पास बैठो

राजेश शुक्ला ‘छंदक’ (अंक: 212, सितम्बर प्रथम, 2022 में प्रकाशित)

पास आओ तो महफ़िल महक जायेगी, 
दूर जाने से ये धड़कन रुक जायेगी। 
अब शुक्रिया हो तुम्हारे इन क़दमों का, 
मौत आये जो वो कुछ तो टल जायेगी॥
 
मन की कोंपल खिली अधखिली रह गयी, 
ओस की बूँद आ ज्यों सर सरकती गयी। 
अन्तस मन का कुछ ऐसे झंकृत हुआ, 
झन-झन पिंगला में अब तो खिसकती गयी। 
भेद उसने कुछ अनाहद को ऐसे दिया, 
लग रहा अब कुंडलिनी जग जायेगी॥ पास . . . 
 
तेरे आहट के आने से झाँकती खिड़कियाँ, 
जैसे मद्धम पवन से नाचती पत्तियाँ। 
खिड़की खट-खट से मुड़ के यूँ कहने लगी, 
आज अपने मुहल्ले में सब जल गयीं बत्तियाँ। 
तेरी पायल के रुनझुन से दर दीवार सब, 
ये तेरी ही शागिर्द बनके रह जायेंगी॥ पास . . . 
 
नेटवर्क मेरा तो कुछ ऐसे कटने लगा, 
छा गया जो अँधेरा वो छँटने लगा। 
नभ में तैनात सैनिक जो थे चाँद के, 
उनका रुतबा भी जैसे घटने लगा। 
अब तो आसार मुझको यही लग रहे, 
तू न आयी तो काल रब की आ जायेगी॥ पास . . . 

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