एक मुलाक़ात राजेन्द्र यादव के संग

01-09-2023

एक मुलाक़ात राजेन्द्र यादव के संग

मनोज शर्मा (अंक: 236, सितम्बर प्रथम, 2023 में प्रकाशित)

 

फरवरी 2 1998 में मैं अक्षर प्रकाशन दरिया गंज कार्यालय में गया था। सुप्रसिद्ध साहित्यकार अजित कुमार जी क्योंकि मेरे गुरु व शिक्षक रहे हैं और क्योंकि मुझे उन दिनों नौकरी की सख़्त ज़रूरत थी सो उन्होंने अपने प्रिय मित्र राजेन्द्र यादव जी के पास एक पत्र देकर भेजा था।

‘हँस’ को उन दिनों मैं अक्षर प्रकाशन के नाम से ही जानता था और दर्जनों किताबें इस प्रकाशन की मैंने पढ़ी भी थीं; सो सुनकर हर्ष हुआ कि मुझे अक्षर प्रकाशन जाना है और सुप्रसिद्ध रचनाकार राजेन्द्र यादव जी से मिलना है।

उस रोज़ यानी 2 फरवरी 1998 क़रीब एक बजे मैं अक्षर प्रकाशन के कार्यालय गया था। उस रोज़ तेज़ धूप थी और आसमां साफ़ था। मैं पहले दरिया गंज पहुँचा, गोलचा सिनेमा के सामने से अंसारी रोड की ओर बढ़ गया। मैंने एक दो लोगों से गंतव्य स्थान पूछा और अक्षर प्रकाशन के कार्यालय पहुँच गया। कार्यालय में सभी लोग अपने अपने कामों में व्यस्त थे। मैंने अपना संक्षिप्त परिचय देते हुए सामने बैठे महानुभाव को अपना प्रयोजन बताया जिसपर उन्होंने मुझे आश्वस्त किया व सैटी पर बैठने के लिए कहा। थोड़े इंतज़ार के उपरांत मुझे अंदर बुलाया गया। मेरे सामने एक दिव्य मूर्ति थी जो एक बड़े मेज़ के पीछे लंबी कुर्सी पर बैठे थे। मैं गले को सहज करता अंदर पहुँचा, काले बड़े चश्मे के पीछे की आँखें मुझे देख रहीं थीं। चश्मे को आँख पर से हटाते हुए उन्होंने मुझे मेज़ के इस तरफ़ रखी कुर्सी पर बैठने के लिए इशारा दिया। मैं अजीब-सा डर लिए कुर्सी पर बैठ गया और उन्हें देखता रहा। उन्होंने मुस्कुराते हुए चश्मा साफ़ किया और मुझे आराम से बैठने के लिए कहा। जाने क्यों मैं इतने बड़े लेखक को सामने भयभीत था। मेरी आवाज़ उस समय काँप रही थी और गला रुँधा था। हालाँकि उनकी कुछ रचनाएँ मैंने पढ़ रखी थीं; ‘टूटना’, ‘सारा आकाश’ आदि पर उस समय मेरे रोंये खड़े थे। सफ़ेद दुधिया रोशनी में उनके सामने रखा तिरंगा झंडा व दो-तीन शील्ड चमक रहीं थीं। पत्रिका में झाँकते उन्होंने सामने रखी घंटी बजाई और मेरा परिचय जानना चाहा पर इससे पूर्व उन्होंने गुरुवर अजित कुमार जी के बारे में पूछा, “और बताए! अजित जी का क्या हाल है? वहीं वैशाली में ही हैं ना वो आजकल?”

मैंने लंबी खराश लेते हुए जवाब दिया, “जी!”

मेरे सामने एक ट्रे थी जिसमें दो गिलास थे, स्लेटी ड्रेस में एक लंबे क़द के मूँछ वाले आदमी ने भरा गिलास मेरे सामने रखा, दूसरा गिलास राजेन्द्र जी के सामने था। उन्होंने पहले से रखा ढका गिलास वापस ट्रे में उठवा दिया, फिर वो आदमी लौट गया पर तभी उन्होंने मुझसे चाय पीने के लिए पूछते हुए, उसे दो चाय का ऑर्डर दिया।

मेज़ पर रखे फोन की घंटी बजी राजेन्द्र जी फोन में व्यस्त हो गये। वो बात करते-करते बीच-बीच में मुस्कुराते हुए पत्रिका के पृष्ठ उलटते रहे। उन्होंने एक पेज पर कुछ लिखा, एक-दो सर्किल भी बनाए और हँसते हुए ओके हूँ ओके बोलकर फोन को रख दिया। चाय हमारे सामने थी मेरे पास अजित कुमार जी की एक किताब ‘घोंघे’ थी, जो उनकी कविताओं का संकलन था और जिसे उन्होंने मुझे उपहार स्वरूप दिया था। उस किताब के मध्य से उनका लिखा एक पत्र निकाला और उनको थमा दिया जो उन्होंने मुझे राजेन्द्र यादव जी को देने के लिए दिया था। चाय का घूँट भरते हुए राजेन्द्र यादव जी ने पत्र खोला और मेरी तरफ़ देखा। चाय उठाने का निर्देश देते हुए उन्होंने किसी को आवाज़ दी। साथ ही के कैबिन में बैठी एक युवती की आकृति जो अब तक छाया रूप में दिख रही थी, कुछ काग़ज़ों को लिए राजेन्द्र जी के सम्मुख आई। पढ़ते हुए काग़ज़ को युवती को देते हुए उन्होंने कहा, जो भी मेरी सहायता के लिए किया जा सकता है वो सेवाएँ मुझे दी जाएँ। मुझे हिन्दी टाइपिंग आती थी। उन्होंने कहा, “आप चाहें तो मेरे यहाँ (अक्षर प्रकाशन) में टाइपिंग कार्य कर सकते हैं।” मैं उनके हिलते होंठों को देख रहा था, “पहले कहीं काम किया है आपने? कहीं भी!” मैंने ना-ना बोलते हुए गर्दन दायें-बायें हिला दी।

एक बड़े लेखक को इतना सहज देखकर मेरी आँखें फटीं थीं। क़रीब ढाई बज चुके थे मैंने कुछ काग़ज़ उन्हें दिखाए, जिसमें किरोड़ीमल काॅलेज की मेरी स्नातक व स्नात्तकोतर डिग्री देखकर वो बहुत प्रभावित हुए।

“आप कुछ लिखते भी हैं?’ मेरा अनुवाद डिप्लोमा देखते हुए उन्होंने पूछा।

मैंने ज़रा मुस्कुराते हुए कहा, “नहीं, अभी तो पढ़ता ही हूँ सर! आपको भी पढ़ा है। प्रेमचन्द के अलावा नयी कहानी मुझे ख़ूब भाती है। मोहन राकेश मेरे प्रिय लेखक रहे हैं।”

“अच्छा! वाह! क्या क्या पढ़ा है उनका?”

उन्होंने मेरी आँखों में गहराई से देखकर जानना चाहा।

“हहहू ‘एक और ज़िन्दगी’, ‘मलबे का मालिक’, ‘आधे अधूरे’ अऽऽ मिसपाल।”

“ओह गुड! पढ़ने का अच्छा शौक है आपको।”

मेरी डिग्रियाँ देखकर उन्होंने फिर कहा, “वैरी गुड!’ और रूमाल से फिर चश्मा साफ़ करने लगे। बग़ल वाले कैबिन से युवती को फिर बुलाया गया। मुझे अब कन्फ़र्म-सा लगा कि मेरा काम अब हो जाएगा। पाँच-दस मिनट बाद मुझे एक अनुभव पत्र दिया गया जिसमें यह लिखा था कि मैं वहाँ पिछले कुछ महीने से हिन्दी टाइपिंग का काम करता हूँ और असल में मैं इसी कार्य के लिए राजेन्द्र यादव जी से यहाँ मिलने आया था। पत्र पाते ही मेरा हृदय बल्लियों उछल रहा था मैं मन ही मन बहुत प्रसन्न था।

टाइप किया हुआ अनुभव पत्र राजेन्द्र जी के सामने ले जाया गया। उन्होंने एक बार नज़र देकर उसे पढ़ा और नीचे अपने दस्तख़्त कर दिये। मैंने ख़ुशी से पत्र लेते हुए उनके चरण स्पर्श किये। उन्होंने मुझे फिर आश्वस्त किया कि चाहो तो नौकरी के लिए यहाँ आ जाना। मैंने पत्र थामते हुए उनको धन्यवाद दिया।

एक दिव्य मूर्ति मुस्कुराते हुए मुझे निहारती रही।

ये मुलाक़ात मेरे जीवन के यादगार क्षण थे मैंने गुरुवर अजित कुमार जी को वहाँ का सारा प्रकरण विस्तार से बताया जिसे सुनकर वो न केवल रोमांचित हुए वरन्‌ वो फूले नहीं समाए। यही प्रकरण मैंने मन्नू भंडारी जी को भी हंस पत्रिका के एक समारोह में भी बताया था।

जीवन में कुछ लोग हृदय के क़रीब होते हैं जिनके पीछे कोई न कोई कर्म या कारक होता है। ये एक छोटी-सी भेंट मेरे जीवन की सुखद अनुभूति थी। राजेन्द्र यादव जी द्वारा चिह्नित अनुभव पत्र आज भी मेरे संग है जिसे मैं देखकर प्रसन्नता से भर जाता हूँ।

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