कैसे भी हो संतान कोई
राजेश शुक्ला ‘छंदक’माँ यशोदा सी बनने को,
पहले तो व्याकुल होती थी।
कैसे भी हो संतान कोई,
यह रटते-रटते सोती थी॥
घाव भरे जो मन में थे,
औषधि बन घड़ी एक आई।
मोबाइल फिर घनघना उठा,
चपला सी काल एक आई।
प्रस्ताव सुना जो माँ बनने का,
फिर अतीत में खोती थी॥ कैसे भी हो . . .
ऊहापोह में दिन गुज़रा,
फिर जैसे तैसे रात कटी।
आख़िर निर्णय कर डाला,
जो होनी थी अब वही घटी।
बेचा गौरव एक नारी का,
पाहन उर में कुछ बोती थी॥ कैसे भी हो . . .
कोख का सौदा कर डाला,
निर्धनता अपनी मिटाने को।
लाचार खड़े पति को पाया,
आयी फिर कष्ट बँटाने को।
नोटों की गड्डी सिरहाने रख,
वह बोझिल मन से सोती थी॥ कैसे भी हो . . .
मातृत्व और अपनेपन की,
बिन उपसंहार कहानी बनी।
कोख जिसे नौ मास रखा,
वह संतान आज बिरानी बनी।
निःसंतान की काली चादर ओढ़े,
कुंठित मन को वह ढोती थी॥ कैसे भी हो . . .