मज़दूर

मनोज शर्मा (अंक: 203, अप्रैल द्वितीय, 2022 में प्रकाशित)

इतवार का दिन था सुबह से ही गर्मी और उमस से बुरा हाल था। पिछले कई हफ़्तों से बने प्रोग्राम अब कैसे पूरे होंगे इसी सोच को लिए आसमान मेंं उजली गर्म धूप की ओर देख रहा था। बालकानी से झाँक कर देखा तो गली मेंं शोरगुल था। अभी सुबह के नौ ही बजे थे कि लाईट भी चली गयी। 

इन दिनों लाईट भी कुछ ज़्यादा ही जा रही है शायद गर्मी के कारण। सामने गली मेंं तहमद पहने एक बूढ़ा खड़ा था उसके सिर और छाती के बाल सफ़ेद गुच्छेदार थे। वो बार-बार हमारी बालकोनी की ओर देख कुछ बुदबुदा रहा था पर उसकी आवाज़ मुझ तक नहीं पहुँच पा रही थी। माथे का पसीना पोंछते हुए मैंने नीचे जाकर देखा तो वो वहाँ नहीं था। सामने भाटिया की दुकान है वहाँ से मालूम हुआ कि वो लाईट ठीक करने वाले मज़दूरों मेंं से एक है। पास ही गली मेंं एक छोटी सी बोझागाड़ी खींचने वाला वो मज़दूर था और प्यास दूर करने के लिए वो पानी माँग रहा था। लिहाज़ा मैं घर की ओर मुड़ा और पानी की बोतल के साथ वापिस नीचे उतरा। तेज धूप में मेरी परछाईं मुझसे कहीं बड़ी हो चुकी थी। दूसरी गली मेंं जाकर देखा तो वो वहाँ नहीं था। 

वापिस आकर देखा तो लाईट आ चुकी थी। मैं सारी बात भूलकर ठंडी हवा के बीच पुनः पैंडिग्स काम की लिस्ट देखने लगा। पर बार-बार उसी बूढ़े का चेहरा आँखों मेंं कौंध रहा था। बालों को खुजलाते हुए मेरी आँखें बार बार सामने खिड़की से बाहर की ओर झाँक रही थी पर बाहर अब कुछ नहीं था तेज धूप के सिवा और मैं पुनः अपनी लिस्ट में खो गया। 

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