साधुओं की भविष्यवाणी

01-10-2025

साधुओं की भविष्यवाणी

शक्ति सिंह (अंक: 285, अक्टूबर प्रथम, 2025 में प्रकाशित)

 

शहर की हवा अजीब-सी बेचैनी से भरी हुई थी। सड़कें बंद थीं, दुकानों के शटर गिरे पड़े थे। जगह-जगह पुलिस का पहरा था, फिर भी माहौल में डर और तनाव छाया था। कारण था, भाषा के नाम पर दंगे। कहीं ग़रीबों के घर जल रहे थे, तो कहीं किसी सरकारी दफ़्तरों को आग के हवाले किया जा रहा था। कहीं आठ-दस लोग मिलकर एक अकेले को इसलिए मार रहे थे क्योंकि वह उनकी भाषा नहीं जानता था। पुलिस थी, मगर उसे कुछ करने का अधिकार नहीं था। लोग अपने काम पर जाने से डर रहे थे। यहाँ तक कि छोटे-छोटे बच्चों को स्कूल भेजने में लोग डरने लगे थे। इसलिए स्कूल और कॉलेज बंद थे। 

इसी बीच ख़बर फैली कि साधु सत्यानंद की मंडली शहर में आई है। वे सभी दीर्घायु थे और इससे पूर्व सन् 1946 में यहाँ आए थे। उनके आने की ख़बर सुनकर लोग चौंक उठे। यह वही साधु थे, जो वर्षों से अलग-अलग स्थानों पर घूमते रहे और अपनी साधना तथा अनुभव से समाज को दिशा देते रहे। सबसे वृद्ध साधु, महात्मा सत्यानंद, अपने साथियों के साथ धीमे क़दमों से नगर में प्रवेश कर रहे थे। उनके झुर्रियों से भरे चेहरे पर शान्ति का तेज था, पर आँखों में गहरी चिंता तैर रही थी। उन्हें देखते ही लोग उनके चारों ओर इकट्ठा होने लगे। 

सत्यानंद जी ने एक पल सबको देखा, फिर बोले, “आज की यह स्थिति मुझे बहुत पुरानी याद दिला रही है। 1946 में मैंने देखा था कि हिंदू और मुस्लिम धर्म के नाम पर कैसे लड़ते थे। तब मैंने चेतावनी दी थी कि यदि लोग मानवता और देशप्रेम भूलते रहे, तो यह देश एक दिन धर्म के नाम पर बँट जाएगा। और देखो, 1947 में वही हुआ। देश दो टुकड़ों में बँट गया।” 

उनकी आवाज़ भारी थी। सुनते ही वहाँ खड़े कई लोग सिहर उठे। कुछ शुभचिंतक नेता और बुद्धिजीवी आगे आए। उनमें से एक ने विनम्रता से कहा, “गुरुदेव! उस समय आपकी वाणी को अनसुना कर दिया गया था और देश ने उसकी बड़ी क़ीमत चुकाई। आज भाषा के नाम पर फिर वही आग भड़क रही है। हमें बताइए, इस संकट से मुक्ति कैसे मिले?” 

सत्यानंद जी ने थोड़ी देर मौन साधा। फिर शांत स्वर में बोले, “यदि स्वार्थी लोग अपने स्वार्थ छोड़कर न सुधरे, तो यह देश केवल दो नहीं, अनेक टुकड़ों में बँट जाएगा। धर्म ने पहले बाँटा, अब भाषा बाँट रही है। बचने का एक ही उपाय है, जैसे आप चुनाव से अपना नेता चुनते हैं, वैसे ही आप चुनाव द्वारा एक भाषा को राष्ट्रभाषा चुन लें। उस भाषा का सभी सम्मान करें, जैसे आप राष्ट्रध्वज और राष्ट्रगीत का करते हैं। याद रखो, भाषा जोड़ने का माध्यम है, तोड़ने का नहीं।” 

उन्होंने आगे कहा, “सिर्फ भाषा का सम्मान ही नहीं, शिक्षा और रोज़गार भी सबसे बड़ी आवश्यकता है। जब तक लोग बेरोज़गार रहेंगे, उनके पास दंगे-फसाद के लिए समय रहेगा। यदि हर हाथ को काम और हर मन को शिक्षा मिलेगी, तो कोई भी झगड़े की ओर नहीं जाएगा।” 

भीड़ में ख़ामोशी छा गई। लोग साधु की वाणी को गंभीरता से सुन रहे थे। कुछ की आँखों में आँसू थे। शुभचिंतकों ने साधुओं के चरणों में झुककर कहा, “गुरुदेव! इस बार हम आपकी बात अनसुनी नहीं करेंगे। हम इसे अमल में अवश्य लाएँगे।” 

साधु मंडली वहाँ से विदा हो गई, लेकिन उनके शब्द शहर की गलियों में गूँजते रहे। समय बीतता गया। वही शुभचिंतक आगे चलकर शासन की बागडोर सँभालने लगे। उन्होंने साधु मंडली के सुझावों को पूरे देश में लागू किया। एक भाषा को राष्ट्रीय स्तर पर सम्मान दिया गया, साथ ही शिक्षा और रोज़गार की योजनाएँ दूर-दराज़ तक पहुँचाई गई। इसका परिणाम यह हुआ कि धीरे-धीरे भाषा के नाम पर होने वाले दंगे थम गए। लोग एक-दूसरे की भाषाओं का सम्मान करने लगे। अब न लोगों के पास व्यर्थ करने के लिए समय था और न ही भाषा की राजनीति की जगह थी। देश की एकता और शक्ति फिर से जगने लगी। 

आज भी जब लोग साधु मंडली को याद करते हैं, तो कहते हैं, “वे केवल साधु नहीं थे, वे देवदूत के रूप में इस देश की चेतना की आवाज़ थे। उनकी वाणी ने हमें विभाजित होने से बचा लिया।” 

वहीं कुछ पागल झूम-झूमकर गीत गा रहे थे:

“हिंदू–मुस्लिम के नाम पर बाँटे, अब किसकी रोटी खाओगे? 
भाषा का मुद्दा हाथ लगा है, कब तक हमें पागल बनाओगे? 
जब-जब नफ़रत के बीज बोओगे, सत्यानंद ही बचाने आएँगे, 
तुम सब पागल हो, पर हम पागल इनकी बातों में नहीं आएँगे।” 

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