अनंकुरित बीज
हरेन्द्र श्रीवास्तव
हवा थी मिट्टी थी खाद भी थी
पर अंकुरित नहीं हो सके कुछ बीज
जो क्षमता रखते थे
पतझड़ में भी बहार लाने की
विशालकाय वृक्ष बन
चट्टानें तोड़ पाताल तक घुस जाने की
मगर यूँ ही बिखरे रहे वो ज़मीं में
कुछ सूखे धूप में तो कुछ गल गये नमी में
सुषुप्त पड़ गये वो प्रतिकूल मौसम के प्रहार से
बस इसी तरह दबी रह गयीं कुछ प्रतिभाएँ
वक़्त और हालात की मार से!