ज़िन्दगी फिर यहीं कहीं
मनोज शर्मा
वृद्धाश्रम में कमरे की बालकनी पर टहलते हुए मैंने मेन गेट की ओर देखा। एक गाड़ी हार्न देकर गेट के सामने रुकी। अपने गंतव्य को पुख़्ता करते हुए गाड़ी की खिड़की से एक चेहरा बाहर निकला जो आश्रम के सामने लगे बड़े बोर्ड को पढ़ने लगा और स्वयं को आश्वस्त करता हुआ गेट से बाहर आ गया। गाड़ी की पिछली सीट से दो स्त्रियाँ गेट खोलकर बाहर आयीं और गेटकीपर से कुछ पूछने लगीं। पीछे वाला चेहरा यद्यपि धुँधला दिख रहा था पर फिर भी कुछ पहचाना-सा प्रतीत हो रहा था। मैं जैसे ही आँखों पर चश्मा लगाकर बालकनी में उस चेहरे को पहचानने के लिए गया। गेटकीपर ने बड़ा दरवाज़ा खोलते हुए उन्हें ऑफ़िस के सामने जाने का निर्देश दिया।
मैं बालकनी से अंदर आकर अपने बिस्तर पर बैठ गया और स्वयं से पूछने लगा, ‘जाने क्यों लगा इस चेहरे को पहले देखा है!
‘कौन हो सकता है? पर यहाँ क्यों?
‘कहीं पूर्वा तो नहीं?
‘नहीं नहीं वो क्यों यहाँ!’
‘पूर्वा! वो पूर्वा नहीं हो सकती वो तो बहुत अमीर थी ऐसे-वैसे दस आश्रम ख़रीद दे! नहीं वो पूर्वा नहीं हो सकती! और इतना उदास चेहरा पूर्वा का तो नहीं हो सकता।’
मैं पाजामे पर स्काई क़मीज़ पहनकर धीरे-धीरे बालकनी से नीचे उतरने लगा। ऑफ़िस के सामने अब कोई नहीं था। गेट के बाहर गाड़ी स्टार्ट हुई और पल भर में ही वहाँ से दौड़ गयी।
मौसम बेहद उमस भरा था एकदम चिपचिपा-सा। पल भर में ही सारा माथा पसीने से भीग गया। सब बुज़ुर्ग अपने-अपने क्रियाकलापों में व्यस्त दिखे। शान्ति के हाथों में उनके परिवार की पुरानी तस्वीर थी जिसे वह बड़े प्रेम से सहेजकर रखती है; हाँ, यह अलग बात है कि उसके परिवार का आजतक यहाँ कोई उससे मिलने नहीं पहुँचा। दिवाकर बाबू तख़्त पर बैठे दाढ़ी के लिए साबुन घोलते हुए अपने खिचड़ी बालों को आईने में निहार रहे थे। मुझे क़रीब देखकर सहसा वो मुस्कुराए और चेहरे पर उगी दाढ़ी को सहलाते हुए पुनः दाढ़ी बनाने की तैयारी में जुट गये।
सहसा ऑफ़िस के गेट से बाहर उसी धुँधले चेहरे को देखकर मैं चकित रह गया। लगा! हो न हो ये पूर्वा है। मैंने कन्फ़र्म करने के लिए आँखों पर चश्मा लगाया! ये पूर्वा ही थी! मैं यकायक सामने देखकर स्तब्ध हो गया मानों शांत सागर की गहरी लहरों ने मुझे अंदर खींच लिया हो। मैं सकपका सा गया पर फिर भी हिम्मत की और क़रीब जाकर पूछा, “पूर्वा?”
हाथों में एक मुड़ा-तुड़ा-सा बैग थामे वो मुझे देखती रह गयी। उसकी नज़रें ज़मीं में गढ़ी थी। “माता जी!” पीछे से स्वर पूर्वा के कानों में पड़ा।
“आप दायीं तरफ़ तीसरे कमरे में रहेंगी।” पूर्वा ने वार्डन की आवाज़ सुनी और फिर दायीं ओर बने कमरों को देखने लगी। तीसरे कमरे की ओर बढ़ते हुए उसने कनखियों से मेरी ओर देखा पर उदास मन से देखते हुए वो अपने कमरे की ओर बढ़ गयी। तीसरा कमरा मेरे कमरे की बालकनी के बिल्कुल सामने है। मैं कुछ देर इधर-उधर देखता रहा। मेज़ पर तह में लिपटे कल के अख़बार के एक हिस्से को लेकर पुनः अपने कमरे में चला आया और सोचता रहा!
‘पूर्वा यहाँ कैसे?’
इसी सोच में डूबे मैं अख़बार को देखता रहा पर कुछ न पढ़ा गया। ख़बरें जैसे पल-पल में बदल रहीं हों पर उन पर नज़रें एक पल भी न टिक रहीं हों। दस बजने वाले हैं अब सभी नाश्ते की टेबल पर उपस्थित होंगे ये सोचकर मैं नहा लिया और तौलिया बालकनी की शिराओं पर सुखा दिया। आश्रम से सारे बुज़ुर्ग मैस में जाने के लिए बाहर अहाते में सभी उपस्थित होते जा रहे थे दिवाकर ने नीचे कमरे के बाहर खड़े-खड़े मुझे नीचे आने का न्यौता दिया।
अब सब अहाते में आ चुके थे पर पूर्वा वहाँ नहीं थी। शायद उसे अभी यहाँ आने का समय आदि की जानकारी न हो पर जल्द ही वो भी रोज़ यहीं होगी। शाम के खाने पर भी सब इकट्ठे थे पर पूर्वा शाम को भी न दिखायी दी।
पहले एक दिन बीता फिर दूसरा, तीसरा, चौथा, सातवाँ, और एक-एक करके कितने ही दिन बीते पर पूर्वा को कभी वृद्धों से मिलते-जुलते या किसी से बात करते नहीं देखा और एकाध बार मिली भी तो किसी दार्शनिक की भाँति जड़वत!
जैसे कोई हरा वृक्ष समय से पूर्व ही ठूँठ बनकर झुक गया हो।
वो दो-तीन साल और शायद बाद में भी जब भी पूर्वा को देखता था एक चंचल बालक की तरह हँसता चहकता देखा था। वो छवि आज भी पूर्ववत ज़ेहन में हैं शायद तभी से अब तक कभी भी पूर्वा को नहीं भुला पाया। जब से अब तक मेरी डायरी के पन्नों में पूर्वा रोज़ आती है। रोज़ रात को डायरी लिखता हूँ आज लाचार हूँ, बेकार हूँ पर डायरी लिखने का सिलसिला आज भी नहीं थमा है। शायद मेरे लेखन प्रेम ने ही पूर्वा को मेरी ओर आकृष्ट किया था। डायरी के पन्ने उलटते पूर्वा की पुरानी तस्वीर हाथों में थामे मैं पूर्व में चला गया!
इतना गंभीर और पूर्वा!
वो ऐसी तो न थी!
क्या कोई हादसा तो नहीं?
नहीं! नहीं!
वो कितना हँसमुख थी एक बार बोलना आरंभ कर दे तो उसे रोकना कठिन हो जाता था। रोज़ नयी-नयी ड्रैसेज और पर्स नोटों से लबालब भरा रहता था और हो भी क्यों न?
ज़मींदार की बेटी थी और वो भी पुराने रसूख़दार ज़मींदार! पर एक बात तो थी पूर्वा में उसे कभी अपनी दौलत पर या अपने रसूख़ पर गुमान नहीं था। तभी किसी भी सहपाठी को किसी भी तरह की कमी की पूर्ति करने में वो हिचकती तक नहीं थी।
पूर्वा मेरी कॉलेज मित्र थी हम दोनों रूद्र प्रयाग कॉलेज में पढ़ते थे। वो उन दिनों द्वितीय वर्ष में थी जबकि मेरा स्नातक का अंतिम वर्ष था। मेरे कॉलेज नोट्स ही पूर्वा को पसंद थे और मैं भी किसी न किसी नोट्स आदि के बहाने से पूर्वा से मिलने का प्रयास करता था। हमारा मेल-जोल इतना बढ़ गया था कि सब मनु-पूर्वा को एक-साथ पाते थे। लायब्रेरी हो या कैंटीन, बस स्टाॅप या कॉलेज ग्राऊंड हर जगह दोनों संग-संग।
वो एक डेढ़ साल कैसे बीता कुछ भी पता नहीं चला।
हम दोनों घंटों-घंटों हर उद्यान की बैंच पर भविष्य की योजनाएँ बनाते थे। कितने गिफ़्ट पत्र आदि आदान-प्रदान होते थे। एक थाली में खाना सुख-दुःख बाँटना, घूमना-फिरना सब संग होता था।
कितनी ही मर्तबा लगता था कि पूर्वा मुझे चाहती है पर शायद यह सत्य ही था कि एक मुफ़लिस और अमीर के प्रेम का कोई मेल नहीं होता।
मेरा प्रथम दायित्व परिवार को पालना था। पिता नहीं थे और माँ की बीमारी ने मुझे छोटी-मोटी नौकरी तलाशने को मजबूर कर दिया और फिर बहन की शादी करना छोटे भाइयों को अच्छी तालीम उपलब्ध कराना मेरा पहला और प्रमुख उद्देश्य था। स्नातक पूरा करते ही मैं नौकरी के चक्कर में भटकने लगा। बड़ी नौकरी के लिए शिक्षा के साथ-साथ बड़ी सिफ़ारिश की ज़रूरत थी पर हर ओर से निराशा ही मिलती। पेट की भूख मोहब्बत पर हावी होने लगी थी और मैंने पूर्वा से ना चाहकर भी किनारा कर लिया। उन दिनों मैंने पूर्वा की उपेक्षा करना आरंभ कर दिया था। मेरे जन्मदिन पर वो प्रेम से उपहार लेकर आई थी पर मैंने घर न होने का बहाना बताकर उसे वापस लौटा दिया था। मैं चाहकर भी पूर्वा को कभी न भुला सका।
पूर्वा न मिली तो विवाह भी न किया घर को ही पालता रहा। पहले माता जी गयीं, बहन की शादी जैसे-तैसे कुछ माँगकर और घर बेचकर कर दी थी। छोटी मोटी नौकरी मिली पर कुछ रास न आयी और कुछ लंबी न चली। अनियमित आमदनी और अकेलापन ने मुझे पुनः लेखन में उतार दिया यहाँ कमाई ज़्यादा न थी पर लेखन के सहारे ख़ुद की वेदना सीलता रहा काग़ज़ों पर रेखाएँ खींच-खींचकर भाव सहेजता था।
यूँ लगता था बस यही जीवन है। दिवाकर की पुरानी मित्रता यहाँ ले आई तभी बुढ़ापा पुरानी यादों में जी रहा था पर पूर्वा को यहाँ इस तरह यकायक देखकर लगता है ज़िन्दगी का अब कोई ठौर-ठिकाना नहीं। पूर्वा को ऐसी दारुण स्थिति में देखकर आँखें नम हो जाती हैं। कब सुबह होती है और कब दिन ख़त्म होकर रात में गुम हो जाता है। मुझे पूर्वा से मिलना चाहिए या मुझे यहाँ से अब लौट जाना चाहिए। दीवार पर लगी आकृति पर रोशनी पड़ने से चमक रही है। पंखे की हवा से पर्दों पर सलवटे गहरा रही हैं पर हवा उन्हें चतुराई से एक ओर ठेल देती हैं। तब भी इतनी बार हवा के तीव्र झोंके खाकर भी पुनः अपनी जगह स्तब्ध है।
सुबह के नाश्ते के पश्चात् मैं बालकनी पर खड़ा अख़बार पढ़ते हुए युकेलिप्टस के लंबे घने वृक्ष को देख रहा था। मेरे कंधे को पीछे से किसी ने छुआ मैं अनजानी सिहरन को महसूस करते हुए सकपका गया पीछे पलटकर देखा, “अरे मियाँ! दिवाकर आज ऊपर कैसे? सब ठीक है ना! कितनी मर्तबा तुम्हें बुलाता हूँ पर तुम हो कि दाढ़ी ही चमकाते रहते हो।”
दिवाकर मुस्कुराते हुए मुझसे ठिठोली करने लगा और बोला, “नहीं भाई! मुझे क्या अब इस उम्र में हीरो बनना है जो दाढ़ी चमकाऊँगा? अच्छा एक बात बताओ तो?” मेरी आँखों में गहराई से झाँकते हुए पूछा।
“हाँ हाँ बोलो दिवाकर।”
“तुम चुप-चुप क्यों रहते हो?” दिवाकर ने गहराई से मेरी आँखों में उतरकर पूछा, “क्या बात है? मुझे भी न बताओगे?”
मैं चुप बैठा डायरी के खुले पन्ने को देखता रहा।
दिवाकर ने ज़ोर देकर फिर पूछा, “अब कह भी डालो क्यों इतना भयंकर तूफ़ान हृदय में थामे बैठे हो?”
“वो कौन है?” दिवाकर ने पूछा।
“कौन?” हतप्रभ होकर मनु बोला।
“वो जो तीन नम्बर कमरे में आयी है?’
“कहीं वही तो नहीं?”
“पूर्वा! तुम्हारी ज़िन्दगी!”
“नहीं! तुम ग़लत कह रहे हो,” मनु ने गर्दन हिलाई।
“बिल्कुल नहीं! मैं नहीं जानता।”
दिवाकर सब कुछ दोबारा दोहराता है।
“क्या वो औरत जो उस कमरे में है वो पूर्वा है?”
पूर्वा का नाम सुनते ही चौंक गया!
यहाँ तक कि वो सबकुछ अनदेखा करना चाहता था। दिवाकर को देखा पर वो जैसे सब जानना चाहता हो मुझे घूरते हुए फिर पूछ लिया, “यही पूर्वा है है ना?”
“तुम मान जाओ ना दिवाकर!”
दिवाकर ज़िद पर अड़ा रहा।
मनु दो पल उसे खुली आँखों से देखता रहा और फिर उसके क़रीब जाकर उसके कंधे पर सिर रखकर सिसकने लगा!
रोती आँखों और टूटते स्वरों से मेरा गला रुँध गया पर फिर भी तमाम कोशिशों के बाद मेरा उत्तर निकला, “हाँ यही पूर्वा है!”
दिवाकर ने मेरे सिर पर हाथ फेरते हुए कहा, “कुछ बात नहीं, मैं जान गया था और मुझे यक़ीन भी हो गया था। जिस दिन से वो यहाँ आई है तुम्हारी चाल-ढाल और मनःस्थिति बदल चुकी है। मैं जानता हूँ तुम्हें जवानी से और कितनी ही मर्तबा तुमने पूर्वा के बारे में मुझे बताया था। सच बताऊँ तुम्हारी डायरी में रखी उसकी फोटो को मैंने देख लिया था पर सोचा तुम्हारे मुँह से ही सब सुन लूँ। अब पता चला तुम मुझे केवल दोस्त कहते हो पर मानते नहीं हो!”
दिवाकर की इस बात को सुनते ही मेरी तेज़ सिसकी निकल गयी और आँखें आँसुओं से भर गयीं।
“अरे नहीं दिवाकर! ऐसा मत बोलो भाई तुम ही तो हो जो मेरे सबसे ज़्यादा क़रीब रहे हो,” आँखें पोंछते हुए मैंने एक वाक्य में सब कह दिया।
दोनों चुप!
कमरे में सन्नाटा! पंखे की हवा को भी बारीक़ी से सुना जा सके इतनी ख़ामोशी!
“अच्छा मुझे एक मौक़ा देते हो?” दिवाकर ने चुप्पी तोड़कर मेरी ओर देखकर पूछा।
“कैसा मौक़ा?” मैंने हैरानी से पूछा।
“अब तुम चुप करो जो करना है मैं ही कोशिश करता हूँ,” वो उठ खड़ा हुआ।
“पर तुम क्या करने वाले हो?” मैंने उसे रोकते हुए पूछा।
“कुछ भी! तुम शान्ति से बैठो,” कहकर वो चला गया।
“दिवाकर सुनो तो!” वो जाता गया मेरी आवाज़ पर ध्यान न देता आगे बढ़ता रहा। मैं सोचने की कोशिश करता रहा कि ये कैसा मौक़ा चाहता है?
कहीं पूर्वा के पास तो नहीं जा रहा!
मैं अंदेशा लिये बिस्तर से उठा और बालकनी की तरफ़ दौड़ा, नीचे झाँककर देखा स्काई फूलों बाली सूती साड़ी में पूर्वा शान्ति की बग़ल में बैठी थी। ख़ामोश चेहरा बिल्कुल शांत जैसे कोई संत किसी ख़ास बात को बारीक़ी से सुन रहा हो।
दिवाकर को देखते ही शान्ति का पोपला मुँह हँस दिया और बोली, “आओ भैया दिवाकर बैठो, कभी तो बैठ जाया करो! हर वक़्त बस ‘मनु’ के पास ही रहते हो।
“ये दिवाकर भइया है,” शान्ति ने पूर्वा की कलाई को दबाते हुए कहा। पूर्वा की आँखें दिवाकर को देखने लगीं दिवाकर हँस दिया और मुस्कुराकर हाथ जोड़ दिये, “कहिये आप कैसी हैं?”
आप नये-नये हो ना आपको थोड़ा अजीब लगता होगा! है ना शान्ति?” शान्ति ने हामी भरते हुए दिवाकर के स्वर में स्वर मिला दिया।
“मुझे आपसे कुछ बात करनी है। यदि आपके पास समय हो तो?”
“हाँ समय ही समय है,” शान्ति ने जवाब देते हुए कहा।
“अरे मायी तुम्हें नहीं बोला मैं, इन्हें, नये मेहमान जो हम सबकी साथी भी हैं, उनको पूछा था?
“तुम भी ना!” पोपला मुँह फिर मुस्कुरा दिया।
पूर्वा ने दिवाकर को देखते हुए कहा, “हाँ, हाँ कहिये क्या कहना चाहते हैं?”
“नहीं बस ऐसे ही! कुछ ख़ास बात थी।”
पूर्वा हैरानी से दिवाकर को देखती रही और शान्ति को बोली, “अच्छा बहन लौटकर आती हूँ,” उठकर अपने कमरे की ओर बढ़ने लगी दिवाकर भी पीछे-पीछे हो लिया!
“आइये अंदर आइये,” कुर्सी सरकाते हुए पूर्वा ने दिवाकर को कहा, “कहिये क्या कहना है?”
पंखे के स्वीच को ऑन करती हुई पूर्वा भी दूसरी कुर्सी पर बैठ गयी और दिवाकर के उत्सुक चेहरे में प्रश्न तलाशने लगी।
“आप यहाँ कैसे?” दिवाकर ने पूर्वा को एकटक देखते पूछा।
“मतलब?” पूर्वा चौंकी।
“आप मनु से मिले?” दिवाकर के पूछते ही पूर्वा गहराई से देखने लगी।
“आप कौन हो? कैसी बात कर रहे हो? कौन मनु? मैं किसी मनु को नहीं जानती।”
पूर्वा जैसे कुछ भी न जानती हो। कुर्सी से उठकर कमरे से बाहर झाँकने लगी ताकि बातों का तारात्म्य टूट जाए।
दिवाकर ने फिर वही सब दोहरा दिया, “तुम पूर्वा हो ना।”
“मैं शायद कुछ नहीं आपके लिए! और एक अनजान आदमी को इतने सम्मान के साथ कुर्सी देना! धन्यवाद आपका।
“प्लीज़ मुझे ध्यान से सुनो पूर्वा! मनु मेरा मित्र है और तुम . . .”
“तुम क्या? आप क्या जानते हो? और क्या जानना चाहते हो और क्यों? फिर मैं क्यों अपना अतीत आपके सामने उजागर करूँ? आप होते कौन हैं?”
“अरे! अरे! इतने प्रश्न एक साथ!” मुस्कुराते हुए दिवाकर ने पूछा।
“अच्छा सुनो! मुझे अपना भाई मानोगी?”
पूर्वा को कुछ भी समझ नहीं आ रहा था उसने अपना सिर थाम लिया।
“आप बैठिये प्लीज़,” दिवाकर ने कुर्सी की ओर इशारा करते पूर्वा से कहा।
“मेरी बात ध्यान से सुनिये। एक बार सिर्फ़ एक बार।”
“नहीं मुझे कुछ नहीं सुनना! अभी प्लीज़ मुझे अकेला छोड़ दीजिए!” पूर्वा ने दोनों हाथ जोड़ते हुए कहा।
“ठीक है मैं चलता हूँ,” दिवाकर यकायक उठा और चलने को तैयार हो गया। “पर मेरी बात पर ग़ौर कीजिएगा और एक बार तो सुन लेती!”
“अच्छा मैं आपसे फिर कभी बात करूँंगी अभी मेरी तबीयत ठीक नहीं,” पूर्वा के शब्दों में विनम्रता थी जिन्हें सुनते ही दिवाकर अपने कमरे में चला गया।
पूर्वा दिवाकर की बातों को सुनकर स्तब्ध रह गयी थी जैसे कोई गहरा राज़ खुल गया हो। उसने स्वयं को कमरे की चारदीवारी में समेट लिया। रो-रोकर तकिये के कोना भीग गया था। मैं यहाँ क्यों आई मेरी जान क्यों ना निकल गयी यहाँ आने से पहले। ज़रा मेरी नियति तो देखो सबकुछ त्यागकर आना भी हुआ तो इसी अनाथाश्रम में जहाँ मेरी ज़िन्दगी रुकी है। मैं मनु को नहीं भूल सकती उसे कहाँ नहीं ढूँढ़ा था। और जब उस रोज़ जहाँ उन दिनों मनु पढ़ाता था तो मुझे देखते ही भाग खड़ा हुआ था। उसने हमेशा से मुझे ग़लत माना और शादीशुदा भी चूँकि उसे लगता था कि मैंने उसे छोड़कर घर बसा लिया है और मैं मज़े से जी रही हूँ। वो जैसे स्वयं से ही लड़ रही थी। अकेले कमरे में सिसकियों को सँभालते उसने अपना शीश भगवान की मूरत के सामने झुका दिया। भगवान तुम क्या चाहते हो? मैंने अपने जीवन में कभी किसी ओर की कल्पना नहीं की। मुझे ना पैसों का मोह था ना विवाह की चाहत पर मनु ने कभी भी अपने दिल की बात मुझसे नहीं कही। मैंने केवल उसे ही अपना पति परमेश्वर मानकर जीवन जीया है। दिवाकर के बारे में मैं नहीं जानती। मैंने उसे कभी नहीं देखा। आज मनु मेरे सामने है पर मैं चाहकर भी उसे नहीं बोल सकती कि तुम मेरे हो सिर्फ़ मेरे। उस रोज़ वो कुछ कहना चाहता था पर मुझ जैसी निर्मोही ने उसे कुछ न कहने दिया बल्कि उसकी अनदेखी की। कहीं दिवाकर को मनु ने ही तो नहीं भेजा है? उस रोज़ दरवाज़ा बंद रहा।
दिवाकर मनु के दिल को बहुत अच्छे से जानता था। वो उसका बचपन का साथी था जो हर क़दम पर साथ था। यहाँ तक कि वो मनु पूर्वा की दर्द भरी दास्ताँ से भी वाक़िफ़ था। दिवाकर मनु के लिए कुछ भी कर सकता था।
उसे लगा कि वो ही उन्हें फिर से मिला सकता है वो यह भी जानता था कि मनु के दिल में आज भी पूर्वा की वही पुरानी सूरत है। डायरी में रखी पूर्वा की पुरानी तस्वीर मनु के अलावा सबसे पहले दिवाकर ने ही देखी थी। वो मनु के मुँह से मनु-पूर्वा के अतीत को सैकड़ों बार सुन चुका है। उसने पहले भी मनु को दो एक बार पूर्वा से मिलने की बात कही थी पर आज दोनों इस हाल में हैं कि यदि वो दोनों एक हो जाएँ तो उससे बेहतर दिवाकर के लिए शायद कुछ भी नहीं।
चार-पाँच दिन बीत गये मनु ने कितनी ही बार नीचे झाँककर देखा पर दिवाकर के कमरे पर ताला ही लगा दिखा। पूर्वा ने भी शान्ति से पूछा कि दिवाकर भइया कहाँ है पर किसी को कोई ख़बर नहीं थी।
“शान्ति बहन सब ठीक तो है ना?” पूर्वा ने निराशा भरे स्वरों में पूछा।
“अरे वो मस्तमौला है आ जाएगा दो तीन दिन घूम फिरकर!” शान्ति ने शब्दों को खाते हुए बोला।
“मैं भी हैरान था कि मुझे भी नहीं बताया दिवाकर ने कि उसे कहीं जाना है। ज़िन्दगी में कुछ भी मुकम्मल नहीं और अब ये साहब पता नहीं कहाँ है कोई अता-पता नहीं जनाब का।
“ना कोई ख़बर ना फोन ना चिट्ठी ना संदेश।”
रात का सन्नाटा और देर रात तक नींद आँखों से दूर। बिस्तर पर लेटे-लेटे खिड़की की तरफ़ देखा युकेलिप्टस के घने लंबे वृक्ष चुपचाप मुझे ताक रहे थे। रात करवटें बदल-बदल कर ही निकल गयी। कितनी लंबी रात कभी कोई खाँसने लगता तो कभी किसी के दरवाज़े खुलने या बंद होने की आवाज़ आती रहती।
मैं सुबह देर तक सोता रहा क़रीब आठ बजे तक।
दरवाज़ा किसी ने खटखटाया।
“कहीं पूर्वा तो नहीं!
“या फिर दिवाकर।
“इतनी सुबह और कौन?”
कमरे में उजाला था।
“अरे आठ बज गये!” घड़ी की ओर देखते हुए हैरानी से बोलता हुआ, “आता हूँ भाई!” दरवाज़े की तरफ़ बढ़कर आँखें मलते हुए मैंने दरवाज़ा खोला। दिवाकर को सामने देखते ही आँखें फटी रह गयीं, “अरे तुम? दिवाकर तुम कहाँ थे? मैंने चार रोज़ से तुम्हें देखा नहीं! कहाँ चले गये थे?”
दरवाज़े के बीचों-बीच एक पल एक-दूसरे को देखते रहे।
“अब अंदर भी आने दोगे या सारे प्रश्नों का जवाब यहीं खड़े-खड़े देना होगा,” दिवाकर ने मुस्कुराते हुए कहा।
कुर्सी पर बैठते ही दिवाकर ने कहा, “घर गया था।”
“क्या कहा? घर? मैंने उत्सुकता से पूछा, “कौन से घर?”
“अरे भाई अपने घर जहाँ कभी रहता था! तुम आये तो थे उस रोज़।”
“हाँ याद है पर वहाँ किसलिए?”
“तुम्हारे लिए!”
“मेरे लिए?” हैरानी सी प्रतीत हुई!
वो फिर मुस्कुराने लगा!
“हाँ तुम्हारे लिए!”
“मेरे लिए!”
“हाँ तुम्हारे लिए!”
“चलो अंदर आओ,” दिवाकर मुस्कुराते अंदर आ गया। बिस्तर पर बैठते ही मेरे चेहरे पर आई मायूसी को ध्यान से देखा और मेरी आँखों में झाँककर कुछ सोचने लगा।
कुछ देर चुप रहकर यकायक दिवाकर ने सवाल पूछा, “तुम पूर्वा संग घर बसाओगे?”
मैं दिवाकर के मुँह से निकलते शब्दों को सुनते ही सन्न रह गया। मानो शांत नदी में किसी ने ढेला फेंक दिया हो जिससे नदी में जल की धारा दूर तक गोल होती जा रही हो।
“क्या बात करते हो?” सहसा मेरे मुँह से निकला।
“मनु मैं तुम्हें रोता नहीं देख सकता!” दिवाकर ने गंभीर भाव में बोलते हुए अपने हाथ मेरे कंधे पर टिका दिये।
पल भर बैठा रहने के बाद वो मेरी डायरी जो बिस्तर पर रखी थी उठाकर उसके पन्ने उलटने-पलटने लगा और फिर एक पन्ने पर बने सर्किल पर अंगुली टिकाते हुए बोला, “मुझे सब पता है तुम्हारे दिल में आज भी पूर्वा की वो जगह है जो सदियों पहले थी!”
“नहीं ऐसा कुछ नहीं . . .” मैंने बात को टालते हुए कहा।
“मनु मुझे ना बनाओ। क्या मैं तुम्हें आज से जानता हूँ?”
“तो! जानते रहो।”
“अब मेरी बात ध्यान से सुनो!”
“मुझे कुछ नहीं सुनना! चलो आराम से बैठो और जूते निकाल लो” चाय पीयोगे?”
दिवाकर मेरी आँखों में कुछ तलाश रहा था।
“नहीं चाय-वाय कुछ नहीं। सुनो!
“अरे सुनो भी!” अपनी बात पर ज़ोर देते हुए आग्रह करने लगा।
“मैं पूर्वा के घर गया था!”
“क्या?”
पूरा कमरा शांत! जैसे सब कुछ स्थिर हो गया हो!
मैं, दिवाकर, कुर्सी, डायरी और कमरे की दीवारें।
“क्या बोल रहे हो?” एकटक देखते रहने के पश्चात् आश्चर्य भाव से मैंने पूछा। “ये तुम क्या कह रहे हो?”
“हाँ, हाँ मैं पूर्वा के घर गया था,” अपनी बात को पुख़्ता करते हुए दिवाकर ने दोहराया।
“तुम भी ना?” पूरी आँखें खोलकर दिवाकर को देखते हुए मैंने कहा।
“मुझे बीस साल से अधिक हो गये पूर्वा से दूर हुए! मैंने और शायद पूर्वा ने भी कितना ही भूलने की कोशिशें कीं पर भुला नहीं सके। कम से कम मैं तो नहीं,” शब्दों पर ज़ोर डालते हुए कहा।
दिवाकर ने जैसे मेरी गहरी बातों को ज़्यादा तरज़ीह न दी हो। बिल्कुल सहज भाव से मुझे बोला, “कोई नहीं अब सब ठीक हो जाएगा।”
“क्या ठीक हो जाएगा? तुमने सारी बात ही ख़राब कर दी। तुम्हें क्या ज़रूरत थी पूर्वा के घर जाने की और तुमसे कहा किसने था? कम से कम एक मर्तबा तो पूछ लेते तुम!” मैंने लगभग ग़ुस्से से उसको देखते हुए कहा।
“अब तुम ये बताओ तुम तैयार हो क्या?” दिवाकर ने मेरी आँखों में झाँकते हुए पूछा।
“नहीं बिल्कुल नहीं और फिर पूर्वा को पता है क्या?
“जब उसे तुम्हारी इस हरकत का पता चलेगा तो वो तो मर ही जाएगी। तुमने बहुत ग़लत काज किया है सच में दिवाकर।”
“कुछ ग़लत नहीं, मैं फिर पूछ रहा हूँ तुम पूर्वा से विवाह करोगे?” दिवाकर के शब्दों में जिरह के साथ-साथ आग्रह भी था जैसे वो अपनी बात पर पूर्ण आश्वस्त हो।
“क्या मुझे मेरी खोई हुई ज़िन्दगी मिल सकती है दिवाकर?” मेरी आँखों में चमक आ चुकी थी पर फिर भी संदेह था पूर्वा पर! और शायद स्वयं पर भी।
“हाँ, हाँ क्यों नहीं?” दिवाकर ने अभ्यस्त कलाकार की भाँति पलभर में हाँ कह दिया।
वो मेरी आँखों में एक ऐसे सपने को पूरा होते देख रहा था तभी मेरी खिली आँखों की चमक उसके सलवट भरे कपोलों पर पड़ रही थी। उसने मेरी हथेलियों को प्रेम से सँभालते हुए उन्हें दबा दिया और आश्वस्त किया कि मैं आज ही पूर्वा से तुम्हारे लिए बात करूँगा।
सारा कमरा मानो चहक रहा हो वास्तव में पूर्व की प्रिय वस्तु के मिलने की चाह से ही मन खिल जाता है। सारे अधूरे सपने एक ही पल में जैसे पूर्ण होते नज़र आने लगे हों। ख़ुशी से नम होती हुई मेरी आँखों को पोंछते हुए दिवाकर ने मुझे गले लगा लिया। मैं क्षणभर उसके सूखे बदन से चिमटा रहा मानो कहीं का राजा आज निर्धन फ़क़ीर की हर इच्छा की पूर्ति के लिए ही आया हो। कुछ समय बाद वो मेरे मुस्कुराते और उम्मीद भरे चेहरे को देखता और मुझे आश्वस्त करता हुआ अपने कमरे की ओर लौट गया।
कमरे में मैं और वो सभी पुरानी स्मृतियाँ जिनके संग मैं अब तक जी रहा था मानों मेरी आँखों के सम्मुख लौट आई हों। मेज़ पर सामने रखी डायरी के हर पन्ने में मेरा अतीत था जिसकी स्निग्ध ख़ुश्बू हर तरफ़ महसूस हो रही थी। डायरी के कवर में उलझा पूर्वा का ब्लैक एंड व्हाइट मुस्कुराता फोटो मुझे दूर कहीं अतीत में लिए जा रहा था। कितना खिलखिला रही थी उस रोज़ पूर्वा मानो भोर में कोई कुसुम चहक रही हो। उस वक़्त भी पूर्वा मेरी आँखों के सामने थी और आज भी है किन्तु हम दोनों के मध्य आज कितना फ़ासला है यह मेरी कल्पना से कोसों दूर है। कमरे की खिड़कियों से आती ठंडी हवा और हृदय में उठ रही हिलोरों में ख़ासी समानता थी। एक मन को शीतल करती है तो दूसरी तन को।
जाने क्यों आज कमरे की देहरी की ओर बढ़ने की हिम्मत न हो रही थी। रोज़ पूर्वा को चोरी-छिपे देख ही लेता था पर आज सुबह से बार-बार आँखें कमरे के बाहर की होती हलचल को एक नज़र देखने को लालायित थीं।
पोपले मुँह से मुस्कुराती हुई शान्ति पूर्वा के कमरे की तरफ़ दौड़ी।
“अरी पूर्वा! देखो! ये मसखरा आ गया,” वो पल भर हँसती रही और फिर रोती हुई दिवाकर से चिमट गयी।
“कहाँ गये थे तुम! तुम्हें मेरी या किसी की कोई चिंता नहीं?”
वो रोती रही।
“अच्छा मेरी माँ! अब कभी नहीं जाऊँगा।”
इतने में पूर्वा भी आ चुकी थी।
दिवाकर पूर्वा को देखते हुए शान्ति से बोला, “जब मेरी कोई बात ही नहीं सुनता तो फिर मेरा यहाँ रहने का क्या फ़ायदा?” वो मंद मंद मुस्कुरा रहा था।
पूर्वा दिवाकर के भाव को भाँप गयी कि ये शब्द उसे सुनाने भर के लिए हैं।
“अच्छा भैया आज मुझे आपसे बात करनी है। बहुत ज़रूरी बात!”
दिवाकर ऊपर मनु के कमरे की ओर देखते हुए मुस्कुराने लगा।
सुबह के नाश्ते के बाद सब अपने अपने कमरों में लौट गये। दिवाकर आज बहुत आश्वस्त था स्वयं से मनु से और शायद पूर्वा से भी। सफ़ेद कुर्ते पायजामा पहने हुए वो कुर्ते की जेब में हाथ डाले पूर्वा के कमरे में गया। पूर्वा आज चौंकी नहीं बल्कि उसे देखकर निश्चिंत हो गयी।
“तुम आ गये!” दिवाकर को देखते हुए पूछा, “कहो क्या कह रहे थे?”
“मैं?” दिवाकर मुस्कुरा दिया। “मैं कह रहा था कि मनु अभी भी तुम्हें! और फिर तुम्हारे घर के लोगों को भी कोई परेशानी नहीं तो क्या तुम मनु के साथ . . . घर बसा सकती हो,” वो नीचे देखते बोलता रहा।
“ये तुम कैसी बातें कर रहे हो? इस उम्र में ये सब!” पूर्वा साड़ी के पल्लू का घेरा बनाती बोलती रही।
“पूर्वा तुम मान जाओ! और फिर मनु भी यही चाहता है। जवानी में ना सही अब सही। फिर साथी की ज़रूरत इस उम्र में कहीं अधिक होती है और फिर मनचाहा साथी।”
वो दार्शनिक की भाँति बोलता रहा। “मेरा कहा मान भी लो; भाई मानती हो तो इतना!” एक दूसरे का चेहरा देखते रहे।
दिवाकर ने मनु के दिल का हाल बताते हुए पूर्वा को सारी बातें बता दीं।
मनु दिवाकर का इंतज़ार कर रहा था। मनु आज बहुत ख़ुश था उसी तरह जैसे कि ज़िन्दगी ने फिर जीने का एक मौक़ा दिया हो। वो कितनी ही मर्तबा ऊपर से नीचे झाँका पर किसी को न पाकर अंदर लौट जाता।
दिवाकर सीढ़ियों पर क़दम टिकाता शीघ्रता से ऊपर आ गया जैसे कोई चंचल बालक अपने दिल की ख़ुशी ज़ाहिर करने को उतावला होता है। उसने मनु को देखते ही गले से लगा लिया। ये लो मेरे दोस्त पूर्वा तुम्हारी हुई। दिवाकर ने नाचते हुए सब कुछ बताया। मनु पहले तो विस्मय से उसे देखता रहा पर पल भर में ही उसकी आँखें नम होती गयी और चेहरे पर अजीब-सी आभा चमकने लगी।
1 टिप्पणियाँ
-
सुन्दर भावों से ओत प्रोत कहानी! आपको बहुत शुभकामनायें!