मातृत्व की धारा
राजेश शुक्ला ‘छंदक’बादल बरसते जब धरा पर,
मरुभूमि भी फिर मुस्कराये।
मातृत्व की धारा बहे जब,
शिशु के तन में जान आये॥
अमृत के घट हैं ये मिले,
ब्रह्मा की रचना है अनूठी।
वार शिशु पाँवों के सहकर,
भोजन दें जग ना कोई देखी।
निज बाँहों का आधार लेकर,
स्तन से अपने है सटाये॥ मातृत्व . . .
आँख खोली जब धरा पर,
माँ का तन निज पास पाया।
स्वच्छंद जीवन जी रहा वह,
कष्ट न कतिपय पास आया।
आवरण अपनी बाँहों का देकर,
ममता को अपनी वह लुटाये॥ मातृत्व . . .
बूँद टपकी घट से ज्यों ही,
ममता छलकती दिख रही।
जैसे प्रकृति माधुर्ययुत की,
अनुपम कथा को लिख रही।
मातृत्व जग का तन में भर,
शिशु मुख को स्तन से लगाये॥ मातृत्व . . .