बीहड़ से दूर: हिन्दुमल कोट

01-10-2023

बीहड़ से दूर: हिन्दुमल कोट

मनोज शर्मा (अंक: 238, अक्टूबर प्रथम, 2023 में प्रकाशित)

 

शहरों की दुनिया गाँव की दुनिया से भिन्न होती है, पर इसे ना शहर कहा जा सकता और ना ही गाँव। दुनिया की भीड़ से अलग-थलग इसे राजस्थान का अंतिम पड़ाव कहा जा सकता है। दूर तक ख़ाली सड़क और फिर शांत बीहड़। बीहड़ के इस ओर हमारा भारत और उस ओर पाक। कितने ही दुर्लभ और यादगार क्षण उस रोज़ अनायास ही स्मृति में बँधते गए। ‘हिन्दुमल कोट’ हिन्दुमल कोट दो देशों के बीच बना हुआ सेतु है जहाँ पर आज भी उन पुरानी स्मृतियों के अवशेष ज्यों के त्यों दिखाई देते हैं। उन सपनों को जिन्हें हम कभी बंद आँखों में देखते हैं उन्हें खुली आँखों से देखते हुए अजीब रहस्यमयी-सी आनंदानुभूति होती है। सुबह आकाश में हल्की-सी लालिमा देखकर मैंने कुछ देर के रुकी हुई अपनी वॉल्वो बस की खिड़की से बाहर क्षितिज की ओर देखा। अभी ठीक से सुबह नहीं हुई थी पर पक्षियों का कलरव चारों तरफ़ गूँज रहा था। बस हल्के कोहरे में खिसक रही थी। ख़ाली सड़क पर दूर तक मैली-सी रौशनी फ़ैली थी। घड़ी में समय देखा अभी क़रीब 5:30 हुए हैं और वॉल्वो बस सुखाड़िया चौक की ओर घूम गयी। संचालक ने जैसे ही सुखाड़िया चौक पुकारा दो एक सवारियों ने आँखेंं मलते हुए अपना डफल हाथ में उठाया और वे नीचे उतरने लगे। “श्रीगंगानगर आ गया है क्या?” मैंने उत्सुकतावश सामने वाली सीट पर बैठे हुए आदमी से पूछा। वो आदमी अभी तक खिड़की से बाहर देख रहा था पर जैसे ही उसने मेरी आवाज़ सुनी मेरी और देखते हुए उसने जवाब दिया, “जी बस कुछ ही देर में आप गंगानगर पहुँच रहे हैं।” बस धीरे-धीरे घिसटती हुई होटल के गेट पर जा पहुँची। सड़क पर हल्का उजाला हो गया था किन्तु बस्ती में आसपास जहाँ अभी तक हर तरफ़ सन्नाटा फैला था गहरी चहल-पहल होने लगी। 

रात भर के लम्बे सफ़र के बाद मैं श्रीगंगा नगर पहुँचा। सूरज की पहली किरण धरती पर उतर रही थी। हलकी नर्म धूप से सारा श्रीगंगा नगर चमक रहा था। चाय की दूकान पर मिट्टी के कसोरे में चाय पीते हुए मैंने अपनी दाहिनी ओर देखा कुछ लोग सुबह की सैर कर रहे थे। हाँफते हुए बुज़ुर्गों के चेहरों पर तेज़ था और आँखों में चमक थी। मैंने जैसे ही बुज़ुर्गों के उस जत्थे को पास आते देखा उन्होंने आँखेंं बंद करके मुस्कुराते हुए सिर झुका लिया। उनकी हँसती आँखों को देखते ही एक प्यारी-सी सिहरन देह में उतर गयी। कुछ देर बाद ही हम हिन्दुमल कोट की तरफ़ निकल पड़े। बॉर्डर पर बसे हिन्दुमल कोट का अंतरराष्ट्रीय इतिहास है। हिन्दुमल कोट देश के लिए ऐतिहासिक दस्तावेज़ है। हालाँकि ऐसी ख़बर है कि इस स्थल को ‘हेरिटेज़ वॉल’ के रूप में स्थापित किया जाएगा तथा यहाँ इसके इतिहास आदि से सम्बन्धित कई जानकारियाँ लिखी जायेंगी। 

हमारी कार सड़क पर हलके हिचकोले खाते हुए आगे बढ़ने लगी। उजली धूप में काली नयी सड़क कोलतार की गंध से महक रही थी। धीरे-धीरे गाड़ी भी हॉर्न देती हुई बढ़ती रही। कुछ देर तक भागता-दौड़ता शहर आँखों में घूमता रहा। लाल सिगनल पर जैसे ही हमारी कार रुकी एक कमज़ोर भिखारी हमारी कार के क़रीब आया जिसकी देह फटे सफ़ेद मैले कपड़ों से ढकी थी। उसका मुरझाया चेहरा काले शीशों के उस पार काफ़ी भयावह दिखाई दे रहा था। मैंने कार के शीशे को नीचे उतार के करके उसके हाथों में एक दस का नोट थमा दिया। वो देर तक मुझे देखता रहा यहाँ तक की शीशा बंद होने पर भी मानो उनकी निगाहें शीशों को लाँघकर भी मुझे देखने में सक्षम हों। रोज़ दफ़्तर जाने वालों की क़तारें बस स्टैंड पर खड़ी थीं। मोटर बाईक और स्कूटर वालों के तेज़ हॉर्न बीच-बीच में चीखते सुनाई दे जाते थे। शहर के एक कोने से निकलता हुआ काला धुआँ दूर तक आकाश में बादलों के मध्य घुमड़ता रहा। शहर को पार करते ही गाड़ी की स्पीड बढ़ गयी थी जैसे कोई उन्मुक्त पक्षी हवा में विचरण कर रहा हो। क़रीब 20 किलोमीटर गाड़ी आपात सड़क पर दौड़ती रही। हम काली गाँव की सरहद पर थे जो बॉर्डर के क़रीब ही था। एक मित्र की शादी वहाँ में अचानक शरीक होना एक विस्मयकारी अनुभव था किन्तु वहाँ पहुँचकर भारत-पाक की मिली जुली संस्कृति के दर्शन हुए जो इस यात्रा का बेहद रोमांचकारी पड़ाव था। हम गाँव के बुज़ुर्गों से मिले जो सिर पर ऊँचे साफ़े बाँधे खड़े थे। लाल पीले पुष्पों से सुस्सजित घर की ड्योढ़ी बिलकुल नयी दुलहन की भाँति चमक रही थी। हमें आहाते में बिछाई गयी खाटों पर बिठाया गया हर एक खाट पर एक बड़ी गोल तश्तरी में पान बीड़ी आदि सुभीते से रखा हुआ था। वहाँ हमारी ख़ूब आभागत हुई। ज़ायक़ेदार लज़ीज़ खाना, सुंदर बुनकारी और वहाँ के सभ्य लोगों से मिलकर हृदय यक़ीनन ख़ुशी से झूमने लगा। वक़्त को देखते हुए ना चाहते हुए भी हमें बॉर्डर की ओर बढ़ने लगे। उनके मुस्कुराते चेहरे देर तक और दूर तक हमें देखते रहे। आज भी वो चेहरे मेरे हृदय में एक ख़ास आकर्षण लिए हैं। 

गाड़ी बॉर्डर के क़रीब पहुँच गयी। ड्राईवर ने गाड़ी को लम्बे गेट पर पार्क कर दिया। आकाश में बादलों के मोटे-मोटे सफ़ेद खंड दायीं ओर बढ़ रहे थे। हम लम्बे गेट से सुनसान पथ पर जैसे ही आगे बढ़े एक सुन्दर नीला सुनहरी मोर पास ही हल्की उड़ान भर रहा था। कितनी नीरवता थी वहाँ जैसे हम शून्य में उतरते जा रहे हों। हमारे साथ सेना के बड़े अधिकारी थे जिन्हें हम सब प्यार से कर्नल साहब कह रहे थे। वो हमें वहाँ की पुरानी धरोहर से रूबरू करा रहे थे। वो काफ़ी सुलझे हुए व्यक्ति थे। उनके गोल चेहरे पर मोटी रूआबदार मूँछें थीं जिनको वो बार-बार ताब दे रहे थे। वो आगे-आगे बढ़ते रहे और हम उनके पीछे-पीछे उत्सुकता बाँधे चलते रहे। हरी घास पर जगह-जगह भारत वर्ष के निशाँ बने थे। सफ़ेद ईंटों से बनी सुन्दर क्यारियों में पानी लबालब बह रहा था। पक्षियों के कलरव का मीठा स्वर हमारे इर्द-गिर्द घूमता रहा। कितना निर्मल स्थान था वह जैसे हम उस क्षण स्वर्ग में आ चुके हों। लम्बी ढलान पर चलते हुए हम बॉर्डर के गलियारे की ओर मुड़ गये। सामने आधी तिरछी पटरियाँ बिछी थीं जिन्हें देखते ही हमारे साथ चल रहे कर्नल क्षण भर रुक गये और हमें उस क्षत-विक्षत पटरी का इतिहास बताने लगे। ये वही पटरी थी जिसपर कभी भारत-पाक के मध्य ट्रेन दौड़ती थी। क्षण भर उस पटरी को देखकर लगा जैसे ट्रेन कभी भी किसी क्षण हमारे सम्मुख आ खड़ी होगी। हम सभी उस पुरानी टूटी बिखरी पटरी को उत्सुकतावश देखते रहे। विभाजन के उपरान्त पाकिस्तान सरकार ने रेल पटरियों को उखाड़कर ट्रैक को समतल कर दिया। कहते हैं अंग्रेज़ी शासनकाल में बंबई व दिल्ली को कराची से जोड़ने के लिए हिन्दुमल कोट भी प्रमुख माध्यम था। अँग्रेज़ों ने तीन रेल मार्ग बनाए, इनमें से एक रेल मार्ग दिल्ली से बहावलपुर वाया बठिंडा व हिन्दुमल कोट था। कुछ ही दूर सामने पुराने जर्जर रेलवे स्टेशन की ढही हुई इमारत खड़ी थी जिसकी काली झुलसी दीवार पर धुँधले अल्फ़ाज़ों में लिखा था हिन्दुमल कोट। मैं जड़वत दीवार पर लिखे अक्षरों को देखता रहा मानो उस टूटी इमारत के पीछे से आज भी हमारे पूर्वज हमें आशावान आँखों से देख रहे हों। दरवाज़े के क़रीब ही टूटी जीर्ण खिड़की से भीतर की दहशत आज भी उसी रूप में दिखाई दे रही थी जैसे उस समय यानी बँटवारे के दौरान थी। मैंने बंद दीवारों की सींखचों से बंद इमारत को देखा इमारत के भीतर टूटी फूटी कुर्सियाँ और मेज़ बिखरे पड़े थे। ज़र्द मैली दीवारों पर हाथ लगाते ही प्रतीत हो रहा था कि इन्हें छूते ही कहीं ये भुरभुराकर ना गिर पड़ें। हम क्षण भर टूटी पटरियों और टूटी इमारत के क़रीब खड़े रहे। जाने क्यों लगा कि हज़ारों बिलखती आँखें हमें अपने क़रीब बुलाकर अपने भीतर के गहरे ज़ख्मों से आत्मसात कराना चाहती हों। 

ट्रेन की पटरी के उस पार हम लोग जैसे ही आगे बढ़े सड़क के किनारों पर युकेलिप्टस के लम्बे पेड़ खड़े थे, सौंधी मिट्टी की मीठी महक हर ओर फैली थी। लम्बी खुरदरी सड़क पर कुछ देर चलने के उपरान्त सामने टी प्वाईंट आया जिसके दाहिनी ओर ज़मीन पर उभरे मिट्टी के घेरे थे जिनमे लगे रंग-बिरंगे पुष्प और उन पर लहराती छोटी-छोटी तितलियाँ हमें बरबस अपनी ओर आकर्षित कर रहीं थीं। पेड़ों के नीचे गहरी ठंडी छाया थी जिनमें एक अजीब क़िस्म का आकर्षण था लगता था काश ऐसी ही वादियों में हम सबका बसेरा हो। 
पास से गुज़रते कुछ सैनिकों ने हमें विस्मय से देखा। हम सभी कर्नल साहब के संग आगे बढ़ते रहे। कुछ ही दूरी पर ज़मीन के भीतर गहरे बंकर बने थे जिनमें कुछ सैनिक बंदूक ताने लेटे थे। हम जैसे ही उनके क़रीब से गुज़रे वो चौक्कने होकर हमें ताकने लगे। किन्तु बड़े अधिकारी को देखते ही वो सहज हो गये और अपने काम में पुनः जुट गये। हम बड़े बरामदे से होते हुए ऊँचे टीले पर जा पहुँचे। सामने पाकिस्तान की सरज़मीं दिखाई दे रही थी। 

हरी फैली घास और दूर उस मरुभूमि के उस पार पाकिस्तान था। कर्नल साहब ने अपनी विशेष दूरबीन से हमें सरहद के उस पार के अद्भुत और दुर्लभ दृश्यों को क़रीब करके दिखाया। पल भर लगा कि मैं सरहद के उस पार हूँ पाकिस्तान की ज़मीन पर जहाँ दूर कहीं कच्ची सड़कों पर क़तारबद्ध गाड़ियाँ चल रही हैं। पाक कृषक ऊँचे पायजामों में और क़मीज़ की आस्तीने बाँधे अपनी खेती करने में मग्न हैं। कभी-कभी हरी भरी घास के भीतर दूर कहीं गायें भैंसे चराते हुए किसानों के चेहरे उभर आते हैं जिनके चेहरों पर कोई द्वेष या भय नहीं लगा जैसे वो भी इस ओर देख रहे हों। हम क़रीब दो घंटे ऐसे दुर्लभ नज़ारों को अलग-अलग जगहों से देखते रहे। समय बीतता गया पर उत्सुकता अभी भी आँखों में पहले की तरह बनी थी। दोपहर शाम की ओर बढ़ने लगी। शाम की पीली धूप मटियाली मिट्टी की तरह हमारे सामने थी। हम सभी एक बड़े बग़ीचे में एकत्र हो गये जहाँ कुछ सैनिक पहले से ही किसी कार्यक्रम की तैयारियों में जुटे थे। उन ऊँचे टीले पर जहाँ से कुछ देर पहले तक हम पाकिस्तान के भीतर झाँक रहे थे अब वहाँ हैलोजन लाइट्स अब जलने लगीं थीं। 

पीली लाइट्स में हरी घास अब चमक रही थी। अब यहाँ हल्की ठण्ड महसूस की जाने लगी थी। हम लोग अपने हाथों को वक्ष में बाँधकर उस सैन्य कार्यक्रम देखते रहे। पहले किसी बड़े अधिकारी का वक्तव्य हुआ जिसे वहाँ पर बैठा सैन्य दल बड़ी गंभीरता से सुन रहा था। हर एक चेहरे पर एक ख़ास क़िस्म की कौतूहलता दिखाई दे रही थी किन्तु जैसे ही अधिकारी का भाषण समाप्त हुआ हर सैनिक का चेहरा खिला था और आँखों में चमक थी। कुछ लोगों ने हमारे क़रीब आकर हमें हिन्दुमल कोट के इतिहास के बारे में अद्भुत घटनाएँ बताईं। पेड़ों की हरी डालियाँ मंद-मंद हिलोरे खा रहीं थीं। हमारे सामने बहुत ही विहंगम दृश्य था जहाँ एक ओर परिंदे अपनी ऊँची उड़ान के पश्चात अपने घोंसलों में लौट रहे थे तो दूसरी ओर गोधूली में हिन्दुमल कोट गाँव के पशु चर कर अपने गंतव्यों पर पहुँच रहे थे। हम लोगों ने मुस्कुराते हुए अब विदा लेनी चाही। मन तो था कि कुछ क्षण और यहाँ बिता लिए जाएँ किन्तु समय और स्थान को देखते हुए हमें लौटना ही पड़ा। कुछ सैनिकों के आश्रय में हम मुख्य द्वार तक उनसे बतियाते लौटते रहे। 

मैं बहुत जल्द दोबारा यहाँ आना चाहूँगा ये कहकर मैंने मुस्कुराते हुए उनसे अब विदा ली। हम लोग एक-एक करके गाड़ी में बैठने लगे। हम सबकी आँखें खिड़की के शीशों से उन्हें ओझल होते हुए देखती रहीं। देर तक हम सबके हाथ हवा में लहराते रहे। गाड़ी ने कुछ दूरी पार करके अब स्पीड पकड़ी। सात बजने को थे आकाश में शाम की लालिमा दिखाई दे रही थी। दिनेश जी ने मुस्कुराते हुए मुझसे पूछा, “कहो तो काली गाँव में एक मर्तबा फिर हो आते हैं। काली गाँव वही था जहाँ हम सभी हिन्दुमल कोट में जाने से पूर्व एक ब्याह में शरीक हुए थे। समय गाड़ी की तरह तेज़ी से भाग रहा था। मैंने सभी को आश्वासन देते हुए कहा कि मैं जल्दी ही दुबारा आऊँगा। सब मुस्कुराते हुए मुझे देखते रहे। 

मैंने कलाई पर बँधी घड़ी में समय देखा। अँधेरी सड़क पर गाड़ी स्पीड से दौड़ती रही। सड़क के किनारों पर लगे बड़े वृक्ष किसी लम्बे दैत्य की भाँति खड़े थे। गाड़ी की लाइट जैसे ही उनके चेहरों तक पहुँचती वो जड़वत हमें ताकते दिखाई पड़ते। हिन्दुमल कोट अब काफ़ी पीछे छूट चुका था पर सड़क पर मील के पत्थरों पर अभी भी वो यहाँ से कितनी दूरी पर है, आसानी से पढ़ा जा सकता है। हिन्दुमल कोट बॉर्डर यक़ीनन एक सरमाया है जिसमें आज़ादी से पूर्व की अनगिनत यादें बसी हैं जो कुछ देर के लिए ही सही लगा जैसे जीवंत हो गयी हों। 
 

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें