कभी भीड़ में ला खड़ा करता है
कभी प्रश्नों के हल ढूँढने को
अकेला . . . बहुत अकेला छोड़ जाता है
कैसा ये रिश्ता है? . . .
समझ नहीं आता है।

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