मरीचिका - 3

01-09-2020

मरीचिका - 3

अमिताभ वर्मा (अंक: 163, सितम्बर प्रथम, 2020 में प्रकाशित)

(मूल रचना:  विद्याभूषण श्रीरश्मि)
धारावाहिक कहानी

1950-51

प्रेरणा के जन्म के डेढ़ महीने बाद से ही मुझे नौकरी पर वापस जाना पड़ा। हम दोनों की अनुपस्थिति में बच्ची की देख-रेख के लिए पुराने नौकर के अलावा एक आया रखना ज़रूरी हो गया। वृद्धा मैना बाई को नौकर से ज़्यादा पैसे देने पड़ते थे। नौकर को निकालना सम्भव न था, प्रेरणा को सम्भालने के साथ-साथ खाना बनाना, चौका-बर्तन करना, घर की सफ़ाई और बाहर के फुटकर काम करना अकेली मैना के वश की बात न थी। बच्ची के ख़र्च अलग जुड़ गए थे। मात्र तीन महीनों में ही हम पर दो सौ रुपयों से ज़्यादा का कर्ज़ चढ़ चुका था। ऐसे में, भला हो खन्ना साहब का जिनकी कृपा से हमारी आय में पचपन रुपए की वृद्धि हुई और डूबते हुओं की नाक पानी से ऊपर आ गई।

अब हमारी जीवन शैली बदल चुकी थी। मैं भारी मन से दफ़्तर जाती। टाइपराइटर की खट्-खट् के बीच प्रेरणा की आवाज़ सुनाई देती, उसे देखने को मन रह-रह कर व्याकुल हो उठता। तरह-तरह के ख़याल आते। मैना उसे अकेली छोड़ कर गप्पें लड़ाने बाहर तो नहीं चली गई? प्रेरणा रो तो नहीं रही? वह ठीक तो है? फिर ख़ुद ही मन को सांत्वना देती, मैना ऐसी नहीं है। और इसीलिए तो बाबू को भी निकाला नहीं है। मेरी प्रेरणा अकेली कहाँ है, दोनों तो हैं उसके पास! शाम को मैं तीर की तरह पालने के पास पहुँचती और प्रेरणा को उठा कर इतना चूमती, इतना चूमती, कि नन्ही-सी जान अकुला कर रो पड़ती। उसके रोने पर भी मुझे हर्ष ही होता, मैं गद्गद् हो जाती। विमल को भी अब बाहर रहने की बजाय घर लौटने की जल्दी रहती। हाँ, दोस्तों की गिरफ़्त मज़बूत हो जाने पर उसे कभी-कभी घर को भूलना पड़ता।

मकान में तीन किरायेदार और थे, दो व्यवसायी और एक सरकारी अफ़सर। तीनों गृहलक्ष्मियाँ नौकरी नहीं करती थीं। सदा घर पर रहने से वे प्रेरणा की शुभचिन्तिका बन गई थीं। उतनी बड़ी हितैषी तो शायद मेरी अपनी माँ भी न होतीं! जब भी मिलतीं, मुझे प्रेरणा को आया के भरोसे छोड़ने पर ताक़ीद करतीं, मैना की लापरवाहियों के बारे में संकेत देतीं। अब मैं क्या कहती? अकेले विमल की आमदनी से घर चल पाता तो ऐसे समय मैं भी नौकरी नहीं करती, पूरा समय बच्ची को ही देती। रही बात आया रखने की, तो हम पति-पत्नी दोनों में से किसी के भी परिवार में प्रेरणा की देखरेख के लिए कोई बुज़ुर्ग महिला उपलब्ध नहीं थीं। बचपन में ही विमल के माता-पिता का देहान्त हो गया था, वह चाचा के घर पला था जिनकी प्राथमिकताएँ कुछ और थीं। मेरी माँ भी आने में असमर्थ थीं। आया पर भरोसा करना हमारी मजबूरी था। और जब बाहर की औरत पर ही भरोसा करना हो, तो एक क्या और दूसरी क्या? मैना की लापरवाही के बारे में पड़ोसिनों के क़िस्से कितने विश्वसनीय थे, उस पर भी एक प्रश्नचिह्न तो था ही। इसलिए बहुत सोचने-विचारने के बाद मैंने आया के साथ और अधिक आत्मीयता का व्यवहार आरम्भ कर दिया। उम्मीद थी कि वह भी अपनी-जैसी बन कर प्रेरणा की बेहतर देखभाल करेगी। वैसे भी, उसकी तीनों बेटियाँ शादीशुदा थीं, अपना अलग घर बसा चुकी थीं। पारिवारिक बन्धनों से लगभग मुक्त थी मैना। ऐसी आया मिलना आसान न था।

एक दिन मैना ने भेद-भरे अन्दाज़ में कहा, "बीवीजी, ईहाँ की पड़ोसिनें ठीक नाहीं हँय।"

मैंने विस्मय से पूछा, "क्यों, क्या हुआ?"

मैना पास ख़िसक आई। लगभग फुसफुसा कर बोली, "जलत हँय सब आपसे! कब्भो आपके बारे में, तौ कब्भो बाबूजी के बारे में अनाप-सनाप बकती रहैं हँय सब। आउ ओ सामनेवाली भटियाइन कल हमका बुलाय के कहत रही कि उनकर बहिन का बहुत बेजोड़ जरूरत पड़ि गई हय, हम बेसक पाँच रुपय्या जादा ले लें, पर उनिकी मदद करि देंवें।"

मेरे पैरों के नीचे से धरती सरक गई, कहीं यह तनख़्वाह बढ़वाने की धमकी तो नहीं! घबरा कर पूछ बैठी, "तो तुमने क्या जवाब दिया, मैना बाई?"

मैना मुस्कराते हुए बोली, "हम कहि दिए कि काहे नाहीं, हम जरूर करैंगे उनकी बहिनियाँ की मदद। बस, हमार बूढ़ी हड्डी में हर दुई दिन मा दरद हुई जात है तौ साहिब मेम साहिब तेल लगाई के गोड़ चाप देत हँय हमार। उनकी बहिनिया को भी उहै करना होगा।"

मुझे हँसी आ गई, बोली, "फिर?"

"फिर का? खिसियाय के लगी लबरझोंझों बतियाने, 'गरिदन न चाँप दें तोर? समझती का हय अपने को? कल्ह लात मारि के निकाल देंगे त होस ठिकाना आ जाई।' " उसकी भी हँसी फूट पड़ी।

"तुम तो मधुबाला को भी बड़ी आसानी से टक्कर दे सकती हो, मैना बाई! अगली 'महल' की हीरोइन तुम ही बनना।" मैंने हँसते हुए कहा, फिर गम्भीरता से बोली, "इस घर से तुम्हारे जाने का सवाल ही नहीं उठता। हम तुम्हें अपनी समझते हैं। और तुम भी कोई कसर नहीं छोड़तीं। इस प्रेरणा को जन्म दिया मैंने, पर पाल रही हो तुम। तुम जैसा खिला रही हो, हम खा रहे हैं।"

"उहौ कौनो कहे का बात हौ? अच्छा देखैं, तरिकारी न जलि जाय!" बोलते-बोलते मैना उठ खड़ी हुई।

काश, उस दिन की मेरी बात इतनी सच न निकलती! मेरा और प्रेरणा का साथ छः साल बाद ही छूट गया, पर मैना आज भी डैने पसारे उसे छाया दे रही है, उसकी रक्षा कर रही है। ख़ैर!

मैना से पछाड़ खाने के बाद भी पड़ोसिनों ने हिम्मत न हारी। अब वे मुझ पर लक्ष्य साधने लगीं। उनके हर नए गहने-साड़ी की नुमाइश मेरे सामने होना ज़रूरी हो गया। मैं ज़रा-सी भी तारीफ़ करती तो हो जातीं शुरू, "अच्छी लगी? मँगा दूँ एक तेरे लिए?" मिसेज़ कॉल और मिसेज़ भाटिया मनुहार करने लगीं कि मैं घर का अधूरापन पूरा कर दूँ, जैसा सोफ़ा और फ़्रिज उनके घर में है, वैसा-ही ख़रीद लाऊँ। सूद साहब ने रेडियोग्राम ख़रीदा, तब भी वही प्रश्न उठा, "आख़िर आप-दोनों पैसे कमा-कमा कर तिजोरी क्यों भर रहे हो, कभी कोई स्टैण्डर्ड की चीज भी ले लिया करो।" इन सभी संदेशों में अन्तर्निहित भाव एक ही था, "स्वीकार करो कि तुम हमसे तुच्छ हो!"

धीरे-धीरे मैना पर हमारा भरोसा बढ़ने लगा और हम घर से बाहर निकलने लगे। चार-छः महीनों में हमने पुरानी रफ़्तार पकड़ ली, कभी हम दोस्तों के वहाँ और कभी दोस्त हमारे यहाँ। एक बार सोशल सर्कल बन जाए, तो उससे बाहर निकलना दुरूह हो ही जाता है। आदमी अकेला नहीं रह पाता, दम घुटने लगता है उसका, अफ़ीम की तलब में तड़पते अफ़ीमची-जैसा बर्ताव करने लगता है वह। यही नहीं, जैसे कुछ बादशाहों-नवाबों को नई-नई हसीनाओं से हरम भरने का जुनून होता था, कुछ उसी तरह सोशल सर्कल में फँसा प्राणी भी नए-नए मित्रों को सम्मिलित कर सामाजिक दायरे के विस्तार में संलग्न हो जाता है। इन मित्रों की आवश्यकता और उपयोगिता से अधिक सरोकार नहीं होता उसे। 

हम कान्ति के विवाह में आरा गए, और वापस लौटने के दस दिन बाद ही अकेलेपन से कुछ इस क़दर व्याकुल हुए कि घर में डिनर का आयोजन करना पड़ा। विमल के मित्र के मित्र हमारे 'गेस्ट ऑफ़ ऑनर' होने वाले थे। वे 'नॉवेल ऐन्टरप्राइज़ेस' नामक बड़ी कम्पनी में एकाउण्ट्स ऑफ़िसर थे। सुना था कि हज़ार-एक के क़रीब तनख़्वाह थी उनकी। नाम था, पुलिन बिहारी नौटियाल।   

डिनर, पार्टी वगैरह अच्छा बहाना होती हैं मिलने-जुलने का, गप-शप करने का। डिनर से पहले गपबाज़ी, डिनर के दौरान गपबाज़ी, और डिनर के बाद गपबाज़ी। इतनी ज़्यादा गपबाज़ी के लिए तरह-तरह के विषय ढूँढ़ने पड़ते हैं। फिर भी, मौसम, फ़िल्मों, फ़ैशन और विज्ञान जैसे सुरक्षित विषयों से बात अक़्सर फिसल कर शिक्षा, सेहत, राजनीति और सहकर्मी-पड़ोसी-जैसे संवेदनशील मुद्दों पर अटक ही जाती है। उस दिन भी कुछ ऐसा ही हुआ। दिलीप कुमार और राज कपूर की अभिनय प्रतिभा के उदाहरण गिनाते-गिनाते हम चीन-कोरिया युद्ध और चेकोस्लोवाकिया में भुखमरी जैसी विभीषिकाओं की चर्चा करने लगे, और अन्त में नौटियाल साहब हमारे व्यक्तिगत जीवन पर उतर आए। बोले, "विमल जी, मैं कहूँ, आप तो बड़े समझदार आदमी हो, सरकारी आदमी हो, लेकिन, मैं कहूँ, हमारी प्रतिमाजी को क्यों फँसा दिया?"   

विमल बगलें झाँकने लगा, "आजकल अकेले आदमी की इनकम से खर्च पूरा कहाँ पड़ता है?"

"भाई, लेडीज़ का नौकरी करना खराब थोड़े-ही है। लेकिन सरकारी नौकरी क्यों भाई? मुँह बन्द करके जिन्दगी-भर की गुलामी क्यों? समय पर तरक्की भी ना होगी। मैं कहूँ, ऐजुकेटेड, टैलेण्टेड लेडीज की जगह ना है वह!"

"ठीक है, तरक्की धीमी है, पर सरकारी नौकरी में सिक्योरिटी तो है, पेंशन तो है! प्राइवेट में क्या भरोसा, कब नोटिस मिल जाए? सेठजी की जी-हुजूरी करते रहो। सैलरी भी तो कुछ ठीक-ठाक नहीं होती वहाँ।"

"विमलजी, लगता है आपने स्टैण्डर्डवाली प्राइवेट कम्पनियाँ देखी नहीं हैं। मैं कहूँ, वहाँ आप गौरमेण्ट जॉब से ज्यादा सेक्योर होते हो, कम नहीं। और सैलरी तो इतनी मिले है कि रिटायरमेण्ट से पहले बिल्डिंग खड़ी कर लो।"

"लेकिन वैसी कम्पनी में जॉब के लिए पहुँच चाहिए, रिश्तेदारी चाहिए। हर किसी को थोड़े ही मिल जाता है ल्यूक्रेटिव जॉब?"

"ना, ना! टैलेण्ट चाहिए, रिश्तेदारी नहीं।" नौटियाल साहब मुझे देखते हुए कहने लगे, "मैं कहूँ, मैं रिश्तेदार हूँ किसी का? पर मुझे नौकरी मिली। तनख्वाह भी बढ़िया है। इतना तो गौरमेण्ट में रिटायरमेण्ट के टाइम पर भी ना मिले।"

विमल और नौटियाल साहब के कॉमन फ़्रेंड, अरोड़ा, ने हामी भरी,"बात ठीक है नौटियाल साहब की। अब तो, भाई, प्राइवेट नौकरी में ही मज़ा है। बड़ी-बड़ी कम्पनियों में स्टाफ़ का इतना ध्यान रखा जाता है कि पूछो मत! तनख़्वाह भी ख़ासी मिल जाती है। आर्या को ही ले लीजिए। पहले पब्लिकेशन्स डिविज़न में छः-सात सौ पर असिस्टेण्ट एडिटर था। अब है टाइम्स ऑफ़ इण्डिया में भी असिस्टेण्ट एडिटर ही, पर मिलते हैं पूरे डेढ़ हज़ार। कुछ साल में डेप्युटी एडिटर बन कर ढाई हज़ार कमाएगा। सरकारी नौकरी में घिसटता रहता, तो पता नहीं, रिटायरमेण्ट तक भी डेढ़ हज़ार कमा पाता या नहीं। ... अब सरकारी नौकरी में वह चार्म नहीं बचा।"

अरोड़ा की शह पाकर नौटियाल साहब का मुँह और ख़ुल गया, "अब बुरा मत मानना, मैं कहूँ, प्रतिमाजी को क्या मिल रहा है गौरमेण्ट में?"

"क्या मिलता है ..., यही ... कोई डेढ़ सौ के क़रीब।"

"और काम कितने साल से कर रही हैं?"

"यह तीसरा साल जा रहा है।"

"च् च् च्! एक टैलेण्टेड, ग्रेजुएट लेडी सिर्फ़ सरकार में ही तीन साल बाद भी डेढ़ सौ पर काम कर सकती है।"

"क्यों, आपके वहाँ कितने मिल जाएँगे?" विमल ने गर्म लोहे पर चोट की।

नौटियाल साहब अपने वाग्जाल में ख़ुद ही फँसने के बावजूद नर्वस नहीं हुए। बोले, "मैं क्या जानूँ? ... वैसे तीन सौ ... बल्कि चार सौ भी मिल सकते हैं!"

"लेकिन आपके वहाँ काम नहीं मिलेगा!" विमल ने फन्दा कसा।

"अब भाई, मैनेजिन्ग डायरेक्टर की पी ए के लिए खोज तो रहे थे एक कल्चर्ड, स्मार्ट लेडी। पता नहीं जगह भरी कि नहीं। ... पर, मैं कहूँ, आपलोगों को तो सरकारी नौकरी प्यारी है।" 

मछली जाल से बाहर निकलने के लिए छटपटा रही थी, लेकिन विमल कोई अनाड़ी शिकारी नहीं था। झट से बोला, "नहीं, सरकारी नौकरी का ऐसा कोई मोह नहीं है हमें! अगर अच्छा जॉब मिल जाए, तो क्या बुरा है? क्यों प्रतिमा?"

"हाँ, हाँ, बुरा क्या है?" मैंने हाँ-में-हाँ मिलाई।

"लीजिए नौटियाल साहब, मैंने दे दिया वर्ड! नाऊ इट इज़ योर रिस्पॉन्सिबिलिटी।" विमल अपनी ओर से डील सील करते हुए हँसा।

नौटियाल साहब पूरी तरह फँस चुके थे, पर उनके चेहरे पर शिकन तक न आई। बड़े आत्मविश्वास से बोले, "फिर प्रतिमाजी, आप कल सुबह साढ़े दस बजे आ जाओ हमारे दफ़्तर। गॉड विलिंग, कुछ अच्छा ही होगा।"

सबके जाने के बाद विमल ने हर्ष-विह्वल वाणी में कहा, "कितनी अच्छी तरह लपेटा मैंने नौटियाल को। अब चार सौ की नौकरी नहीं दिलाई, तो नाक कट जाएगी उसकी। और नौकरी मिल गई, तो हमारी क़िस्मत को पलटा खाने से कोई नहीं रोक सकता। छः सौ कम नहीं होते। क्यों प्रतिमा? तुम कहतीं थीं न, कैसे लेंगे दो सौ का सूट और सौ की साड़ी! अब देखो, कैसे नहीं लेते हम ये सब!"

मैंने चुटकी ली, "बोल तो ऐसे रहे हैं जैसे स्वर्ग की अप्सरा ब्याह लाए हैं जिसे जॉब मिल ही जाएगा!"

"तुम कम हो किसी स्वर्ग की अप्सरा से?" विमल ने मुझे चूम लिया। 

"अच्छा, अच्छा, छोड़िए भी अब। बाबू अभी सोया नहीं होगा। आ गया तो? ... और, हमें नौटियाल की बात इतनी सीरियसली नहीं लेनी चाहिए। पता नहीं, जगह सचमुच ख़ाली भी है या नहीं।"

"नहीं, नहीं, नौटियाल डज़न्ट अपीयर टू बी दैट टाइप। और अगर वह झूठा साबित हुआ, तो भी इट्स ए विन फ़ॉर अस। बट आई डोन्ट थिन्क दैट इज़ गोइन्ग टू हैपन। वह बड़े कनविक्शन के साथ बोल रहा था।" विमल के स्वर में गहरे विश्वास का पुट था।

 "मेरी जगह अगर तुम्हें ये नौकरी ऑफ़र होती तो कितना अच्छा होता! मुझे प्रेरणा से दूर नहीं रहना पड़ता।" मेरे मन की बात होंठों पर आ गई। 

"डोंट बी सिली! यह जमाना घर बैठ कर बच्चे सम्भालने का नहीं, अपने फ़ुल पोटेन्शियल को एक्सप्लॉइट करने का है, प्रोग्रेस करने का है। ओनली दोज़ पीपल विल सरवाइव हू अर्न फ़ॉर्चून्स, रेस्ट ऑल विल पेरिश। दैट इज़ सर्टेन। जमाना पड़ोसियों से दबने का नहीं, उनसे आगे निकलने का है। फ़्रिज, सोफ़ा, रेडियोग्राम, कपड़े, गहने–अब हम भी लाएँगे ये सब। उनसे बेटर क्वालिटीवाले, उनसे मँहगे, ताकि वे हमारे सामने आने में भी शरमाएँ।" विमल उत्तेजना से लाल हो रहा था।

पड़ोसियों का ज़िक्र छिड़ते ही मेरा रवैया भी बदल गया। सचमुच, ये पड़ोसी, ये दूसरे लोग ही तो हैं जो हमें रह-रह कर डँसते रहते हैं, हमारे जीवन में ज़हर घोलते रहते हैं। ये प्यार की भाषा नहीं समझते। इन्हें इन्हीं की ज़ुबान में जवाब मिलना चाहिए।

दूसरे दिन मैं नौटियाल के ऑफ़िस पहुँची। 'नॉवेल ऐन्टरप्राइज़ेस' का अतिथि कक्ष बड़ा शानदार था। पॉलिश की हुई लकड़ी की दीवारों पर पेन्टिंग्स, मँहगे सोफ़े, कोमल कालीन, एयरकंडीशनर– वहाँ के तो ढंग ही निराले थे, सरकारी दफ़्तरों में वैसी रंगत कहाँ! पहली नज़र में ही वहाँ के वातावरण ने मुझे प्रभावित कर दिया। वहाँ की कार्यकुशलता भी लाजवाब थी। मेरे बैठते ही चपरासी ने ट्रे पर पानी का गिलास पेश किया, पूछा कि मैं चाय-कॉफ़ी में से क्या लेना पसन्द करूँगी। घबराहट रोकने में पानी बहुत काम आया। मैंने चाय-कॉफ़ी दोनों से इन्कार कर दिया और अटैच्ड बाथरूम में जाकर अपने-आप को व्यवस्थित कर लिया। बाहर निकली, तो चपरासी फिर हाज़िर था मुझे नौटियाल के केबिन तक ले जाने को। 

नौटियाल के कमरे की दीवारों पर कई ग्राफ़ टँगे थे। भारत का एक बड़ा-सा नक़्शा भी लगा था, जिसमें कुछ जगहों पर पिन लगे थे। उसकी कुर्सी के बाईं ओर दो फ़ोन रखे थे, और सामने मेज़ पर पड़े क़लमदान पर लक्ष्मी की छोटी-सी मूर्ति बनी थी। मेरे बैठते ही उसने चपरासी को जाने को कहा, और इस तरह बेतकल्लुफ़ी से बातें करने लगा, जैसे मुझसे नहीं, पुरानी गर्ल फ़्रेंड से मिल रहा हो। शायद वह मेरी घबराहट जान गया था और इस कोशिश में था कि मैं मुस्कराने-हँसने लगूँ। नौकरी का तो कोई ज़िक्र ही नहीं किया उसने। मुझे थोड़ी उलझन हुई, मैं अपने दफ़्तर से छुट्टी लेकर इतनी दूर उसके जोक्स सुनने तो आई नहीं थी। वह मेरी मनोदशा ताड़ गया, बोला, "मैं कहूँ, अब कुछ काम की बातें कर लें। ... यू जस्ट रिलैक्स!" 

उसने इंटरकॉम की कुजियाँ दबाईं, और बोला, "नौटियाल, सर! दैट लेडी हैज़ जस्ट अराइव्ड सर। ... यस, सर। ... फ़ाइन, सर।" उसने रिसीवर क्रेडल पर रखे बिना लाइन काटी, और कुछ दूसरी कुंजियाँ दबाईं, "एओ हियर। ... हाँ, हाँ, सब ठीक है। सुनो, ज़रा एक एप्लिकेशन फ़ॉर्म भिजवा दो इमिडियेटली। ... हाँ, हाँ।"

मेरी जान-में-जान आई। गाड़ी लाइन पर थी। वाक़ई, कम्पनी में वेकेन्सी थी, और मेरा इन्टरव्यू भी होने जा रहा था। इतना-कुछ सच था तो शायद वह तीन-चार सौ रुपए सैलरीवाली बात भी सच हो। अब यह मुझ पर निर्भर करता था कि मैं इंटरव्यू बोर्ड को कितना प्रभावित करूँ कि मौक़ा मेरे हाथ से फिसल न जाए। अब तक एप्लिकेशन फ़ॉर्म आ चुका था, छोटा-सा फ़ॉर्म जिसमें साधारण जानकारी माँगी गई थी। फ़ॉर्म भरते-भरते मैंने नौटियाल से पूछा, "इंटरव्यू बोर्ड में कितने लोग होंगे? क्या एमडी साहब भी वहाँ होंगे?"

नौटियाल मुस्कराया, "वहाँ एमडी साहब ही होंगे। मैं कहूँ, यह कोई सरकारी ऑफिस थोड़े-ही है कि एक आदमी का काम पाँच आदमी करें। यहाँ तो हर आदमी को पाँच आदमियों का काम करना होता है।" 

उसका इंटरकॉम बजा। रिसीवर उठाते ही उसकी भाव-भंगिमा बदल गई, "नौटियाल, सर! ... यस, सर! ... यस, सर! ... नो, नो ... सर!" वह कुछ और भी बोलने जा रहा था, पर स्पष्ट था कि दूसरी तरफ़ से लाइन कट चुकी थी।

वह कुर्सी से उठते हुए बोला, "चलिए!" लेकिन, मेरे चलने को तत्पर होते ही बोला, "रुकिए!" बिना किसी हिचक के उसने मेरी बाईं ओर की एक लट खींच कर गाल पर लटका दी। "अब आप लग रही हैं ऑड्रे हेपबर्न की तरह। केयरफ़ुल केयरलेसनेस! एमडी साहब को स्मार्ट और अट्रैक्टिव पीए पसन्द हैं। और देखिए, शर्माइए-हिचकिचाइएगा नहीं, बोल्डली जवाब दीजिएगा। डोंट बी नर्वस, यू विल डू वेल!" और उसने मेरा हाथ अपने हाथों में लेकर थपथपा दिया। मुझे उसका इस तरह छूना अजीब लगा, लेकिन वह यह सब मेरी सफलता के लिए ही तो कर रहा था। मैं उसे देख कर मुस्कराई, और हम एमडी के दरवाज़े पर दस्तक देकर, उत्तर की प्रतीक्षा किए बग़ैर, कमरे में दाख़िल हो गए। 

मैंने एक नज़र में ही देख लिया, एम डी का कमरा बड़े परिष्कृत ढंग से सजा था। जगह-जगह छोटे-बड़े कई बल्ब लगे थे। कमरा न ख़ाली लगता था, न भरा। हर सूनी जगह बड़ी चतुराई से पीतल के चमचमाते गमलों में हरे-भरे पौधे और दीवारों पर तैल-चित्र लगे थे। दरवाज़े के पास पानी से भरे एक थाल में गुलाब की लाल-लाल पंखुड़ियाँ तैर रही थीं। कमरे में हल्की-सी ख़ुश्बू फैली थी। खिड़कियों पर दोहरे पर्दे थे, एक रेशम-सा झीना और दूसरा मखमल-सा मोटा। सोफ़ों के सामने पड़ी सेन्टर टेबल पर बड़ी तरतीब से कुछ पत्रिकाएँ रखी थीं। दीवार में बनी एक आलमारी में पुस्तकें सजी थीं। बड़ी-सी चमचमाती टेबिल पर पड़े गुलदस्ते में विदेशी फूल खिले थे। आगन्तुकों के लिए रखी कुर्सियों में भी पहिये लगे थे। हर चीज़ बेहद साफ़-सुथरी थी।

एम डी पचास वर्ष के रहे होंगे। करीने से कटे बाल, बुर्राक़ सफ़ेद कमीज़, कलाई में क़ीमती घड़ी, क़रीने से कटे नाख़ून, और रौबदार चेहरा। नौटियाल उन्हें देख कर मुस्कराया, और आदेश की प्रतीक्षा में हाथ बाँधे खड़ा हो गया। एमडी ने आँखों से उसे जाने का इशारा किया, और मुझे बैठने का। "थैंक यू, सर" कह मैं सकुचा कर बैठ गई, और एप्लीकेशन फ़ॉर्म आगे बढ़ा दिया।

एम डी ने नौटियाल के जाने के बाद हौले-हौले बन्द होते दरवाज़े को एक क्षण घूरा, फिर मुझे ध्यान से देखा, और फ़ॉर्म पढ़ने लगे। एक मिनट बाद उन्होंने नज़रें उठाईं और स्वतः बोले, "मुल्क़ नया-नया आज़ाद हुआ है। अगर लोग सरकारी नौकरी छोड़-छोड़ कर प्राइवेट सेक्टर में जाने लगेंगे, तो वतन तरक़्क़ी कैसे करेगा?"

मैंने मुस्कराते हुए कहा, "देश की प्रगति के लिए प्राइवेट सेक्टर का स्ट्रॉन्ग होना ज़रूरी है।"

एम डी ने मुझे पैनी निगाहों से देखा, "हूँ, वरना सब 'सिन्दरी फ़र्टिलाइज़र' बन जाएँगे! अच्छा, ये बताइए, आप इस कमरे को इतने ग़ौर से देख रही थीं। आई ऐम श्योर, किसी भी सरकारी दफ़्तर के मुक़ाबले हमारे आफ़िस की डेकर कहीं ज़्यादा एक्सपेन्सिव है। 'डीसीएम' और 'टाटा' के इस्टैब्लिशमेण्ट्स की डेकर तो और भी उम्दा होगी। तो, ज़्यादा ख़र्च करनेs के बावजूद भी प्राइवेट सेक्टर प्रोजेक्ट्स ज़्यादा एफ़िशिएण्ट क्यों होते हैं।"

बला की नज़र थी उस आदमी की! मुझे क्या पता था कि जब मैं उसे टेबल पर पड़े काग़ज़ों में खोया मान कमरे का मुआयना कर रही थी, वह मुझे ही देख रहा था। फिर पता नहीं कैसे मेरे होंठों पर जवाब आ गया, "नॉलेज, टाइम, और पैसे को न वेस्ट करना चाहिए, और न उनकी कंजूसी करनी चाहिए। मेरे ख़याल में इन तीनों का ऑप्टिमम यूटिलाइज़ेशन प्राइवेट सेक्टर में बेटर होता है, और इसीलिए वह ज़्यादा एफ़िशिएण्ट भी होता है।"

एम डी के होठों पर मुस्कराहट आ गई। "टाइम इज़ द मोस्ट इम्पॉर्टेण्ट ऑफ़ द रिसोर्सेज़ यू जस्ट मेन्शन्ड! वक़्त गुज़र गया, तो वापस नहीं आने का। आपको यहाँ कभी देर तक रुकना पड़े तो कोई प्रॉब्लेम तो नहीं होगी?" 

"नहीं होगी, सर!"

"हम रूटीन नहीं देखते। काम की डिमाण्ड हो तो किसी-किसी सुबह जल्दी आ जाते हैं यहाँ लोग। यू विल फ़िट इन दिस कल्चर?"

"यस सर, दैट वुड बी फ़ाइन।"

"और ज़रूरत पड़ने पर शॉर्ट नोटिस पर मुझे ओवरनाइट टूर्स पर अकम्पनी भी करना पड़ सकता है। आर यू रेडी टू सैक्रिफ़ाइस योर पर्सनल कन्वीनिएंस फ़ॉर ए ग्रेटर कॉज़?"

"ऐब्सॉल्यूटली, सर!" मैंने ख़ुद को कहते सुना।

"गुड! आई होप ए मन्थली कॉम्पेन्सेशन ऑफ़ फ़ोर हन्ड्रेड रुपीज़ फ़ॉर द फ़र्स्ट ईयर्स प्रोबेशन पीरियड वुड डू जस्टिस?"

"व्हेन यू हैव डिसाइडेड, इट मस्ट बी ऑल राइट।" मैंने मुस्कराते हुए कहा।

एम डी भी मुस्करा पड़े, "यू सीम टू बी मिसचिवस टू!" नौटियाल को फ़ोन पर इंस्ट्रक्शन्स देकर बोले, "कॉन्ग्रेचुलेशन्स! यू कैन बी ए पार्ट ऑफ़ 'नॉवेल ऐन्टरप्राइज़ेस' । प्लीज़ कलेक्ट योर अपॉइण्टमेण्ट लेटर फ़्रॉम द एओ, ऐण्ड जॉइन अस टुमॉरो!" 

नियुक्तिपत्र लेकर घर लौटते समय मुझे मनचाही नौकरी मिलने की ख़ुशी तो थी, पर साथ-ही-साथ अपनी बेवक़ूफ़ी पर ग्लानि भी थी। उस ऑफ़िस की चमक-दमक, उस एम डी के व्यक्तित्व ने मुझे इतना सम्मोहित कैसे कर लिया कि मैं साधारण विवेक को भी तिलांजलि दे बैठी? कैसी-कैसी शर्तें रखीं उसने, और मैंने सब पर हामी भर दी। वह क्या मैं थी? वह क्या मैं हो सकती थी? ऐसा कैसे किया मैंने? कैसे कर सकूँगी यह नौकरी? ऊपर से नौटियाल का छिछोरापन भी बर्दाश्त करना होगा। कहता था, एम डी को स्मार्ट और अट्रैक्टिव पी ए पसन्द है। इसी टैलेण्ट की दुहाई देकर गया था कल रात? ऐसे ही टैलेण्ट, स्मार्टनेस और अट्रैक्टिवनेस की तनख़्वाह मिलेगी मुझे? जल्दी आना, देर से जाना, साथ ओवरनाइट स्टे करना काम के लिए होगा या काम के नाम पर अय्याशी करने के लिए? फिर विमल? प्रेरणा? मेरा घर? क्या होगा उन सबका? 

"नहीं! हम ऐसी नौकरी नहीं कर सकते!" घर के रास्ते में मेरा निश्चय शब्दों के रूप में फूट पड़ा।

शाम को विमल मेरा नियुक्तिपत्र देखकर ख़ुशी से उछलने लगा, "वाह! मैदान मार लिया तुमने! लेट अस सेलिब्रेट आर प्रोग्रेस विद अ पार्टी।"

वह शायद आगे कुछ और भी बोलता, पर मैंने उसे बीच में ही रोक दिया, "लेकिन हमने यह नौकरी नहीं करने का फ़ैसला किया है।" उसके कुछ पूछने से पहले ही मैंने उसे पूरा क़िस्सा सुना दिया। बीच-बीच में डर भी लग रहा था कि कहीं वह ग़ुस्से में न आ जाय, नौटियाल के ख़िलाफ़ कुछ उल्टा-पुल्टा करने की न ठान ले, पर अपने सीने से बोझ उतारना भी ज़रूरी था।

मेरा भय निरापद साबित हुआ। विमल समझाने लगा, "व्हाटेवर नौटियाल डिड वाज़ टू इम्प्रूव योर प्रॉस्पेक्ट्स। वी शुड बी ग्रेटफ़ुल टू हिम। इन फ़ैक्ट, आई ऐम। और, एमडी की पीए के स्मार्ट और अट्रैक्टिव होने में क्या हर्ज है? विज़िटर्स कौन-सी डिक्टेशन देने वाले हैं उसे? उन पर तो पीए की आउटर प्रेज़ेन्स का ही इफ़ेक्ट पड़ता है, प्रेज़ेन्स पॉज़िटिव हुई तो पॉज़िटिव इफ़ेक्ट, नहीं तो निगेटिव इफ़ेक्ट। एमडी निगेटिव इफ़ेक्टवाली पीए क्यों चाहेगा?"

"और वह जल्दी आना, देर तक रुकना, टूर पर साथ लगे फिरना–उन सब का क्या मतलब है?" मैंने पूर्ववत् गम्भीरता के साथ पूछा।

"ओ ऽ हो ऽऽ! तुम भी कितनी डरपोक हो। अरे भाई, देश आजाद हो गया है। ट्रेड यूनियन्स स्ट्रॉन्ग हो गई हैं। ओनर्स डरते है वर्कर्स से, इसलिए पहले ही दुनिया-भर की कन्डिशन्स मनवा लेते हैं ताकि बाद में दिक्कत न हो। इस जॉब को ही लो न। हमने क्या यह शर्त नहीं मानी है कि हम इण्डिया के किसी भी हिस्से में जाकर काम करेंगे? पर क्या इसका यह मतलब है कि हमें कल नगा हिल्स में भेज दिया जाएगा? नहीं! हमारा दफ़्तर सिर्फ़ दिल्ली में है, और यहीं रहेगा। फिर भी, यह शर्त माननी तो पड़ी हमें। इसी तरह ... समझीं न! निकाल दो इन रबिश थॉट्स को मन से। बिहेव लाइक अ ब्रेव गर्ल। आगे बढ़नेवाले इतना छोटा कलेजा नहीं रखते। कल छुट्टी की ऐप्लीकेशन और रेज़िग्नेशन, दोनों दे देना मुझे। जल्दी करा लेंगे फ़ैसला।"

विमल के उत्साह के आगे मेरा सारा सोचा-समझा धरा-का-धरा रह गया। मुझे उसके तर्कों में दम लगा और अपने भीरुपन पर खीझ होने लगी। कुछ विमल का दबाव, और कुछ विपन्नता से अनायास ही मुक्ति की आशा में मैंने अगले ही दिन नौकरी जॉइन करने का फ़ैसला कर लिया, यह भी न सोचा कि पहली जगह से कार्यमुक्त हुए बिना दूसरी नौकरी नहीं करनी चाहिए। 

अक्तूबर 1951 में मैं 'नॉवेल ऐन्टरप्राइज़ेस लिमिटेड' के मैंनेजिंग डायरेक्टर की पी ए बन गई। पहले दिन ही मुझे आठ बजे तक रुकना पड़ा, एमडी ने मेरे सौन्दर्य की पूरी परीक्षा लेने के बाद ही मुझे घर जाने की इजाज़त दी। दूसरे दिन भी देर हुई। विमल से भेद छुपाए रखने के लिए उस दिन नौटियाल ने फ़ीस वसूली। उसके बाद तो देर-सबेर का सिलसिला ही बँध गया–कभी एम डी तो कभी नौटियाल। अच्छी नौकरी मिली थी मुझे! विमल ने नौटियाल को नहीं फँसाया था, नौटियाल ने विमल की इज़्ज़त नीलाम करने का सौदा किया था। पर अब पानी सिर से ऊपर चढ़ चुका था। विमल को असलियत बताने की हिम्मत नहीं थी मुझमें, और वह सच्चाई जाने बिना मुझे नौकरी छोड़ने न देता। मैं बलि का वह बकरा बन चुकी थी जिसे हर रोज़ जिबह होना पड़ता था।

– क्रमशः

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