ज़िन्दगी बहुत अच्छी थी

01-02-2023

ज़िन्दगी बहुत अच्छी थी

हरेन्द्र श्रीवास्तव (अंक: 222, फरवरी प्रथम, 2023 में प्रकाशित)

ताल तलैया खेतों-मेड़ों के बीच
गाँव में मेरी भी एक झोपड़ी थी
जेठ मास की आँधियों से उजड़ जाती 
सावन में हमेशा चूती थी 
पर ज़िन्दगी बहुत अच्छी थी। 
 
रास्ते कच्चे गलियाँ टेढ़ी-मेढ़ी थीं 
बारिश में कीचड़ की किचपिच 
गर्मी में धूल ही धूल उड़ा करती थी 
पर ज़िन्दगी बहुत अच्छी थी। 
 
कपड़े फटे पहनते थे
बदन भले ही कम ढँकते थे 
शर्ट की बटन भी टूटी रहती थी
पर ज़िन्दगी बहुत अच्छी थी। 
 
बेगारी ज़्यादा पूँजी बहुत कम थी 
घर में बहुत ग़रीबी थी 
क़र्ज़ तब भी था अब भी है 
पर ज़िन्दगी बहुत अच्छी थी। 
 
रजाई में रूई कम थी 
चादर पाँव तक नहीं पहुँचती थी
सर्द रातें किसी तरह कटती थीं 
पर ज़िन्दगी बहुत अच्छी थी। 
 
दीवारें कुछ टूटी-फूटी थीं
छत भी घर की कच्ची थी
आशियाँ कैसा भी था 
पर ज़िन्दगी बहुत अच्छी थी। 
 
आती है जब उन बीते दिनों की याद 
जो पेड़ों और पंछियों संग गुजरी थी 
तड़प उठता है मेरा मन और पूछता है 
कहाँ गये वो दिन जब मेरी ज़िन्दगी अच्छी थी? 

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