तब ढोलक की थाप, थम गई

01-12-2025

तब ढोलक की थाप, थम गई

शक्ति सिंह (अंक: 289, दिसंबर प्रथम, 2025 में प्रकाशित)

 

रईस खान हट्टा-कट्टा, छह फ़ीट का 30 वर्षीय नौजवान था। गाना गाने में वह उस्तादों का उस्ताद माना जाता था। भले ही वह मुस्लिम परिवार से था, परन्तु हिंदू मित्रों के बीच या धार्मिक अवसरों पर वह देवी-देवताओं के भजन और आरती बड़े भाव से गाता था। गाँव में रामलीला की तैयारी ज़ोरों पर थी। तभी ठाकुर टोले से नाई संदेश लेकर उसके पिता रहमत खान के पास आया। 

“मास्टर साहब, ठाकुर साहब बुलावत हैं। कहत रहन कि रामलीला क संगीत आपके बिना अधूरा हव।” 

उस ज़माने में न फोन थे, न मैसेज। नाई और कहार ही संदेशवाहक का काम करते थे। रहमत मास्टर ने आवाज़ लगाई। 

“रईस . . . अरे बेटा, रईस . . . तैयार हो जा, ठाकुर साहब के घर चले के बा।” 

रईस बोला, “हाँ अब्बा, अरविंद बाबू भी कहत रहलन कि रामलीला क तैयारी करे के बा।” 

बाप-बेटा जल्दी से तैयार होकर ठाकुर जगदीश सिंह के घर पहुँचे। उनके छोटे भाई अरविंद सिंह रईस के घनिष्ठ मित्र थे। जब भी कोई दावत या जश्न होता था, तो रईस पूरे आयोजन की व्यवस्था सँभालता था। खाट पर ठाकुर जगदीश सिंह गंभीर मुद्रा में बैठे थे और मचिया पर रहमत मास्टर और रईस बैठे थे। 

ठाकुर साहब बोले, “मास्टर साहब, इस बार की रामलीला ऐसी होनी चाहिए कि आसपास के पचास गाँवों तक इसकी चर्चा पहुँचे। जब आपके कंठ से ‘रामचरितमानस’ के दोहे और चौपाइयाँ निकलती हैं, तो धर्म की सीमाएँ मिट जाती हैं। आपके ढोलक की थाप और हारमोनियम की धुन के बिना रामलीला अधूरा है।” 

“सब आप क कृपा हव, ठाकुर साहब,” रहमत मास्टर ने मुस्कुराते हुए कहा। 

“इस बार तो दस हज़ार की भीड़ की उम्मीद है।” 

रहमत मास्टर गाँव के प्राथमिक विद्यालय में अध्यापक थे और हर उत्सव में भक्ति-संगीत गाया करते थे। ठाकुर जगदीश सिंह शहर में बड़े अधिकारी हैं, गाँव में उनकी बड़ी प्रतिष्ठा है। हर साल वही रामलीला का आयोजन करवाते हैं। उनका भाई अरविंद गाँव में रहता और उनके रुत्बे का फ़ायदा उठाता था। 

रामलीला शुरू हुई। रहमत मास्टर और रईस के भक्ति-गीतों से मंच गूँज उठा। यह सचमुच अद्भुत था कि एक मुस्लिम पिता-पुत्र रामचरितमानस की गहराई तक उतर जाते थे। काश आज भी वैसा ही सौहार्द बना रहता! आज भी शहरी हवा गाँवों तक न पहुँची होती! रामलीला ने पूरे गाँव को एक सूत्र में बाँध दिया था। कुछ ही दिनों में आयोजन समाप्त हुआ। रावण का दहन हुआ, पर बुराई का अंत नहीं हुआ। केवल एक उत्सव मनाया गया। 

रईस की पत्नी हसीना और बेटा आरिफ, दोनों ही बहुत सुंदर थे। जब वे पान खाते, तो होंठ लाल होकर चुकंदर जैसे लगते थे। गाँव के लोग रईस और उसकी पत्नी की जोड़ी और प्रेम की बड़ी प्रशंसा किया करते थे। लड़का उसका प्राइमरी कक्षा में पढ़ता था। गाँव में हर जाति के लोग अलग-अलग हिस्से में एक साथ रहते थे। किसी भी टोले में किसी के यहाँ लड़का हुआ, तो मुन्ना की पत्नी ढोलक लेकर सोहर गाती दिख जाती थी। उसकी मधुर एवं उत्साह भरी आवाज़ दूर-दूर तक गूँजती है। गाँव में हर बिरादरी के लोग थे और सभी मिलजुल कर रहते थे। जब मुन्ना अपनी साइकिल पर पीछे पत्नी और आगे बच्चे को बैठाकर गीत गाते-झूमते मस्त मौला की तरह गाँव से निकलता था, तब उनकी सुंदरता की चर्चा गाँव की ठकुराइन और पंडिताइन भी करती थीं। 

रामलीला के बाद ठाकुर जगदीश सिंह शहर लौट गए और खेत-खलिहान की ज़िम्मेदारी अरविंद पर छोड़ गए। गाँव में हर कोई जगदीश की जितनी इज़्ज़त करता था, अरविंद से उतनी ही नफ़रत करता था। एक दिन ख़बर फैली कि किसी बात पर रईस खान और अरविंद सिंह के बीच झगड़ा हो गया। अरविंद को अपने ठाकुर होने पर बहुत गर्व था और वह नीची जातियों के लोगों का अपमान किया करता था। झगड़े की सही वजह किसी को ज्ञात न थी, पर कोई गंभीर मुद्दा अवश्य रहा होगा क्योंकि दोस्ती गहरी थी। वैसे भी चींटी वहीं लगती है, जहाँ मिठास अधिक होती है, तीखे स्थान पर जाने से तो सभी बचना चाहते हैं। 

गाँव की रामलीला को एक साल बीत गया। फिर से रामलीला की तैयारियाँ शुरू हुईं। रहमत मास्टर ने अपनी पुरानी ढाल (मोटे फ़्रेम का चश्मा) फिर से पहन ली और गाना शुरू कर दिया। गाँव फिर से रामलीलामय हो गया। शाम होते ही लोग ठाकुर साहब के दरवाज़े पर इकट्ठा होने लगे। उस रात जब रईस ढोलक बजाता, तो पूरा वातावरण ‘जय श्रीराम’ के स्वर से गूँज उठता। एक ओर गाँव राम में डूबा हुआ था, दूसरी ओर नियति एक नई कहानी लिख रही थी। रामलीला की आख़िरी रात थी। रावण का दहन होना था और असत्य पर सत्य की जीत का पर्व था, लेकिन बिना किसी के कानों-कान ख़बर, सत्य और अच्छाई स्वयं पराजित होने की तैयारी में थे। कभी-कभी मनुष्य, मनुष्य होकर भी, मनुष्य क्यों नहीं रह जाता? रामलीला के मेले से लौटे लोग थके-माँदे सो गए। सुबह कब हुई, इसका पता ही न चला। 

रात के क़रीब तीन बजे थे। पूरब से रोने-चीखने की आवाज़ आ रही थी। एक तो रामलीला की थकान, ऊपर से कोहरे की शुरूआत के कारण कुछ लोग ही उठ पाए थे। उनमें से कुछ लोग लाठी लेकर भागे। आवाज़ रहमत मास्टर के घर से थी। वहाँ पहुँचकर लोगों ने जो दृश्य देखा, वह गाँव में पहली बार ही था। वहाँ रहमत मास्टर उस चट्टान की तरह स्थिर थे, जो भयानक तूफ़ान के बाद तबाही को देखकर ख़ामोश हो गया हो। 

बरामदे में हसीना ख़ून से लथपथ पड़ी थी। माथे से नाक तक गड़ासे का गहरा घाव, पर साँसें चल रही थीं। अंदर कमरे में रईस पड़ा था। उसका शरीर आधा खाट पर और आधा नीचे लटक रहा था। उसके कान के आर-पार सूअर मारने वाला सूजा धँसा हुआ था। उसकी साँसें बंद थीं, धड़कनें थम गई थीं। आरिफ लकड़ी के बक्से में छिपा मिला। शायद माँ-बाप ने उसे बक्से में छिपा दिया था, इस कारण वह बच गया। हत्यारे जा चुके थे। ईश्वर ने जिस धरती को इतना ख़ूबसूरत बनाया था, उसे कुछ दरिंदों ने बदसूरत कर था। जब आरिफ को निकाला गया, तो उसकी करुण आवाज़ से वातावरण और भी विकारमय हो उठा। 

वह बार-बार कह रहा था, “पापा-मम्मी . . . पापा-मम्मी . . . चार लोग थे . . . अरविंद चाचा भी थे . . . मेरे पापा-मम्मी को मार दिया . . . ” 

सुबह होते-होते पुलिस पहुँची। जाँच में पता चला कि यह हत्या अरविंद सिंह और उसके तीन साथियों ने की थी और चारों फ़रार थे। पुलिस ने काफ़ी खोजबीन के बाद उन्हें पकड़ लिया, मगर भाई के ऊँचे पद, ऊँची पहचान और पैसों के बल पर कुछ ही दिनों में वे सब छूट गए। बापू का सपना और बाबा साहेब का क़ानून उसी प्रकार टूट गया, जैसे आज हर दिन कहीं न कहीं टूटते आप भी देख सकते हैं। गाँववालों ने देखा था, अदालत में एक मूर्ति थी, जिसकी आँखों पर काली पट्टी थी। रहमत मास्टर न जाने कितनी बार बच्चों को पढ़ाते समय इस न्याय की देवी के बारे में बता चुके थे। 

उन्हें अदालत में बैठे हुए अपने वाक्य याद आए थे, “बच्चों, क़ानून की देवी की आँखों पर पट्टी इसलिए होती है ताकि यह बताया जा सके कि क़ानून सभी के साथ एक समान व्यवहार करता है, चाहे वह अमीर हो, ग़रीब हो, ताक़तवर हो या कमज़ोर हो। बाद में सुप्रीम कोर्ट में नई मूर्ति से यह पट्टी हटा दी गई है, जो यह दर्शाता है कि अब भारत का क़ानून अंधा नहीं है, बल्कि उसकी आँखें खुली हुई हैं।” 

परन्तु रहमत मास्टर को लग रहा था कि हकीक़त में आज भी क़ानून की देवी के आँखों पर पट्टी लगी हुई है। रहमत मास्टर जब अदालत से बाहर निकले थे, तो पूरी तरह से टूट चुके थे। ऐसा लग रहा था मानो जीवन भर उन्होंने जो भी सिखाया, वह सब निरर्थक हो गया। जीवन भर उन्होंने जो भी गाया, वह भी निष्फल हो गया। 

अब गाँव में रामलीला नहीं होती क्योंकि अब गीत गाने वाला न रईस रहा और न ही रहमत मास्टर में अब गाने की शक्ति बची थी। सब यही सोचते कि जब रामलीला गाने वाले के साथ ऐसा हो सकता है, तो बाक़ी लोगों के साथ क्या-क्या हो सकता है? कहीं न कहीं लोगों की आस्था को भी चोट लगी थी। उधर कई महीने अस्पताल में बिताने के बाद हसीना बच गई और अपनी उजड़ी माँग और बच्चे के साथ शहर में अपने मायके चली गई। रहमत मास्टर गाँव में रखकर उसे बीते समय की याद नहीं दिलाना चाहते थे इसलिए उन्होंने ही उसे शहर जाने के लिए बाध्य किया था। 

रहमत मास्टर अब किसी उत्सव में नहीं गाते। वे गाँव में पागलों की तरह घूमते रहते हैं और बस इतना कहते रहते हैं, “राम ज़रूर आएँगे . . . रईस उन्हें लेने गया है . . .” नए जन्मे बच्चे उन्हें पगला कहकर पुकारते हैं और यह सुनकर वह हँस देते हैं। मुझे आज भी उस हँसी के पीछे की भयानक वेदना दिखती है, जिसे वह भुलाने का प्रयास करते हैं। 

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