आत्म-व्यथा

01-07-2025

आत्म-व्यथा

शक्ति सिंह (अंक: 280, जुलाई प्रथम, 2025 में प्रकाशित)

 

मैं कौन हूँ? 
रोज़ सुबह घर से चल देता हूँ, 
बच्चों को कुछ सिखाने, 
पर विद्यालय में पहुँचते ही 
अपने को मुनीम बना पाता हूँ। 
छोड़ पढ़ाई-लिखाई, 
काग़ज़ का ग़ुलाम बन जाता हूँ। 
न जाने क्यों बड़ा सहमा-सा रहता हूँ। 
 
मैं कौन हूँ? 
क्या पढ़ाना है, रोज़ का प्लान बनाना है। 
सप्ताह भर की पढ़ाई को, काग़ज़ पर दिखाना है। 
हर महीने और साल के कार्यक्रम 
के बिना नहीं गुज़ारा है। 
लिखते-लिखते रीढ़ की हड्डी का
अब नहीं सहारा है। 
एक . . .का धर्म फिर भी निभाना है। 
 
मैं कौन हूँ? 
मतदान और जनगणना भी करानी है, 
घर-घर जाकर संख्या भी गिनानी है। 
साक्षर-असाक्षर की संख्या भी बतानी है, 
कितने हिंदू, कितने मुस्लिम पता लगाना है। 
जनरल, ओबीसी, एससी, एसटी का, 
हाल सरकार को काग़ज़ पर सुनाना है। 
. . . .बनने का क़र्ज़ अब चुकाना है। 
 
मैं कौन हूँ? 
क्लर्कों का आदेश पूरा करना है, 
एक दिन में सरल फ़ॉर्म भरना है। 
आधार कार्ड बच्चों से वसूलना है, 
जूता-चप्पल खो जाए तो, 
घंटों बैठ कैमरे में ढूँढ़ना है। 
माँ-बाप को रोज़ ई-मेल करना है, 
किसी भी तरह से उनको ख़ुश करना है। 
 
मैं कौन हूँ? 
हर महीने परीक्षा देता हूँ, 
ट्रेनिंग पर ट्रेनिंग लेता हूँ, 
शान्ति पूर्वक जीवन जीता हूँ, 
हर पल नौकरी को बचाता हूँ। 
लगता नहीं पढ़ाने आया हूँ, 
बल्कि ख़ुद ही पढ़ने आया हूँ। 
सच कहूँ, तो सम्मान बचाने आया हूँ। 
 
मैं कौन हूँ! 
इसके बाद भी कक्षा में जम कर पढ़ाता हूँ, 
डॉक्टर-इंजीनियर अधिकारी बनाता हूँ। 
सुबह से शाम तक लगा रहता हूँ फिर भी 
तीन साल आठ हज़ार रुपए में गुज़ारता हूँ। 
क्या कहूँ दोस्तों, बस दो रोटी से पेट भर लेता हूँ। 
शिक्षक होने पर भी दुनिया से सीख लेता हूँ। 
अमीरी के ग़ुरूर में जो व्यवहार मिलता है, 
उनकी नादानी समझ उसे भुला देता हूँ। 
मैं एक शिक्षक हूँ। 

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