तर्पण
राजेश शुक्ला ‘छंदक’हर्षोल्लास भरा जीवन में,
कन्या रूपी रत्न मिला।
धन्यवाद देते ना थकते,
करते थे जिससे गिला॥
नन्हे पग से हर्षित आँगन,
देहरी लेती अब बलइयाँ।
गुंजायमान् है कोना-कोना,
हँसती उसकी हैं परछाइयाँ॥
समय बीतता गया मगर,
कन्या बढ़ती नहीं दिखी।
कालचक्र की चाल रुकी,
या उसको ये नहीं दिखी॥
आया एक ऐसा मोड़ जहाँ,
बेबस विज्ञान खड़ा पाया।
भूल हुई क्या कुछ अतीत में,
विधि से ना जादुई घड़ा पाया॥
मात-पिता जब थक हारे,
भाग्य इसी को मान लिया।
वक़्त का कड़वा सच सहकर,
तनया को बौना मान लिया॥
बेटी तन से थी ना विकसित,
पर ज्ञान की वह तो गागर थी।
नयनों में चंचल चितवन थी,
सौन्दर्य नीर का वह सागर थी॥
कालपुरुष के पहिये की गति,
निर्बाध रूप से बढ़ती गयी।
कन्या तन को छोड़ अन्यक्षेत्र में,
उन्नति सीढ़ी पर चढ़ती गयी॥
रंजना हुई अब बैंक अधिकारी,
मेहनत का फल आज मिला।
मात-पिता के हृदय प्रफुल्लित,
जैसे कोई ख़ज़ाना आज मिला॥
उन्हें गर्व निज तनया पर था,
बौनेपन का अब ज़ख़्म भरा।
जीवन में उनके सब कुछ था,
जो ख़ाली था वह आज भरा॥
सेवानिवृत्त अधिकारी पिता थे,
घर सुंदर विशाल बनाया था।
अन्तर्मन के धागे में गूंथ-गूंथ,
फूलों पौधों से उसे सजाया था॥
समय को कोई रोक सका क्या,
उसके दिन-रात उदासी हुए।
अब माता पिता एक-एक करके,
दोनों ब्रह्मलोक के वासी हुए॥
रंजना का अब यह घर सूना,
जीवन भी उसका बेरंग हुआ।
जो अब तक ढंग से चलता था,
आज अचानक ही बेढंग हुआ॥
पिता के समय से एक सेवक,
वह आज भी सेवा करता था।
खान-पान से कपड़ों तक का,
ध्यान सभी कुछ रखता था॥
शनै:शनै: समय की गति से,
उसके मन प्रेमांकुर एक जगा।
रंजना और अपना अंतर लख,
लक्ष्मण रेखा से वह गया ठगा॥
एकाकीपन उसका बोझ बना,
घर में सन्नाटा पसरा रहता था।
अन्तर्मन मानो कथाकार बनकर,
कोई नयी कहानी लिखता था॥
रंजना का मन कछुए की तरह,
उस सेवक की ओर चलने लगा।
दोनों के मन इस पथ में बढ़े,
उनका तन ज्वाला से जलने लगा॥
फिर दोनों के मन कमल खिले,
एक दिन उनका फिर मिलन हुआ।
उधड़े जो जीवन तम्बू के टाँके,
उनका कुछ नूतन सिलन हुआ॥
एक दिन कार्यालय से सहकर्मी को,
अपने घर में रहने हित ले आयी।
वह सरिता और उसके दो बच्चे थे,
उनकी सुविधा के लिए घर लायी॥
आराम से उनके दिन व्यतीत हों,
बस उसके दिल की एक तमन्ना थी।
इस घर में फिर से रौनक़ आये,
ये मुझसे बोलें बस यही तमन्ना थी॥
रंजना के हृदय में एक दिवस,
प्रश्नों की झड़ी कुछ ऐसी लगी।
पुरखों के तर्पण अधिकारी बेटे ही,
ऐसी व्यवस्था ने क्यों बेटी ठगी॥
अब बदलूँ ऐसी व्यवस्था को,
उसने निश्चय ऐसा कर डाला।
निज मात-पिता के तर्पण हित,
गया गमन फिर कर डाला॥
ड्राइवर और सरिता को संग लिए,
वह फालगू के तट पर पहुँच गयी।
गया के पंडों को दिखाने दर्पण,
एक बेटी तर्पण हित पहुँच गयी॥
अनगिनत बाधाओं के बन्धन,
आख़िर उसने सब तोड़ दिये।
पुत्र ही कर सकता है तर्पण,
इन रीतियों के रुख़ मोड़ दिये॥
आ गई समस्या उसी समय,
पैसे उसके सारे समाप्त हुए।
तत्काल मिले कैसे धन अब,
ये प्रश्न मस्तिष्क में व्याप्त हुए॥
फिर दृष्टि रुकी अपनी कटि पर,
यह सोने की करधन बेचूँगी।
पुत्री भी कर सकती है तर्पण,
यह रेखा अवश्य मैं खींचूँगी॥
ड्राइवर जो सेवा करता था,
अब इसमें उँगली कैसे फँसायेगा।
कपड़े बदलते वक़्त वह कामुक,
मेरी कटि में कैसे हाथ धँसायेगा॥
बजा मोबाइल उसी समय,
बच्चे की उधर से आवाज़ लगी।
बात करा दो पापा से मेरी,
यह सुन छठी इंद्री उसकी जगी॥
बात करा दी ड्राइवर से परन्तु,
वह अन्दर ही अन्दर टूट गयी।
जो माला भविष्य की गूँथी थी,
वह हाथों से अचानक छूट गयी॥
अतीत में अविवाहित बोला था,
ऐसे क्यों ड्राइवर ने मुझको ठगा।
वह वेदना, क्रोध से थी व्याकुल,
यह तीर रंजना के उर में लगा॥
वह गया से घर फ़ौरन आकर,
ड्राइवर को सेवा से मुक्त किया।
अब धोखा भविष्य में ना कोई दे,
ऐसी कुछ फ़ौरन युक्ति किया॥
पैतृक सम्पत्ति पर एक ट्रस्ट बना,
फिर वृद्धाश्रम का निर्माण कराया।
सरिता और बच्चों को शामिल कर,
बेसहारों को अपना बना लिया॥
अब वृद्धाश्रम का लग गया बोर्ड,
भविष्य वृद्धों को अर्पण कर डाला।
अब तन-मन में सेवाभाव भरा,
इस जीवन का तर्पण कर डाला॥