भूले गाँव गँवैया रे . . .
राजेश शुक्ला ‘छंदक’यारों इस शहर में आकर,
भूले गाँव गँवैया रे।
टोटी से जल बहते देखा,
भूले ताल तलैया रे॥
चिकनी, सपाट सड़कों पर चल,
गाँव की पगडंडी भूल गये।
नालायक़ से लायक़ करने वाले,
उन गुरु की डंडी भूल गये।
अमीनाबाद और गंज में घूमा,
तो हाट गाँव की भूल गये।
सफ़ेद चमकती लाइटों में हम,
गाँव की ढिबरी भूल गये।
गोमती नदी में स्टीमर देख के,
भूले नाव नवैया रे॥
यारों इस शहर में आकर,
भूले गाँव गँवैया रे॥
वैष्णव होटल में खाना खाकर,
अम्मा की रोटी भूल गये।
गैस की रोटी याद रही अब,
वह रोटी मोटी भूल गये।
राजा की ठंडाई पी पीकर,
राब का शरबत भूल गये।
जीभ लगे जब रत्ती के खस्ते,
पत्ते वाली चाट को भूल गये।
नन्हे की गजक, पापड़ी खाकर,
भूले भुजवा की लइया रे॥
यारों इस शहर में आकर,
भूले गाँव गँवैया रे॥
टेबल टेनिस, क्रिकेट में खोकर,
गाँव का गुल्ली डंडा भूल गये।
यहाँ के शाही पनीर में खोकर,
अपना देशी बंड़ा भूल गये।
इंग्लिश की ग्रामर रटते-रटते,
तेरह का पहाड़ा भूल गये।
शहर में देखा जबसे चिड़ियाघर,
वह मुर्गियों का बाड़ा भूल गये।
फ़िल्मी गानों को सुन-सुनकर,
भूले सब छंद, सवैया रे॥
यारों इस शहर में आकर,
भूले गाँव गँवैया रे॥
नावेल्टी में जब से सिनेमा देखा,
रम्पत की नौटंकी भूल गये।
शहर में जब से आरो पानी देखा,
गाँव की पानी की टंकी भूल गये।
कार, बाइक में फर्राटे भरकर,
चकरोड का चलना भूल गये।
नन्हे बच्चों के डे-बोर्डिंग याद रहे,
वह दादी का पलना भूल गये।
मीका के नाइट शो देख-देख,
भूले बिरहा के गवैया रे॥
यारों इस शहर में आकर,
भूले गाँव गँवैया रे॥
डॉक्टर, नर्सों के चक्कर में पड़,
काजल का डिढौना भूल गये।
कारलोन के गद्दों पर सो-सोकर,
वह पुआल का बिछौना भूल गये।
अँग्रेज़ी दवाइयों को खा-खाकर,
गाँव की जड़ी-बूटियाँ भूल गये।
फ़ैशन वाले कपड़े पहन-पहन,
उन ठप्पों की बूटियाँ भूल गये।
नक्खास की पतंगें उड़ा-उड़ा,
भूले पत्तों की कनकैया रे॥
यारों इस शहर में आकर,
भूले गाँव गँवैया रे॥
बिस्तर छोड़ो सूर्योदय से पहले,
भास्कर का वंदन मत भूलो।
पश्चिमी हवा की साँसें लेकर,
मस्तक का चंदन मत भूलो।
माता-पिता, गुरु का वरदहस्त,
अपने सिर लेना मत भूलो।
दान किया तुमने बलि के सम,
पर गाय को रोटी देना मत भूलो।
वट जैसे धरा को कसके पकड़ो,
फिर मिलेगी शीतल छैंया रे॥
यारों इस शहर में आकर,
भूले गाँव गँवैया रे॥