स्वार्थ से परे सेवा: ‘समाज सेवा’ निबंध का चिंतनात्मक मूल्यांकन

15-08-2025

स्वार्थ से परे सेवा: ‘समाज सेवा’ निबंध का चिंतनात्मक मूल्यांकन

शक्ति सिंह (अंक: 282, अगस्त प्रथम, 2025 में प्रकाशित)

 

समीक्षित रचना: ‘समाज सेवा’-निबंध विधा 
लेखक: पदुमलाल पन्नालाल बख्शी
समीक्षक: शक्ति सिंह

पदुमलाल पन्नालाल बख्शी हिंदी निबंध साहित्य के एक प्रखर, संवेदनशील और विचारशील लेखक माने जाते हैं। उनकी रचनाओं में गहराई, स्पष्टता और आत्मीयता का अद्भुत मेल दिखाई देता है। ‘समाज सेवा’ नामक यह निबंध भी उनके चिंतनशील दृष्टिकोण का प्रतिनिधित्व करता है। इस निबंध के माध्यम से लेखक ने पाठकों के समक्ष समाज सेवा की वास्तविक परिभाषा, उसके स्वरूप और उसके महत्त्व को अत्यंत प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत किया है। 

निबंध की कथा एक सामान्य से प्रसंग से आरंभ होती है। लेखक एक दुकान में बैठे हैं, जहाँ कुछ अन्य व्यक्ति भी उपस्थित हैं। बातचीत का विषय है, बाबू गप्पूराम नामक व्यक्ति की मृत्यु। गप्पूराम एक प्रतिष्ठित और सम्मानित नागरिक माने जाते थे, जिन्होंने अपने जीवन में कई सामाजिक कार्य किए थे। पहले तो सभी लोग उनके कार्यों की प्रशंसा करते हैं, लेकिन जैसे-जैसे चर्चा आगे बढ़ती है, कुछ कटाक्ष और उपेक्षापूर्ण बातें भी सामने आती हैं। लेखक को यह अनुभव होता है कि किसी भी व्यक्ति के जीवन का असली मूल्यांकन उसकी मृत्यु के समय समाज करता है। वहीं उसकी सच्ची समाज सेवा और व्यक्तित्व की परीक्षा होती है। यह प्रसंग लेखक के भीतर आत्मचिंतन की लहरें उत्पन्न करता है। 

इस आत्मचिंतन से प्रेरित होकर लेखक विचार करते हैं कि जब हमारी मृत्यु होगी, तब लोग हमें किस रूप में याद करेंगे? क्या हमारी सेवा भावना किसी के जीवन को स्पर्श कर सकी होगी? इसी क्रम में वे समाज सेवा के विभिन्न रूपों की चर्चा करते हैं। जैसे-किसी दुखी व्यक्ति को सहारा देना, किसी भूले हुए को सही राह दिखाना, किसी का अज्ञान दूर करना, किसी की मानसिक पीड़ा को कम करना आदि। लेखक कहते हैं— “यदि हम किसी एक का अज्ञान दूर कर सकें, तो हम किसी हद तक समाज की सेवा कर चुके।” यह कथन समाज सेवा को केवल भौतिक या आर्थिक मदद तक सीमित नहीं रखता, बल्कि उसे मानसिक, बौद्धिक और भावनात्मक सहायता के रूप में भी विस्तारित करता है। 

लेखक समाज की परिभाषा स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि जब मनुष्य मिलकर अपने हित और उन्नति के लिए एकत्र होते हैं, तभी समाज का निर्माण होता है। इस समाज में जब कोई व्यक्ति पिछड़ता है या दुखी होता है, तो उसकी पीड़ा केवल उसकी नहीं रहती, बल्कि समाज की ज़िम्मेदारी बन जाती है। लेखक यह भी स्वीकार करते हैं कि मनुष्य में स्वार्थबुद्धि के साथ-साथ परार्थबुद्धि भी होती है, जो उसे सेवा की ओर प्रेरित करती है। 
‘सेवा’ को लेखक परिभाषित करते हैं—दूसरों का दुख दूर करना, उन्हें सुख पहुँचाना और बिना किसी स्वार्थ के ऐसा करना। जब यह सेवा व्यापक समाज के लिए होती है, तब वह ‘समाज सेवा’ कहलाती है। लेखक इस बात पर विशेष बल देते हैं कि सच्ची समाज सेवा वह होती है जो केवल किसी व्यक्ति विशेष को सुख देने के लिए नहीं, बल्कि अधिकाधिक लोगों को अधिकतम सुख पहुँचाने के लिए की जाए। 

लेखक समाज सेवक के गुणों की चर्चा करते हुए कहते हैं कि जो व्यक्ति कष्ट सहकर भी दृढ़ता से समाज के कल्याण के कार्यों में लगा रहता है, वही सच्चा समाज सुधारक होता है। अंततः ऐसे ही लोगों की सत्यता की विजय होती है और समाज उन्हें सम्मान देता है। लेखक नवयुवकों से आग्रह करते हैं कि वे दीन-दुखियों, असहायों, अनाथों और अज्ञ लोगों की सेवा करें। इससे न केवल समाज का विकास होगा, बल्कि स्वयं उन युवकों के भीतर भी उत्कृष्ट गुणों का विकास होगा। 

निबंध के अंत में लेखक एक प्रसंग के माध्यम से यह कटाक्ष करते हैं कि किस प्रकार आज के स्वार्थी समाज में सेवा जैसे महान कार्य भी विस्मृत कर दिए जाते हैं। एक व्यक्ति, जिसने अपने जीवन में कई लोगों की सहायता की थी, मृत्यु के बाद केवल इस बात के लिए याद किया जाता है कि वह किसी से कुछ धन ले गया था। लेखक इस प्रसंग के माध्यम से यह व्यंग्य करते हैं कि स्वार्थी दृष्टिकोण के कारण सेवा के भाव भी तिरोहित हो जाते हैं। 

इस कथानक के माध्यम से लेखक समाज सेवा को केवल उपदेशात्मक बात नहीं बनाते, बल्कि एक जीवंत अनुभव के रूप में प्रस्तुत करते हैं। उनकी संवेदनशील दृष्टि, जीवन के साधारण अनुभवों को गहन सामाजिक और मानवीय मूल्यों से जोड़कर उन्हें अत्यंत प्रभावशाली बना देती है। 

निबंध की भाषा सरल, भावप्रवण और साहित्यिक है। इसमें आत्मकथात्मक शैली और संवादात्मक प्रवाह के कारण पाठक सहज ही लेखक के विचारों से जुड़ जाता है। निबंध की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यह उपदेश नहीं देता, बल्कि सोचने के लिए प्रेरित करता है। लेखक ने सेवा के उस रूप को प्रस्तुत किया है, जो आत्मा से उत्पन्न होता है और मानवता के विकास का आधार बनता है। 

इस प्रकार, ‘समाज सेवा’ निबंध समाज, सेवा और आत्मचिंतन की त्रिवेणी है, जो पाठक को न केवल सामाजिक दृष्टि देती है, बल्कि आत्मविकास की दिशा भी दिखाती है। यह निबंध हिंदी गद्य साहित्य में एक प्रेरणादायक और मूल्यपरक रचना के रूप में प्रतिष्ठित है। 

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