साँसों का आना जाना है

15-09-2022

साँसों का आना जाना है

राजेश शुक्ला ‘छंदक’ (अंक: 213, सितम्बर द्वितीय, 2022 में प्रकाशित)

साँसों का आना जाना ही, 
इस घर का ताना-बाना है। 
पतवार को सीधी हवा मिले, 
यह नहीं किसी ने जाना है॥
 
नाविक कठिन परिश्रम से, 
नाव को अपनी खेता है। 
इस पर सवार हैं बहुत हुए, 
कुछ ना कुछ इनसे लेता है। 
ध्येय सभी का है निश्चित, 
उस पार सभी को जाना है॥
 
नदिया मद्धम गति से कभी, 
तीव्रता अपने में लाती है। 
व्याकुल राह देखता है कोई, 
अविलम्ब वहीं पर जाती है। 
नदिया की गति का भेदन कर, 
उसको उस तट तक जाना है॥
 
लोहे को पावक में तपा-तपा, 
फिर जतन से उसे मोड़ता है। 
ऊष्णता को आभाषित कर, 
दोनों किनारों को जोड़ता है। 
चाहे तपन तीव्रता को पार करें, 
पर लक्ष्य तक उसको जाना है॥
 
जोड़-जोड़ सब जोड़ दिया, 
कुछ अप्राप्य ना बचा यहाँ। 
नज़र जहाँ तक गयी मेरी, 
सब कुछ अपना दिखा यहाँ। 
एक क्षण को चक्षु बंद हुए, 
फिर ये जीवन एक बहाना है॥

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