एक्ज़िमा
मनोज शर्माउसने दीवार पर लटके कलैंडर को गहराई से देखा। ओह! मार्च फिर आने को है क़रीब ही तो है पर फिर जान पड़ता है अभी ही तो मार्च बीता था? आश्चर्य से देखते हुए उसने सोचा, "पिछले साल की पीड़ा तो अभी तक दूर नहीं हुई कि अब फिर! मायूसी से सोचकर ही सहम जाता हूँ लगता है इस बार तो दम निकल ही जाएगा। फिर दो ढाई महीने ही तो बचे हैं मेरे तो रोंये आज से ही खड़े होने लगे हैं।” कमीज़ के कॉलर में हाथ डालते हुए वो अपनी कमर को सहलाने लगा फिर अपनी कलाइयों पर पुराने फुंसीनुमा निशानों, दाग़ों को देखता रहा! एक पल बाद ही वो निरुत्तर क्षितिज को देखने लगा मानो उस ओर कोई इलाज ही हो। सफ़ेद आकाश में कुछ देर देखते रहने के बाद उसकी नज़रें वापिस कलैंडर पर आने लगीं। पता नहीं ये कैसी एलर्जी है जो हर साल गर्मी की आहट पाते ही उसमें घुस जाती है और फिर अक्टूबर नवंबर तक उसके अंदर रहती है। एक अजीब-सा एक्ज़िमा जो गर्मी की दस्तक से ही बढ़ने लगता है पिछले सात-आठ सालों से जो अब इस क़दर बढ़ चुका है कि बस जान ही निकल जाती है। इस लाइलाज बीमारी का अंत अब उसकी मौत से ही होगा। जैसे ही गर्मी आती है सारा शरीर लाल चकत्तों से भर जाता है। पहले शरीर पर हल्के फफोले फिर गर्मी बढ़ने के साथ ही ये फैलकर और फूलकर पूरे शरीर तक बढ़ते जाते हैं। समय के साथ-साथ लाल बदबू भरा स्वेद और मवाद! उसे स्वयं से ही घिन्न होती है।
उसने बाइस साल एक प्रतिष्ठित पत्रिका का संपादन किया था! वो बहुत अच्छा लिखता था। कितनी कहानियाँ, लेख उसके! कुछ सोचते हुए वो डलहौज़ी का संस्मरण, निगम के साथ बिताए वो ख़ुशनुमा पल, पाठकों के पत्र, टिप्पणियाँ और पत्रिका के आवरण के लिए घंटों की मान मुन्नवर! वो पाठकों का भी चहेता था! उस रोज़ जब बुलंदशहर से ख़त आया था एक पाठक का!
"क्या नाम था?” वह सोचने लगा।
"हाँ याद आया! नलिनी ओबरोय,” वो मचल गया!
वो वास्तव में दिल से लिखता था। वो साहित्यिक भी था! मुझको अपना मानता था। मेरे कहने पर ही अंत तक कुछ न कुछ लिखता रहा! पर इन दिनों वो काफ़ी दुःखी था। करना तो और भी बहुत कुछ चाहता था पर इस बीमारी के चलते कुछ न कर पा रहा था इसी से सब छूटता गया। समय से पहले ही सब छूट गया; यहाँ तक कि उसे परिवार को त्यागना पड़ा। फिर परिवार को रख भी कैसे सकता था? ये फैलने वाला रोग किसको छोड़ेगा। उसकी धर्मपत्नी ममता, बेटा बिट्टू और बिट्टू के बच्चे सबको ही तो त्यागना पड़ा। उसके आँसू ढलकने लगे; उसका पोता आज साथ होता तो उसके संग बोलता और चाँद सितारों के साथ खेलता दादा की कहानियाँ सुनता। वह घर की ओर देखकर हंसते हुए सोचने लगा, वक़्त के साथ-साथ वो चिड़चिड़ा भी होने लगा था। परिस्थितिवश वो सब समझने लगा और शायद सभी से उसने ख़ुद को दूर रखना मुनासिब समझा।
मैं यहाँ पहले से रहता हूँ यानि उसके यहाँ रहने से पूर्व से। वो यहाँ परिवार संग आया था और मैं सामने वाले घर में ही यानि कि उसका पड़ोसी था। सात–आठ साल पहले से हम दोनों अपनी अपनी बालकॉनियों से बतियाते थे। इस रोग के कुछ महीनों बाद ही उसने स्वयं को अपने परिवार से दूर कर लिया था और तब से वो यहाँ अकेला रहता है। वो मुझे अपने मित्र की तरह मानता था पर मैं इस संक्रामक बीमारी के बाद कभी भी उसके घर नहीं गया। मेरी बालकॉनी से उसे व उसके घर के अंदर के हिस्से को आराम से देखा जा सकता है। तीन साल पहले जब मेरी बीबी की मृत्यु हो गयी थी तो उसी ने मुझे ढाढ़स दिया था। हम घंटों बतियाते थे; मैंने उसे परिवार के साथ हँसते जीते देखा था पर कुछ ही समय बाद जब से उसे ये रोग लगा उसे रोज़ मरते देखा। ये एक्ज़िमा जो उसे था– कहीं मुझे न लग जाए इसीसे उसने मुझसे भी दूर से बात करने का फ़ैसला किया। उसके बाद से हम दोनों अपने-अपने घरों में अकेले रहते हैं। अपनी-अपनी बालकॉनी पर घंटों बतियाना ही हम दोनों की मुख्य दिनचर्या थी। उसने घर के बाहर भी एक टोकरी लटकाई हुई है जिसमे रोज़मर्रा की चीज़ें आसपास के विक्रेता रख जाते हैं। वो कभी हट्टा कट्टा भी होगा . . . मेरी कल्पना से परे है। उसे इतना सूखा निर्जीव सा ही देख रहा हूँ कई वर्षों से। तेज़ गर्मियों में अक़्सर उसे कराहते-बिलखते देखा है चूँकि उन दिनों वो बालकॉनी में नहीं आता। मैं ऐसे में अक़्सर सूरज ढलने के बाद उससे उसकी यातना भरी ज़िन्दगी को सुनता था। उसे परिवार और लोगों के बिना अकेले रहने की आदत पड़ चुकी थी। पहले-पहल जब उसे एलर्जी होती थी वो ग़ुस्से में चीखता था और जब उसकी पीड़ा असह्य हो जाती थी तो वो रोने लगता था। कितने ही सालों से मैंने कभी किसी को उसके पास फटकते नहीं देखा था। मेरा उसका संबंध भी केवल फोन तक ही सीमित था वो भी हाल-चाल तक बस। इन महीनों कुछ ठीक भी है उतनी पीड़ा नहीं जितनी उन महीनों में होती है पर रोग फैलने के डर से कोई पास नहीं आता। ये कुचक्र कितने ही सालों से साथ है और कब तक रहेगा किसी को भी कुछ मालूम नहीं।
रोग के आरंभ में डाक्टर लोगों को भी कितना दिखाया पर शायद उनके पास भी उसके मर्ज़ की दवा नहीं थी। कितनी गंदी बदबू जैसे सारा शरीर ही सड़ जाता हो और तीखी-सी एलर्जी व बेचैनी। जीवन भर की थोड़ी सी यानि गुज़ारे लायक़ पूँजी अपने पास रखकर सारी परिवार को देकर वो यहाँ अकेला पड़ा है। सब भय में जी रहे थे कितने डाक्टरों को दिखाने पर भी कुछ इलाज नहीं दिखता। शायद इसीलिए सब ने उसको इस चार दीवारी में अकेला रहने को मजबूर कर दिया था। और फिर भय के साये में भी कब तक जीया जा सकता है? अब उसकी नियति ही ऐसी है तो फिर किसको दोष दिया जाए।
उस रोज़ घंटों उसने अपनी व्यथा सुनाई फिर बालकॉनी में फ़र्श पर रखे पायदान पर पाँव रगड़ कर वो अंदर कमरे में आ गया। सारे घर में अजीब-सी बू थी सीलन की सी। अब तो उसे स्वयं से ही वितृष्णा हो चली है। जीने की इच्छा और उमंग धीरे-धीरे समाप्त होती जा रही है। अब कुछ नहीं बचेगा इस बार तो सब ख़त्म ही हो जाएगा और फिर व्याधि बढ़ाने से फ़ायदा भी क्या है। लोग पलभर भी उसके जाने का अफ़सोस न करेंगे बल्कि कहेंगे चलो अभागे को मुक्ति तो मिली।
अभी जनवरी है गहरी ठंड जैसी अक़्सर इन दिनों होती ही है। कुहरे से भरी सुबह काफ़ी सर्द है हर कोई कंबल में लिपटा बैठा है। कोहरे में काँपती परछाइयाँ पल भर इधर-उधर ताकती हैं पर पल भर में ही बंद कमरों में लुप्त हो जाती हैं। रोज़ यही मंज़र सुबह या शाम कितनी ही लंबी हो बालकॉनी पर बीत जाती है कभी हल्की धूप निकलते ही हलक़ रुँध जाता है कि वो अब नहीं बचेगा। मार्च और मार्च के बाद की तीखी धूप का बढ़ता भय उसके अंदर घर कर गया है।
उसने दीवार पर लटके कलैंडर पर मार्च की कुछ तिथियों पर गहरे लाल चिह्न रेखांकित कर रखे हैं जिन्हें वो हर रोज़ देखता है भय से वितृष्णा भरी आँखों से। यूँ तो तारीख़ें बीत रही हैं कलैंडर पर बने सर्किल रोज़ गहरा जाते हैं पर एक मार्च पर रेखांकित लाल चिह्न अधिक मुखर दिखता है जैसे उसकी मृत्यु की तिथि निर्धारित कर दी गयी हो।
शहर से दूर इस वीरान फ़्लैट में अकेली ज़िन्दा लाश रोज़ जीती है और रोज़ मरती है हर पल हर क्षण। वो हर पल कराहता है क्षण भर अपने विकृत शरीर को देखता है फिर अंगुलियों से अपनी आँखे पोंछ देता है। फ़्लैट की दीवारों का पलस्तर जगह-जगह से उतरा हुआ है। घर की चारदीवारी में एक रोशनदान है जिसमें से प्रकाश आता है। इसके अलावा पूर्व में बनी खिड़की के सींखचों से रोशनी का आभास होता है। दक्षिण में छोटी-सी बालकॉनी है जहाँ से बाहर का चलता-फिरता जीवन देखा जाता है। दो तीन टूटे-फूटे बर्तन कुछ मटमैले काग़ज़ों वाली पुरानी किताबे, पत्र-पत्रिकाएँ और एक नोटबुक सामने पुराने मेज़ पर रखी है जिन्हें वो रोज़ सहेजता है पर कुछ समय बाद ही वो बिखरी जाती हैं। बिल्कुल उसकी उम्मीदों की तरह। वो रोज़ डायरी लिखता है अपने पुराने दिनों की मीठी यादें, यात्राएँ परिवार दोस्तों के संग बिताए सुखद क्षण और व्याधि के पश्चात् से आरंभ हुई दुःख भरी ज़िन्दगी के दिनों को। एक अजीब-सी भयग्रस्त ऊब स्वयं से या जिसने उसे एकांत और शांत कर दिया। जो शरीर कभी खिला था आज मुरझा चुका है। आरंभ में जब वो यहाँ आया था उन दिनों बाग़बानी करता था नये-नये फूलों के पौधे यूक्लिपटस आम पपीते के वृक्ष उगाए थे पर अब सब सूख चुके हैं उसकी शरीर की भाँति। रोज़ दिन निकलता पर उसकी निगाहें हमेशा आकाश को ताकती रहतीं कि कहीं किसी रोज़ धूप न बढ़ जाए। एक-एक पल बाहर बालकॉनी में निकलता और कहीं किसी रोज़ आकाश में काले घने बादल घुमड़ आते तो चेहरा मुस्कुरा देता जैसे उनसे उसे ख़ासी उम्मीदें हो।
फरवरी बीतने लगी शरीर पर एक्ज़िमा उभरने लगा और घाव बढ़ने लगे। समय के आगे बढ़ते ही उम्मीदें भी धाराशायी होने लगीं। चूँकि इन दिनों रोज़ धूप बढ़ने लगी थी, उसने धूप के डर से बाहर बालकॉनी में आना लगभग बंद ही कर दिया। उसके शरीर पर फोड़े उभरने लगे पहले की तरह लाल पर अभी ज़्यादा गहरे ना होने से वो बाहर से कराहता नहीं था पर अंदर से उसने ज़रूर रोना आरंभ कर दिया था। अब वो ममता से भी फोन पर बात करने से खीझता था। ममता वहाँ आने की ज़िद करने लगी पर उसकी एक न चली। यूक्लिपटस को हवा में लहराते देख वो बहुत ख़ुश हो जाता था पर धूप की एक छोटी सी किरण को कमरे में देखते ही भय से काँपने लगता था। रात भर खाँस-खाँसकर उसका गला भर जाता था। सारी रात छत को देखते-देखते निकल जाती थी। किताबों को पढ़ना और रोज़ की डायरी लिखना भी अब उसने पहले से कम कर दिया था। भय और कमज़ोरी से उसका मुरझाया चेहरा इतना अधिक विकृत और कुरूप हो चुका था कि उसे पहचानना भी कठिन था। एक रोज़ जब बालकॉनी का दरवाज़ा खुला था तो मैंने उसे आवाज़ दी पर वो सुनता रहा। मैंने उसको पुनः आवाज दी उसने जवाब न दिया पर मेरी ओर फटी आँखों से देखता रहा। उसके खिचड़ी बाल उलझे थे और सिलवटों भरा चेहरा कितना भयावह और डरावना हो चुका था। उसके ज़ख़्मों से भरे बदन पर मात्र एक लुंगी थी जो भी बदबूदार रक्त से भीगी थी। वो मुझे बेचारगी भरी नज़रों से इस तरह ताक रहा था जैसे मुझे अंतिम मर्तबा देख रहा हो और बहुत कुछ कहना चाहता हो पर सारी हिम्मत अब टूट चुकी हो।
मैं उसको देखकर मुस्कुराया कि शायद वो हिम्मत करे और जवाब दे; फिर बालकॉनी पर खड़े-खड़े उसकी ओर हाथ बढ़ाया, उसने पलंग पर लेटे हुए करवट बदल ली। मैं आवाज़ लगाता रहा फोन भी मिलाया पर उसकी कोई प्रतिक्रिया न थी। शाम तक और फिर देर रात तक जाने मैंने कितनी बार उसे उसी रक्तरंजित मुद्रा में देखा था।
आज एक मार्च है कलैंडर पर लाल गहराये सर्किल को भीगी आँखों से वो ऐसे देख रहा था जैसे उसे आज अंतिम मर्तबा देख रहा हो। सुबह दोपहर की ओर बढ़ने लगी। हर ओर धूप खिली थी पर उसका हृदय गहरी वितृष्णा से भरता जा रहा था। उसे महसूस हुआ कि शरीर पर उभरे लाल चकत्ते और एक्ज़िमा गहरा होता जा रहा है। हथेली के आसपास घावों का रंग बदल रहा है; बिल्कुल कुष्ठ रोग-सा शायद हाँ, हाँ वैसा ही! वो मेज़ पर रखी डायरी को उठाकर कुछ लिखने लगता है पर दो एक पंक्ति लिखते ही उसे पुनः मेज़ पर रख देता है और बाहर आकाश को घूरने लगता है। अस्थिरता आज हर तरफ़ है, अंदर भी बाहर भी पर अंदर की अस्थिरता जाने क्यों उसे मृत्यु से पहले मार रही है। वो भयभीत स्वर में अंदर से चीख़ रहा है कि आज उसकी मृत्यु निश्चित है पर साँसों पर उसका अधिकार कहाँ। वो पलंग पर लेटकर रोने लगा और रोते-रोते उसकी आँखे बंद होने लगीं। उसने महसूस किया कि वो हर पल मृत्यु को अपने सामने देख रहा है और आँख खोलते ही मृत्यु का दूत उसे दूसरे लोक ले जाएगा। वो आँखे मूँदे कराहने लगा पर रुँधे हुए गले में अटकी हुई चीख़ अधरों के किसी कोनों में रुकी रही। एक ओर उसकी देह से निकलता लाल बदबूदार रक्त तो दूसरी ओर मृत्यु का प्राक्कथन।
कितने ही रोज़ बीत गये मैंने उसे ना देखा ना सुना। बालकॉनी में गुप्प सन्नाटा न कोई चीख़ न कराहट। मैंने उसे आवाज़ देनी चाही। कितनी ही मर्तबा फोन की रिंग भी बजती रही पर उस ओर कोई हलचल न होने पर मैंने उसके यहाँ जाने का निर्णय किया। पता नहीं क्यों मुझे उसकी मौत की सुगबुगाहट सी होने लगी और फिर आज 1 मार्च ही तो है। उसके भय ही ने तो कहीं उसे नहीं मार दिया। मेरे पैर काँपने लगे मुझे वहाँ ज़रूर जाना चाहिए। एक मित्र की ख़ातिर कभी वो अभी भी ज़िन्दा हो। नहीं, नहीं मुझे जाना चाहिए उसे देखने। एक बार तो अवश्य। पहले मुझे ममता भाभी को इत्तिला देनी चाहिए पर क्या वो आएगी? मैं फोन तो कर ही देता हूँ उनकी मर्ज़ी फिर।
मैं हाथों में दस्ताने पहने मुँह पर मास्क लगाये उसके घर की तरफ़ चल पड़ा। घर के बाहर दो दूध की थैलियाँ रबड़बंद अख़बार टोकरी में पड़े थे। उन्हें देखते हुए मैं ऊपर उसके कमरे की तरफ़ बढ़ गया। कमरे के अंदर घुसते ही मैंने उसे पलंग पर मृत पाया। एक दुबला पतला-सा सिकुड़ा शव सामने था जिसमें से असहनीय बदबू निकल रही थी। उसके मृत चेहरे पर भय की लकीरें थीं। बंद आँखें और उसकी लुढ़की गर्दन उस दीवार की ओर थी जिस पर कलैंडर लटका था और जिसपर मार्च की तारीख़ों के सर्किल बने थे। उसे देखते ही मेरी आँखे नम हो गयी मुझसे पलभर न रुका गया।
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