आत्मसंतुष्टि

01-07-2022

आत्मसंतुष्टि

मनोज शर्मा (अंक: 208, जुलाई प्रथम, 2022 में प्रकाशित)

मेरे एक बहुत दूर के मित्र यानी मित्र के भी मित्र मुझे एक जगह यानी हरिद्वार मिल गये। बिलकुल गंजे गंजही पहने घाट के किनारे हाथ में लोटा और कंधे पर एक भुदानी झोला लटकाए थे। पूछने पर पता चला उनके अस्सी वर्षीय पिताजी चल बसे। वो घाट पर बैठ गये और झूठ-मूठ प्रभु का स्मरण करने लगे क्योंकि ये चोला, माला, कंठी, कमंडल, खड़ाऊँ, जनेऊ आदि अपनाना सबकी प्रवृति नहीं होती। 

उन्होंने गंजही में से कुछ निकाला पर एक पचास का नोट भी गिर गया पर उन्हें पता न चला। अब क्या था, हर पास खड़े आदमी, यहाँ तक कि कुत्ता व कौआ, भी उनकी हरकतों को भाँपने लगे कि कैसे भी ये खिसका नोट अपने हो जाये। कुत्ते कौओं को तो धन-संपति से कोई लगाव नहीं क्योंकि इंसान ही इस मामले में लालची प्रवृति रखता है। जानवरों को कहाँ इतना ज्ञान होता है? मित्र के मित्र थोड़ा ही ढिगे कि तीन-चार आदमी और आये और वहाँ छीना-झपटी होने लगी; नोट फट गया सब इधर-उधर हो लिए। 

इस मित्र के पिता से मैं कभी दस साल पहले मिला था। जब मैं पहले मित्र के संग था तब भी ये मरने वाले थे, पर मृत्यु अपने वश में कहाँ! बेचारे दस साल से खटिया पकड़े थे अब कहीं जाके शरीर विसर्जित हुआ है। 

ज़रूरी काजों को निपटाकर आलू-कचोड़ी, दही-पुलाव आदि डकारकर वो ‘कभी फिर मिलना भाई’ बोलकर निकल लिए। दस बारह साल से अटके प्राणों को यहाँ पौने घंटे में गति मिल गयी। उनके चेहरे पर पिता के जाने के दुःख के साथ-साथ एक आत्मसंतुष्टि दिखाई पड़ी, मानो बरसों से उलझा काज आज पूर्ण हो गया हो। 

मैं काफ़ी देर तक सोचता रहा कि ये कौन महाशय थे? बहुत सोचकर पता चला ये हरवंश थे जो प्रशांत के मित्र के बड़े भाई थे। हाँ, शायद वही थे। 

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