खो गयी बारिश की रुमानियत: कहाँ गये वो बारिश के दिन

01-02-2023

खो गयी बारिश की रुमानियत: कहाँ गये वो बारिश के दिन

हरेन्द्र श्रीवास्तव (अंक: 222, फरवरी प्रथम, 2023 में प्रकाशित)

परिवर्तन प्रकृति का नियम है और हमारे धरती ग्रह पर भी पायी जाने वाली विभिन्न प्रकार की ऋतुओं में सतत परिवर्तन होता रहता है और यही ऋतु परिवर्तन का क़ुदरती-चक्र हम सभी के जीवन में वर्षा ऋतु का आगमन कराता है। वर्षा ऋतु अपने आगमन के साथ एक नया सौन्दर्य और एक नया रंगरूप लेकर हमारे जीवन में प्रवेश करती है। बारिश के मौसम में जब बैशाख और जेठ माह में तपी धरती पर आसमान से पहली बौछार पड़ती है तो मिट्टी की सोंधी-सोंधी ख़ुश्बू हमारे तन-मन को महका जाती है। 

बारिश का मौसम अत्यन्त सुहावना होता है और सच पूछिये तो इस मौसम का असली आनंद ग्रामीण क्षेत्रों में ही देखने को मिलता है। गाँवों में जब वर्षा ऋतु आती है तो गाँववासी और किसानों के साथ-साथ पशु-पक्षी भी बारिश की ठंडी-ठंडी बौछारों से झूम उठते हैं। क्या आपने धान के पौधों की रोपाई हेतु गाँवों में किसान भाइयों द्वारा तैयार की गयी ख़ूबसूरत नर्सरी देखी है? यक़ीन मानिये नर्सरी में लहलहाते धान के हरे-भरे नन्हे पौधों की हरियाली में जितना प्राकृतिक सौंदर्य है उतना दुनिया के किसी गार्डेन और किसी पार्क में आपको देखने को नहीं मिलेगा। बारिश के मौसम में पानी से लबालब भरे खेतों में मछली पकड़ते बगुले, खेतों-मेड़ों पर उगी घासों की हरियाली तथा बाग़-बग़ीचों में नृत्य करते मयूर जैसे अनेकों दृश्य ग्रामीण क्षेत्रों के प्राकृतिक सौंदर्य में चार चाँद लगा देते हैं तथा इन बेहद मनोरम प्राकृतिक दृश्यों को देखकर हमारा मन-मस्तिष्क आनंदित हो उठता है। 

बारिश के मौसम की अनगिनत यादें हमारे साथ आजीवन जुड़ी होती हैं। बचपन में हमें बरसात के मौसम का बेसब्री से इंतज़ार रहा करता था। तब हम सभी सोचते थे कि कब बारिश का मौसम आये और कब हम अपनी काग़ज़ की नाव पानी में चलाएँ। आज भी जब कभी हमें बचपन के दिनों में वर्षा ऋतु के दौरान काग़ज़ से निर्मित नावों को बहाने वाली बात याद आती है तो हम सुदर्शन फ़ाकिर की लिखी और ‘ग़ज़ल सम्राट’ जगजीत सिंह जी की उस ख़ूबसूरत ग़ज़ल को याद करते हैं जो हमें हमारे बचपन के दिनों का मीठा एहसास कराती है: 

“ये दौलत भी ले लो, ये शोहरत भी ले लो 
भले छीन लो मुझसे मेरी जवानी 
मगर मुझको लौटा दो बचपन का सावन
वो काग़ज़ की कश्ती, वो बारिश का पानी!” 

हम उन मेंढक जैसे ख़ूबसूरत जीवों को भी कैसे भूल सकते हैं जो बारिश के दौरान खेतों-मेड़ों से लेकर हमारे घर-आँगन तक उछलकूद मचाया करते थे और जब हम रात को सो जाते थे तब भी इन मेंढकों की टर्र-टर्र जैसी अनोखी आवाज़ हमारे नींद में घुलमिल कर हमें वर्षा ऋतु के क़ुदरती आनंद का एहसास कराती थी। झींगुर जैसे अनेकों कीट-पतंगों की अजीबोग़रीब आवाज़ भी बारिश की रातों को बेहद आनंददायक एवं रहस्यमयी बना देती थीं। धामन साँप जिसे हम सभी अंग्रेज़ी में इन्डियन रैट स्नेक के नाम से जानते हैं उनका आपसी युद्धरत जैसा अनूठा व्यवहार भी बारिश के मौसम में हमें बेहद आनंद देता है। मानसून काल में जब दो बेहद ख़ूबसूरत एवं विषहीन धामन साँप प्राकृतिक आवास में अपने विशिष्ट क्षेत्र को सुनिश्चित करने और मादा की प्राप्ति के लिए आपस में युद्ध करते हुए एक-दूसरे को पटखनी देते हैं तो इन नज़ारों को देखकर हम रोमांच से गद्‌गद्‌ हो उठते हैं। कोयल की मधुर आवाज़ तथा चातक की ख़ूबसूरती का कहना ही क्या और पेड़-पौधों की हरी-भरी पत्तियों पर बिखरी बारिश की बूँदों का प्राकृतिक सौंदर्य तो देखते ही बनता है। सचमुच बरसात का मौसम बेहद सुहावना बेहद रोमांचक और बेहद सुकूनदायी होता है। 

लेकिन आज हम देखते हैं कि बारिश का मिज़ाज बदल गया है और मौसम का प्राकृतिक चक्र बिगड़ गया है। अब पहले जैसी बारिश नहीं रही और ना ही पहले जैसा बारिश का वो प्राकृतिक आनंद। अब बारिश असमय होती है और मानसून के आगमन के प्रकृति द्वारा निर्धारित नियम में असंतुलन उत्पन्न हो गया है। कीटनाशकों के अंधाधुंध प्रयोग के चलते मेंढकों की आबादी घट गयी है दुष्परिणामस्वरूप अब हमें बारिश के मौसम में मेंढकों की वो उछलकूद देखने को नहीं मिलती जिसे देखकर हम बचपन में बेहद आनंदित हो उठते थें। हर बच्चे के हाथों में स्मार्टफोन के आ जाने और वीडियो गेम की लत के कारण अब वो काग़ज़ की नावें नहीं बहा करतीं जो हमारे वर्षाकालीन बचपन के आनंद प्राप्ति का स्रोत थीं। अब पेड़-पौधे कट गये हैं और पक्षी घट गये हैं जिसके चलते अब हमें बारिश के दौरान पक्षियों की मधुर चहचहाहट की बजाय केवल बादलों की नीरस गड़गड़ाहट ही सुनाई पड़ती है। पहले जहाँ अषाढ़-सावन के महीने में खेतों में दो बैलों की जोड़ी लिए किसान दिखाई देते थे जो कि ग्रामीण संस्कृति के प्रतीक थे वहाँ अब केवल ट्रैक्टर जैसे उपकरण नज़र आते हैं जिन्होंने गाँव की परंपरागत संस्कृति की झलक को छीन लिया है। सावन की मूसलाधार बारिश के दौरान गाँव-देहात के जिन नदी-नालों में पहले मछलियाँ, कछुए और जलीय पक्षी अपना सौंदर्य बिखेरते नज़र आते थे उन नदी-नालों में अब प्लास्टिक की तैरती थैलियों के घिनौने दृश्य नज़र आते हैं। आधुनिकीकरण और बिगड़ते पर्यावरण ने गाँवों में बारिश का वो हर एक सुहावना दृश्य लुप्त कर दिया है जो हमारे बचपन का आनंदमय पल हुआ करता था। 

भले ही आज पर्यावरण का स्वरूप एवं हमारी पुरातन संस्कृति बदल रही हो, जंगल तेज़ी से काटे जा रहे हों, तालाबों को पाटकर वहाँ कंक्रीट के जंगल खड़े किये जा रहें हों लेकिन इन सभी परिवर्तनों के बावजूद अभी भी गाँवों-देहातों में बारिश का मौसम अपने साथ एक नया उल्लास लेकर आता है। अभी भी वर्षा ऋतु के समय गाँव-देहात के पोखरों में नहाते बच्चों का झुंड हमें देखने को मिल ही जाता है। आज भी दूरदराज़ के गाँवों में वर्षा ऋतु के समय काग़ज़ की नाव से मस्ती करने वाले बच्चों के दृश्य कहीं ना कहीं अवश्य दिखाई पड़ ही जाते हैं। बारिश की पहली फुहार अभी भी हमें मिट्टी की सोंधी ख़ुश्बू की महक दे जाती है। अभी भी बारिश में भीगते पंछी और आकाश में मँडराते दो जोड़ी पारदर्शी पंख वाले व्याधपतंग नामक ख़ूबसूरत कीट अपनी क़ुदरती कलात्मक गतिविधियों से हमें आकर्षित करते हैं। आज भी बारिश का मौसम हम सभी को प्रकृति का आनंदमय एहसास कराता है। बारिश प्रकृति की अद्वितीय एवं अनुपम देन है। वर्षा ऋतु सृष्टि का मनोरम नैसर्गिक सौन्दर्य है। 

यदि हमें बारिश के मौसम का भरपूर आनंद लेना है तो हमें पेड़-पौधे बचाने होंगे, तालाबों का महत्त्व समझना होगा और पक्षियों का संरक्षण करना पड़ेगा। मेंढकों की वही पुरानी मस्तीभरी उछलकूद और टर्र टर्र को देखने-सुनने के लिए हमें कीटनाशकों एवं रासायनिक खादों का छिड़काव बन्द करना होगा। बारिश का मौसम एक जीवंत एहसास है और इस एहसास को महसूस करने के लिए हमें प्रकृति संरक्षण के प्रति समर्पित होना होगा तथा अपनी प्रकृति पूजक संस्कृति का सम्मान करना होगा। 

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