तपिश

मनोज शर्मा (अंक: 255, जून द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)


एक दिन जब सूरज नहीं निकला
 
एक दिन जब सूरज नहीं निकला
शहरों में मातम-सा बिखरा
दिन-दुनिया हुई यो हताहत
मानो किसी का प्राण निकला
हर ओर धुँधला-सा सन्नाटा
कोई भी मौसम न जान सका
काले बादल घुमड़कर आये
अंधकार से वे टकराए
आयी बारिश हुआ सवेरा
भीगे बादल गरजे बादल
सूरज छिप गया था उस दिन
सूरज हमें उजाला देता
जीवन में नयी उमंग देता
धरती को वो उजला करता
हर पल जीवन रोशन करता
एक दिन जब सूरज नहीं निकला
नभ पर खग ने आसन बदला
कागा कूका कागा कूका
मानो वो सबसे रूठा
भूखा कागा आया ढाल पर
एक दिन जब सूरज नहीं निकला

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