वो गुमनाम यात्रा

01-01-2022

वो गुमनाम यात्रा

मनोज शर्मा (अंक: 196, जनवरी प्रथम, 2022 में प्रकाशित)

जीवन की कुछ यात्राएँ हम स्वयं नहीं करते  पर अप्रत्यक्ष या भावनात्मक रूप से हम उस यात्रा में आरम्भ से अंत तक रहते हैं क्योंकि ऐसी यात्राओं में हम किसी ख़ास के सहयात्री होते हैं जो हमें सबसे अधिक प्रिय होता है। 

सुबह जब आँख खुली तो गहरा अँधेरा था। हल्की रौशनी जैसे ही ज़मीन पर गिरी वो कंधे पर बैग टाँगकर तेज़ तेज़ क़दमों से शहर की और चल पड़ी। 

अभी सात बजे थे नर्म धूप की पहली किरण जैसे ही उसके चेहरे पर पड़ी उसका छोटा मेमना-सा चेहरा ख़ुशी से खिल गया। अहाते से बाहर निकलते हुए मेन गेट खोला बाहर अभी भी गहरा सन्नाटा था। हरी घास हवा में लहरा रही थी। काली सड़क पर रेत फैला था। घर के सामने ऑर्डर की गयी कैब रुकी। गाड़ी का दरवाज़ा खुला और रिचा पिछली सीट पर बैठ गयी। गाड़ी हॉर्न देते हुए खिसकने लगी। दुआओं भरी आँखें उसे देखती रहीं और बाहर खड़े लोगों के हाथ देर तक हवा में लहराते रहे। गाड़ी धीमी-धीमी चलती रही पिछली खिड़की से उसका चेहरा पलटकर पीछे की और देखता रहा। हवा में लहराते हाथ हिलते-हिलते हवा में ओझल होते गये। अब गाड़ी तेज़ी से दौड़ पड़ी। 

हलकी ठंड से आँखें मुँदे जा रही थीं। उसने मोबाइल में समय देखा नौ बज चुके थे। रेलवे स्टेशन खचाखच भरा था। प्रयागराज की ओर जाने वाली ट्रेन के समय को दुबारा कन्फ़र्म करते हुए वो प्लेटफ़ॉर्म की तरफ़ तेज़ी से चल पड़ी। कंधे पर लटका बैग बीच-बीच में हिचकोले खाकर पुन: अपनी जगह लौट जाता था। अक़्सर समय से पहले पहुँचकर भी हमें ऐसा प्रतीत होता है कि हम वहाँ काफ़ी लेट पहुँचे हैं। ख़ैर ट्रेन राईट टाइम पर आई वो दाईं बाईं देखते हुए अपनी सीट पर जा बैठी। कुछ लोग जो पहले से यात्रा कर रहे थे वो सोने में इतने मसरूफ़ दिखाई दिए कि उन्हें किसी के आने–जाने की कोई ख़बर ही नहीं रही। ऊँचे स्टायिलिश स्वर में चाय-चाय पुकारते हुए कुछ हॉकर्स बीच में घुस कर सभी चेहरों में अपना ग्राहक ढूँढ़ रहे थे। रिचा ने पानी की बोतल का ढक्कन खोला और पानी का एक घूँट भरते हुए इधर-उधर देखा। हर ओर सब अस्त-व्यस्त नज़र आ रहा था। जैसा अक़्सर ट्रेन की यात्रा में देखा जा सकता है। उसने मास्क को नाक के ऊपर चढ़ाया और सामने लिखे निर्देशों को ग़ौर से पढ़ने लगी उसी तरह जैसे परीक्षा देने से पूर्व सभी दिशा निर्देशों को दोहराया जाता है। ट्रेन थोड़ा खिसककर आगे बढ़ने लगी। कुछ लेट-लतीफ़ अभी भी डिब्बे के पीछे दौड़ रहे थे। कुछ सामने आती बोगी में चढ़ गये तो कुछ मन मसोस कर स्वयं को कोसते हुए अपनी घड़ी को देखने लगे। जिनकी टिकट कन्फ़र्म थी वो सीट पर पसर कर बैठ गये थे और सामने खड़े लोगों से नज़रें बचाकर ऐसे बात कर रहे थे जैसे उन्हें कोई देख ही ना रहा हो। 

रिचा भी अब तक सीट पर उन्मुक्त होकर बैठ चुकी थी। बैग के एक कोने में थर्मसनुमा बोतल अटकी थी। उसने चाय को कप में उड़ेला और इधर-उधर देखते हुए घूँट भरने लगी। चाय पर गर्म धुँए के नटराज दौड़ रहे थे। पल भर में ट्रेन तेज़ गति से दौड़ते हुए लहराने लगी। नीले आकाश में सफ़ेद गँदले बादल दौड़ रहे थे। युकलिप्ट्स की ऊँचाई देखे बनती है; उन्हें बहुत देर तक आँखों से उतरते देख सकते हैं। सोंधी मिट्टी की महक से कुछ चेहरे हरे-भरे खेतों को दूर तक निहारते उन्हें देखते रहे। गीली स्निग्ध हवा का झोंका मिलते ही उसके घने काले केश जो अब तक गर्दन पर बँधे थे यकायक खुल गये और हवा में झूलने लगे। गाड़ी तेज़ दौड़ती रही लोगों की आँखें मोबाइल में धँसी थीं। सीट के दोनों छोरों पर कुछ युवक ताश के पत्ते खेलने में इस क़द्र व्यस्त थे कि उन्हें आसपास के लोगों से कोई मतलब नहीं था। इंजन की तेज सीटी के साथ ट्रेन दाई और घुमने लगी। ऊपर की बर्थ पर लेता हुआ एक अधेड़ उम्र का आदमी अचानक से उठकर इधर उधर देखने लगा और जैसे ही उसे प्रतीत हुआ कि अभी उसकी मंज़िल क़रीब नहीं है वो पुन: ऊँघता हुआ लेट गया इंजन का शोर जैसे ही कम हुआ उस युवक के खर्राटे गूँजने लगे। 

आज शुक्रवार है रिचा देर रात तक अपने गंतव्य पर पहुँचेगी। कल सुबह साक्षात्कार है जहाँ प्रथम पाली में उसका साक्षात्कार है। उसके होठ मंद-मंद किसी श्लोक को दोहरा रहे हैं। प्राय: अंतिम क्षणों की तैयारी पर हम सबसे अधिक निर्भर रहते हैं। उस वक़्त तैयारी के काग़ज़ की एक कतरन का एक-एक अक्षर देर तक स्मृति में रहता है। उसने कल के लिए भूरे सफ़ेद रंग की ड्रेस एक अलग बैग में सहेज कर रख छोड़ी हैं जिन्हें पल भर देखकर वो दुबारा कुछ दोहराने लगी। वो जैसे ही कुछ दोहराती है उसकी आँखें मुँद जाती हैं जिन्हें देखकर अक़्सर सामने वाला चकमा खा जाता है कि वो सो रही है या जाग रही है। कई बार ऐसा हुआ भी कि उसकी आँख लग गयी हो। 

ट्रेन ने तेज़ बिगुल दिया उसने अपनी दाईं ओर देखा। लखनऊ आ चुका है। बाहर प्लेटफ़ॉर्म पर तेज़ हवा में लोग तेज़ी से दौड़ रह हैं। खिड़की से बाहर तेज़ धूप है जिसमें लोगों के साथ विकृत अक्ष भी दौड़ते दिखाई दे रहे हैं। बोगी में शोर हुआ। साथ वाली सीट पर एक नया परिवार आ गया है जो एक मध्यम दर्जे का परिवार है। हलकी दाढ़ी पर हाथ फेरते हुए बूढ़े ने क्षण भर अपनी टोपी को सर से उठाया और कुछ देर सर को खुजलाते हुए उसने वो टोपी दुबारा अपने सर पर रख की। लखनवी अंदाज़ में उसने सामने खड़े हुए मरियल से लड़के से पूछा, "क्यों वे कहाँ कु जा रिया है? इधर कु बैठ जा!" मरियल लड़का चुपचाप उसे देखता रहा। 

दूसरी सीट पर बैठी लड़की के मोबाइल से निकलती रौशनी उस मरियल लड़के की आँखों में गिरती जा रही थी। वो अब उस ओर देखने लगा। बूढ़ा अपने परिवार से बतियाने लगा। ताश खेलने वाले कुछ युवक अब डिब्बे से निकल चुके थे अब जितने बचे थे वो अपने अपने मोबाइल स्क्रीन में डूबे दिखाई दिए। सुबह की नर्म धूप अब तेज़ और गहरी हो चुकी थी कुछेक थकी आँखें अब बाहर झाँक रही थी। माथे से पसीना पोंछते हुए रिचा ने बैग को अपने सर के नीचे दबाया और उस पर सर रखकर लेट गयी। गाड़ी ने तेज़ उछलते हुए दुबारा तेज़ हॉर्न बजाया। शाम की पीली धूप में इंजन से निकलता धुँआ पीछे की और बह रहा था। दूर कहीं ईंटों के भट्टे आग से सुलग रहे थे। उसने आँखें खोलकर मोबाइल में टाइम देखा लगभग 4–5 घंटे का सफ़र अभी भी बचा है। ढलती शाम की ठंडी हवा का झोंका मिलते ही वो पुन: आँखें खोलकर प्रकृति के मनोरम दृश्य को निहारने लगी। लम्बे सफ़र की थकावट के कारण उसकी आँखों में लालिमा गहराने लगी थी। मरियल लड़का ताश खेलने वाले युवक के बग़ल में बैठा ऊँघ रहा था। दूर आकाश में बड़े बादल छोटे बादलों को अपने में समेटते आगे बढ़ रहे थे। ये तय था कि बारिश नहीं आएगी पर आजकल के मौसम की नज़ाकत को समझना उतना ही कठिन है जितना कि किसी के नाक पर बैठे ग़ुस्से को क़रीब से देखना। 

देर शाम ट्रेन प्रयागराज पहुँची। उसकी आँखों में नई जगह को देखने की ख़ास चमक थी। दशहरे के कारण बाज़ार की भव्यता देखे बनती थी। सफ़ेद उजली सड़कें हैलोजन लाइट में चमक रही हैं। वो होटल पहुँची। उसने टेरस पर जाकर जगमगाते आसमान को देखा वहाँ सितारे जुगनुओं की भाँति टिमटिमा रहे थे। नए शहर की आबो-हवा में नींद जैसे आँखों से कोसों दूर थी। एक पल के लिए वो ये सब भूल चुकी थी कि वो यहाँ किसी साक्षात्कार के लिए नए शहर में आई है। वो अपने कमरे में बैठी खिड़की से चलते शहर को देखने लगी। आज शहर सफ़ेद दुधिया रौशनी में नहाया हुआ है। सारा शहर मानों सड़कों पर निकल आया हो। हर एक चेहरा चिंता मुक्त दिखा। पहले कुछ मर्द और पीछे बच्चे टाँगे उनकी औरतें ख़ूब खिलखिलाकर निकलते जा रहे थे। एक तेज़ बाइक तेज़ शोर के साथ सड़क पर इधर से उधर चली गयी। पास ही पंडाल में सजे लोग हैं जिनके हाथो में गर्म जलेबियाँ और ज़ुबान पर चटकारे हैं। उनके जुड़े होंठ एक पल के लिए अलग होते हैं पर फिर आपस में जुड़ जाते हैं।

 

देर रात तक शहर आँखों में घूमता रहा। आँख देर से लगी। दिन भर के सारे दृश्य मानो दबे पाँव दुबारा सिरहाने आकर वृतचित्र की भाँति आँखों के सामने लहरा रहे हों। रात कब बीत गयी कुछ भी पता ना चला एक पल के लिए लगा कि वो सोयी ही नहीं पर दुसरे ही पल ये भी लगा की वो अभी भी उसी गहरी नींद में है जहाँ रात भर थी। शीतल समीर के झोंके से जैसे ही उसकी आँख खुली उसकी नज़र सामने टँगी घड़ी पर गयी। 6 बजे हैं उसने ऊँघने की कोशिश की पर उसका मुँह जकड़ा रहा। चाय के प्याले के साथ उसने प्रयागराज में हिंदी समाचार पात्र पर सरसरी निगाह उड़ेली। समय को भाँपते हुए वो जल्द ही उसी भूरी रंग की ड्रेस में तैयार हो गयी जिसे अब तक उसने सहेजकर एक काले बैग में रखा था। वो इस ड्रेस में काफ़ी खिल रही थी। उसके हल्के भूरे बाल कंधे पर झूल रहे थे। उसने अपना परिचय पत्र को देखते हुए स्थान आदि को देखा और यूनिवर्सिटी की तरफ़ चलने लगी। 

यूनिवर्सिटी का प्रांगण हरे वृक्षों से खिला था। अन्दर घुसते ही लाल पुष्पों से सुसज्जित एक लम्बी बेल थी जिसकी भीनी-भीनी ख़ुश्बू से सारा प्रांगण महक रहा था। पशु पक्षियों की चहचाहट से वहाँ का दृश्य देखे बनता था। सबके चेहरे पर अजीब-सी उत्सुकता थी। खिली आँखों में असंख्य सवाल थे। साक्षात्कार कैसा होगा, कौन-कौन लोग होंगे, कितने लोग होंगे, क्या पूछा जायेगा? क्या वो सवालों के जवाब दे सकेगी? 

दस मिनट में पहला कैंडिडेट बाहर निकला उसने ख़ाली दीवार को उदास नज़रों से देखा और उसी उदास भाव से आगे बढ़ गया। वो चुप कमरे के अन्दर थी। कमरे के भीतर 6 लोग सामने गोल मेज़ के उस तरफ़ बैठे थे उन्होंने मुस्कुराते हुए रिचा का परिचय लिया। हल्की सुखी मुस्कराहट के साथ उसके होंठ हिले। क़रीब 15 मिनट तक साक्षात्कार चलता रहा। जो पूछा गया उसकी रिचा को अच्छी जानकारी थी। साक्षात्कार उम्मीद से कहीं बेहतर रहा। वो मुस्कुराती हुई कमरे से बाहर आयी और उन लाल पुष्पों को देखने लगी ऐसे ही लाल पुष्प उसके बग़ीचे में भी हैं। लाल फूलों को देखते ही उसे अपने घर की याद आ गयी। मोबाइल में नंबर डायल करती हुई उसकी उँगलियाँ मानो ख़ुशी से क्रीड़ा कर रहों हों और जैसे समुद्र में उठती एक-एक लहरों को उसने स्वयं में समेट लिया हो। 

अभी सुबह के ग्यारह बजे हैं। वापसी की ट्रेन शाम को है आज का पूरा दिन शहर में घूमने का दिन है। हुर्रे! वो स्वयं मुस्कुराती हुई सिहर गयी। 

उसने उत्सुकतावश मुझे विडियो कॉल लगाया उसके होठ काँप रहे थे और आँखों की पुतलियाँ नाच रहीं थीं। "रोहन काश तुम साथ होते!" उसने बड़ी मायूसी से फोन पर कहा। वो बहुत ख़ुश दिख रही थी। 

"मैं आपके साथ ही तो हूँ! देखो एक मर्तबा पलटकर!" मैंने कहा।

उसने घूमकर देखा; निर्मल सन्नाटे में पंछी कूक रहे थे। कोई नहीं था वहाँ! हर ओर निस्तब्धता। 

"कहाँ हो तुम?" उसने इधर-उधर देखते हुए पुन: दोहराया। 

"अरे वहीं तो हूँ देखो तुम्हारे साथ," मेरी हँसी फोन के किनारों में घूम गयी। 

"तुम झूठ बोलते हो! कोई भी नहीं है यहाँ तो!" वो विस्मय से इधर-उधर ताकने लगी। 

"अरे भाई अपने अन्दर झाँक कर देखो!" मैंने कहा। 

"ये क्या शरारत है? अब आ भी जाओ सामने; देखो कितना अच्छा मौसम है। तुम बिन सब नीरस लग रहा है। तुम मेरे साथ होते तो सारा दिन जैसे पल भर में बीत जाता," उसने ऊपर गर्दन उठाई उसके कंधे पर गिरे बाल झूलने लगे। "जानते हो मेरा इंटरव्यू बहुत अच्छा गया," वो चहकती हुई बोली। 

"वो तो मुझे पता ही था। मैंने कहा ना था," मैंने इधर से जवाब दिया। 

उसकी आँखों में गहरी चमक आ गयी। 

आज पूरा दिन अप्रत्यक्ष रूप से ही सही वो मेरे साथ थी। मेरे साथ वीडियो कॉल पर उसका चेहरा ख़ुशी से झूम रहा था। मुझे भी यूँ लगा कि वो मेरे साथ है। वो जहाँ गयी मेरा गुमनाम साया भी उसके साथ चलता रहा। 

मैंने उसकी एक-एक बात को ध्यान से सुना और उस ख़ुशनुमा क्षणों को काल्पनिक रूप देकर उसे एक सरप्राइज़ देने का वादा किया। मैंने उससे कहा, "जब तुम लौटोगी मैं तुम्हे ऐसा सरप्राइज़ गिफ़्ट दूँगा जिसे देखकर तुम यक़ीनन ख़ुशी से झूम उठोगी।"

वीडियो में उसका चेहरा मुस्कुराता रहा। लगा जैसे उस पल वोअपने सरप्राइज़ मोमेंट्स को सुनने को बहुत उतावली हो। 

ये यात्रावृत्त जो उसकी ज़ुबानी था, जैसे ही उसने घर पहुँचकर देखा, वो ख़ुशी से झूम उठी और आतुर नज़रों से मुझे देखने लगी। उसकी आँखों में प्यारी-सी ख़ामोशी थी। वो ख़ामोशी जो समुद्र के भीतर होती है। 
उसकी आँखों के कोनों में आनंद के मोती झूल रहे थे। वो प्रेमवश मुझे देखती रही। उसने प्यार से मेरा हाथ थामा और अपने होंठों पर लगा लिया। 

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