उसने 
अपने पर्स से 
निकाल दी है,
मेरी तस्वीर
और 
रसोई-घर में 
लगा दिये हैं
ताले!

जिस दिन से,
मैंने उसे कहा है -
"मत किया करो, 
इतना शृंगार,
कि देखकर तुम्हारी
खूबसूरती, 
'किचन' में 
जलने लगें रोटियाँ!"

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

ललित निबन्ध
स्मृति लेख
लघुकथा
कहानी
हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी
हास्य-व्यंग्य कविता
पुस्तक समीक्षा
सांस्कृतिक कथा
विडियो
ऑडियो

विशेषांक में

लेखक की पुस्तकें