डंडे का करिश्मा

26-10-2014

डंडे का करिश्मा

अशोक परुथी 'मतवाला'

दो तीन फल विक्रेता अपनी रेहड़ियाँ "लाल बत्ती'' चौंक के उस स्थान पर जमाये खड़े थे, जहाँ क़ानूनी तौर पर उन्हें खड़ा करना मना था। तभी एक कॉन्स्टेबल चिल्लाता हुआ, अपना 'बैंत' एक रेहड़ी वाले की तरफ हवा में लहराता हुआ उसकी ओर बढ़ा। दो-तीन लीचियों को उठाने के बाद, गुस्से से लाल-पीला होता हुआ बोला, "हरामज़ादो, कितनी बार मना किया है कि यहाँ रेहड़ी मत लगाया करो.. यहाँ रेहड़ी लगाना सख़्त मना है, पर तुम कुते की दुम हो कि मानते ही नहीं। मुझे आज तुम्हारा कुछ इलाज करना ही पड़ेगा!"

"माई बाप, इंस्पेक्टर साहिब! ग़लती हो गई। आज के बाद मैं इधर नहीं आऊँगा, माफ कर दो, साहिब!" फल वाले ने गिड़गड़ाते हुए कहा।

ख़ुद को इंस्पेक्टर साहिब कहलवाकर, ख़ुशी से कॉन्स्टेबल ने रेहड़ी से दो-तीन और लीचियों को उठा लिया, अपने चेहरे पर एक मुस्कान बिखेरी और अपने स्वभाव में थोड़ी नरमी लाते हुए रेहड़ी वाले को आदेश दिया, "ले जाओ यहाँ से अपनी रेहड़ी कहीं दूर! जाओ, एक बार फिर माफ़ करता हूँ!"

कॉन्स्टेबल राम सिंह अब इंस्पेक्टर की माफिक अपनी छाती फुलाये, रौब से अपनी मूँछों को मरोड़ा देते हुए, पास के एक ढाबे मे जाकर बैठ गया।

थोड़ी ही देर में वह रेहड़ी वाला फुवारे वाले चौंक पर आकर जम गया था। कुछ देर बाद प्रोफेसर ठाकुर फल वाले के पास पहुँचे और एक दो लीचियों को अपने दायें हाथ से परखते हुए उन्होंने पूछा, "लीचियों का क्या भाव है, भाई?"

"आठ रुपये किलो!"

"महँगी हैं, भाई, छह रुपये की तो आम मिलती हैं, तुम क्यों इतनी महँगी बेच रहे हो?" प्रोफेसर ठाकुर भाव बनाते हुये विनम्रता से बोले।

"ए मास्टर जी, महँगी हैं तो हाथ मत लगाओ...!" फल वाला थोड़ा अकड़ कर फिर बोला, "जाओ और वहीं से जाकर लेलो, जहाँ छह रुपये में बिक रही हैं, मास्टर जी! जाओ और अपनी राह पकड़ो!"

बिना कुछ कहे प्रोफेसर ठाकुर अब सड़क पर बढ़ने लगे थे।

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

ललित निबन्ध
स्मृति लेख
लघुकथा
कहानी
हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी
हास्य-व्यंग्य कविता
पुस्तक समीक्षा
सांस्कृतिक कथा
विडियो
ऑडियो

विशेषांक में

लेखक की पुस्तकें