दंगों की राख में सुलगता प्रेम और इंसानियत: चौरासी 

15-08-2025

दंगों की राख में सुलगता प्रेम और इंसानियत: चौरासी 

शक्ति सिंह (अंक: 282, अगस्त प्रथम, 2025 में प्रकाशित)


समीक्षित पुस्तक: चौरासी (उपन्यास) 
लेखक: सत्य व्यास 
प्रकाशक: हिन्द युग्म
पृष्ठ संख्या: 159
मूल्य: ₹199
शक्ति सिंह
एमाज़ॉन लिंक: चौरासी

‘चौरासी’ लेखक सत्य व्यास की तीसरी किताब है। सत्य व्यास नई वाली हिंदी तथा वर्तमान पीढ़ी के प्रतिनिधि लेखक हैं। ‘चौरासी’ उपन्यास 2018 में प्रकाशित हुआ। ‘ग्रहण’ नाम से इसका फिल्मांकन भी किया जा चुका है। ‘चौरासी’ की समीक्षा से पूर्व यह जान लेना आवश्यक है कि यह उपन्यास वर्ष 1984 में प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गाँधी की हत्या के बाद पूरे देश में सिख संप्रदाय के प्रति जिस घटना एवं प्रतिशोध ने जन्म लिया, उसे वर्तमान झारखंड का बोकारो ज़िला भी अछूता न रहा। उपन्यास की कहानी में पंजाब के अमृतसर से 1654 किलोमीटर की दूरी पर स्थित बोकारो में सिखों के साथ जो अमानवी व्यवहार किया जाता है, उससे सभ्यता का दंभ भरने वाली समस्त मानव जाति लज्जित होती है। उपन्यास की कहानी में एक ऐसे प्रेम का वर्णन है, जो मनुष्य को मनुष्यता का पाठ सिखाता है। 

पुस्तक के मुख्य पृष्ठ पर लाल ख़ून के बीच एक प्रेमी का अधूरा चित्र है। लाल ख़ून के धब्बे हमें सोचने के लिए विवश करते हैं कि दंगे, रक्तपात एवं युद्ध का अंत हमेशा ही भयावह होता है और इसकी भरपाई निर्दोषों को अपने रक्त से करनी पड़ती है। उपन्यास में जिस तरह से अध्यायों का नाम रखा गया है, वह स्वतः अध्याय में निहित घटना को व्यक्त करने में सक्षम हैं। अध्यायों का नाम रोचक एवं आकर्षक है। जैसे: दुखवा सुनावे नगरिया सखी री, सखी री! पिया दिखे कल भोर, सखी री, पियु नहीं जानत प्रेम, मैं कर आई ठिठोल सखी री, पियु का भेद न पाऊँ सखी री, सखी अब विदा की बेला। इस तरह उपन्यास में कुल 19 अध्याय हैं। उपन्यास की कथावस्तु एवं लेखन पद्धति कुछ ऐसी है कि एक बार पाठक पढ़ना आरंभ करेगा, तो अंत किए बिना न रह पाएगा और सबसे बड़ी बात यह है कि कहानी का अंत उसे और भी बेचैन कर देगा। लेखक ने उपन्यास का अंत पाठक की सोच पर छोड़ा है।         

उपन्यास में पात्र के नाम पर कुल चार पात्रों को लेखक प्रमुख मानते हैं, जो सबसे पहला और प्रमुख पात्र है, वह 23 वर्षीय ऋषि है। बचपन में ही साँप काटने से उसकी माँ का देहांत हो गया और 2 साल पहले पिता बोकारो स्टील प्लांट में तार काटते समय चल बसे। पिछले दो वर्षों से बोकारो स्टील कंपनी के प्रशासनिक भवन के बाहर वह पिता की जगह अनुकंपा पर नौकरी पाने के लिए धरना कर रहा है और ट्यूशन पढ़ाकर अपना ख़र्च निकलता है। महल्ले की सभी समस्याओं का समाधान केवल ऋषि के पास मौजूद है। लेखक उसके व्यक्तित्व के बारे में उसे पेचीदा कहते हैं क्योंकि अपने महल्ले में वह जितना ही सीधा एवं सरल है, महल्ले के मोड़ से बाहर निकलते ही वह उतना ही उच्छृंखल, उन्मुक्त, निर्बाध और उद्दंड है। धरने के दौरान प्रशासनिक अधिकारियों को वह मिमियाने के लिए मजबूर कर देता है। उसी समय स्थानीय नेता से उसकी मुलाक़ात होती है। ऋषि अपनी जान-पहचान से उपन्यास के दूसरे पात्र छाबड़ा साहब का अटका हुआ पैसा निकलवा देता है, जिसके कारण छाबड़ा साहब अपने घर का नीचे वाला कमरा उसे किराए पर दे देते हैं। ये पंजाब के मोगा के रहने वाले हैं और रिश्तेदारों के आपसी तनाव के कारण वह बोकारो आकर कैंटीन चलाते हैं। उपन्यास का तीसरा किरदार छाबड़ा साहब की बेटी मनु है मतलब मनजीत छाबड़ा, जो बी.ए. प्रथम वर्ष की छात्रा है और प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करती है। वह ऋषि से ट्यूशन पढ़ना चाहती है और इसी दौरान दोनों में प्रेम हो जाता है। उपन्यास का चौथा और सबसे महत्त्वपूर्ण पात्र साल 1984 का बोकारो शहर है। उपन्यास के पहले अध्याय ‘दुखवा सुनावे नगरिया सखी री’ में बोकारो शहर अपना परिचय देते हुए कहता है, “अभिशप्त यूँ कि आज़ादी के 25 साल बाद भी 3 अक्टूबर 1972 को पहला फावड़ा चलने से पहले तक मुझे कौन जानता था। उद्योगों में विकास खोजते इस देश को मेरी सुध आई। देश की प्रधानमंत्री ने मेरी छाती पर पहला फावड़ा चलाया और मैं जंगल से औद्योगिक नगर हो गया। नाम दिया गया—‘बोकारो इस्पात नगर।’ पहली दफ़ा देश ने मेरा नाम तभी सुना। मगर दूसरी दफ़ा जब देश ने मेरा नाम सुना, तो प्रधानमंत्री की हत्या हो चुकी थी और मैं शर्मसार हो चुका था। मैं आपको अपनी कहानी सुना तो रहा हूँ; लेकिन मैंने जानबूझकर कहानी से ख़ुद को अलग कर लिया है। इसके लिए मेरी कोई मजबूरी नहीं है। पूरे होशो-हवास में किया गया फ़ैसला है। बस मैं चाहता हूँ कि मुझे और मेरे दुःख को आप ख़ुद ढूँढ़ें और यदि ढूँढ़ पाएँ, तो समझें कि आपके किए की सज़ा शहर को भुगतनी पड़ती है। तारीख़ किसी शहर को दूसरा मौक़ा नहीं देती।” (पृष्ठ-14)

बोकारो के इस कथन से कई प्रश्न उठते हैं कि मनुष्य अपने कुकृत्यों से स्वयं तो बदनाम होता ही है, साथ ही साथ पूरे शहर को इतिहास में बदनाम और कलंकित कर देता है। यह उपन्यास मात्र एक प्रेम-कथा न होकर ओछी की राजनीति का आईना है। युवाओं को भ्रमित कर समाज में अराजकता का वातावरण फैलाकर स्थानीय लोगों के बीच अपनी पहुँच एवं भय से कुर्सी की चाहत पूरा करने वाले स्वार्थी राजनेताओं का असली चेहरा हमारे समक्ष आता है और यह ज्ञात होता है कि दंगे होते नहीं हैं बल्कि कराए जाते हैं। 

उपन्यास का आरंभ मनु और ऋषि के प्रेम से होता है और समापन भी मनु और ऋषि के प्रेम से ही होता है। उपन्यास में प्रेम के साथ 1984 के दंगे का बहुत ही हृदय विदारक वर्णन है। उपन्यास में यह बताया गया है कि प्रेम नदी के उस जल की तरह होता है, जिसकी गहराई में व्यक्ति कब खींचा चला जाता है, उसे ख़ुद अहसास नहीं होता है और जब उस गहराई में पहुँच जाता है, तब उससे निकल पाना कहाँ सम्भव होता है। संयोग कुछ ऐसा बनता है कि ऋषि और मनु की नज़दीकियाँ बढ़ती जाती है। सत्य व्यास लिखते हैं: “समय जब प्रेम लिखता है, तो होनी बदलती जाती है और अवसर बनते जाते हैं।” (पृष्ठ-19) मनु और ऋषि कभी-कभी रूठ भी जाते थे और रूठने के बाद प्रेम और भी गहरा हो जाता है। सत्य व्यास ऋषि और मनु के प्रेम का जिस तरह से वर्णन करते हैं, उससे ऋषि जैसे अनेक युवाओं को प्रेम की शक्ति से परिचित कराना चाहते हैं क्योंकि मनु का प्रेम ही ऋषि को दंगों के बीच उपद्रवी होने से रोकता है। बोकारो के दंगे में मनु और ऋषि के प्रेम के कारण ही छाबड़ा साहब का परिवार ऋषि की पहली ज़िम्मेदारी बन जाता है। 

लेखक ने उपन्यास में उस स्थिति का भी वर्णन किया है, जब एक लड़की रात के अँधेरे में अपने आपको असुरक्षित महसूस करती है। मनु ऋषि के साथ जब परीक्षा देने जाती है, तब वापसी के समय दोनों में मनमुटाव हो जाता है और मनु अकेले ट्रेन में बैठकर दूसरे स्टेशन पर पहुँच जाती है और रात के समय में वह अपने आप को ट्रेन के बाथरूम में बंद करके सुरक्षित रखने का प्रयास करती है और तभी ऋषि वहाँ आ जाता है। ये हमारे देश में स्त्री सुरक्षा का सबसे अच्छा और बेहतर उदाहरण है। यह घटना दर्शाता है कि स्त्री आज भी असुरक्षित हैं। 

उपन्यास में एक तरफ़ ऋषि और मनु का प्रेम परिपक्व हो रहा था, तो दूसरी तरफ़ रमाकांत ठाकुर का सैलून देश दुनिया की ख़बरों के लिए सबसे बेहतर स्थान था। जैसे-जैसे शहर बढ़ रहा था, वैसे-वैसे रमाकांत ठाकुर की दुकान छोटी लगने लगी थी। उनके बग़ल में सतनाम सैनी की इलेक्ट्रॉनिक की दुकान थी, जिनके यहाँ काम करने वाले लड़कों की संख्या अनगिनत थी। रमाकांत ठाकुर की दुकान में पंजाब से आने वाली ख़बरों पर चर्चा चल रही थी। पंजाब की गरम राजनीति ने सभी का ध्यान आकर्षित कर लिया था। स्वर्ण मंदिर में सिखों ने डेरा डाल लिया था तथा फ़ौज की तरफ़ से गोलियाँ दागी जा रही थीं। सिख अपने धर्म के मंदिर पर हमला कैसे सहन करते थे? यह घटना 4 जून, 1984 की है। छाबड़ा साहब इस घटना से इतने उदास हो जाते हैं कि उस दिन कैंटीन नहीं जाते हैं और वे परिवार के साथ घर में काले कपड़े बाँधकर कर इस घटना का विरोध करते हैं। 

सत्य व्यास ने 1984 के छठ पूजा का वर्णन किया है, ऐतिहासिक दृष्टि से उस वर्ष 27 अक्टूबर से छठ पूजा शुरू होता है। इसी दौरान ऋषि और मनु एक दूसरे के और क़रीब आते हैं तथा अपने प्रेम को प्रकट करते हैं, परन्तु 31 अक्टूबर, 1984 के सभी समाचार पत्रों, रेडियो एवं दूरदर्शन पर ख़बर आई कि इंदिरा गाँधी के दो सरदार सुरक्षा कर्मियों ने 31 गोलियों से उनकी हत्या कर दी। इस ख़बर ने पूरे देश को हिला के रख दिया। लेखक ने उपन्यास में यह प्रश्न उठाया है कि कुछ लोगों के ग़लती की सज़ा पूरे क़ौम को देना कहाँ तक उचित है? पंजाब की दहकती आग बोकारो स्टील शहर तक पहुँच जाती है। बोकारो में रह रहे पंजाबी अपने परिवार और व्यवसाय के लिए चिंतित थे। दंगे के भड़कने की पूरी सम्भावना थी। लेखक सत्य व्यास ने उपन्यास में यह सोचने के लिए विवश किया है कि क्या ऐसे दंगों को रोका नहीं जा सकता है, परन्तु गंदी राजनीति करने वाले लोग ऐसे अवसरों का लाभ उठाकर तथा बेरोज़गार युवाओं को भ्रमित करके अपने स्वार्थ की पूर्ति करते हैं। 

बोकारो के स्थानीय नेता द्वारा युवाओं की बैठक ली जाती है। उस बैठक में ऋषि को भी शामिल किया जाता है। नेता पंजाबियों के प्रति सभी के मन में विष भरता है और कहता है: “देखो, अगर एक-एक आदमी ने चार-चार नहीं मारे, तो मान लेना कि दूध नहीं पेशाब पिलाया था तुम्हारी माँ ने। और पेशाब बह जाने के लिए ही होता है। कही हुई यह बात पूरे कक्ष को अवाक् कर गई। बात ने वहीं चोट की थी, जहाँ ध्येय कर यह बात कही गई थी। कमरे का माहौल उबाल पर था। कमरे के भीतर घुसे लोग उन्मादियों में तब्दील हो चुके थे। उन्हें अब अंतिम आदेश की प्रतीक्षा थी। अंतिम आदेश आया—जो सरदार मिले; जहाँ मिले मारो। खींच के मारो। निकालकर मारो। दौड़ा के मारो। घसीट के मारो। किसी से डरने की ज़रूरत नहीं है। फ़ैसला कर दो। कोई बीच में नहीं आएगा। पेट्रोल पंपों से, मिट्टी तेल के डिपो से, जो चाहिए, जितना चाहिए ले लो। बग़ल की मेज़ से अपने मुहल्ले के गद्दारों की लिस्ट उठाओ और साफ़ कर दो इस शहर को। फिर कह रहा हूँ जो चाहिए लो; मगर काम पूरा करो। वह दहाड़ा।”(पृष्ठ100) इस उपन्यास के माध्यम से लेखक घटिया राजनीति का वास्तविक चेहरा पाठकों के समक्ष रखते हैं। महात्मा गाँधी ने जिस आदर्श राजनीति का स्वप्न देखा था, 1984 आते-आते, उसने दम थोड़ दिया। 

उपन्यास में यह बताया गया है कि सच्चा प्रेम सही और ग़लत का निर्णय करने की क्षमता विकसित करता है। ऋषि के अनुसार कुछ लोगों की ग़लती के लिए सभी को सज़ा देना ठीक नहीं, परन्तु यह बात उसके मन तक ही सीमित रह जाती है क्योंकि भीड़ में विरोध करने से असफलता और हार की सम्भावना अधिक होती है इसलिए ऐसे अवसर पर विवेक से कार्य करने का संदेश है। ऋषि की मजबूरी है, दंगाइयों साथ रहने की लेकिन मनु और उसके परिवार को बचाने की ज़िम्मेदारी भी उसपर है। ऋषि अपनी सूझ-बूझ से मनु और उसके परिवार को बचाने में सफल होता है, परन्तु दंगे में वह चाह कर भी पागल गुरनाम, सेक्टर-2 की तरफ़ से भागने वाले लड़के, भुल्लर साहब, ड्राइवर सुक्खा, हरप्रीत सिंह और 14 साल की परिजाद लड़की, लाले और उसकी माँ, 74 वर्षीय सुरिंदर सिंह, सतनाम सैनी और उनके भतीजे नहीं बचा पाया। मानव द्वारा ही मानव का विनाश ऋषि को बार-बार संज्ञा-शून्य कर दे रहा था। रात भर दंगाइयों द्वारा लूट-पाट, नशा, हत्या और बलात्कार चलता रहा और इंसानियत शर्मसार होती रही। हरप्रीत सिंह की हत्या के बाद उनकी 14 वर्षीय मृत लड़की के साथ जो हुआ, उसने तो समस्त मानव जाति को ही कलंकित कर दिया और उपन्यास की वह घटना दिल को छू जाती है और आँखों से आँसू बहने लगते हैं। इस घटना का वर्णन सत्य व्यास ने जिस मार्मिकता से किया है, वह उनकी मज़बूत लेखनी की सबसे मजबूर सत्य है। दंगे का तीसरा लड़का कहता है, “हटो साले! अभी ज़िंदा-मुर्दा देखने का समय नहीं है। कहते हुए तीसरा, लड़की के मुर्दा जिस्म पर झुक गया। लड़की पहले मरी, इंसानियत थोड़ी देर बाद। तीसरे ने जब उठते हुए अंगड़ाई तोड़ी तो पाशविकता भी टूटकर रो रही थी।” (पृष्ठ123) इतने के बाद भी नेता ख़ुश नहीं था, उसे तो पूरा शहर चाहिए था। 

रात तक केवल मार-काट और हवस की पूर्ति हुई लेकिन ‘सखी री, भोर लुटेरी’ अध्याय में भोर के समय जिस तरह से लूट-पाट की गई, उसके सम्बन्ध में लेखक कहते हैं: “उन्माद रुका; मगर इस्मत और तिजारत लूट लेने के बाद। लूट दंगों की नाजायज़ औलाद है। अवसर कभी बन जाते हैं कभी बना लिए जाते हैं। मगर हर दंगों में लूट का जन्म होता ही है। नाजायज़ इसलिए भी कि लुटेरे महज़ लूट और नाश से मतलब रखते हैं।” (पृष्ठ139-140) 

दंगे के दो दिन बाद भारतीय सेना के आने से कर्फ़्यू लग जाता है और बचे हुए सिखों को बोकारो से पलायन करना पड़ा। छाबड़ा साहब अपने परिवार के साथ मोगा चले जाते हैं। ऋषि जिस प्रेम को बचाने के ख़ातिर दो दिन तक भूखे उन्मादियों के साथ भटकता रहा, वही मनु उससे दूर चली जाती है। मोगा में छाबड़ा साहब के रिश्तेदार उनसे कम, बोकारो के बिके घर के पैसे से अधिक लगाव रखते हैं। दो बार मनु के विवाह की बात वो लोग कर चुके थे, पर मनु मना कर देती है, जिससे कारण उसके चरित्र पर सवाल उठाया जाता है। लेखक सत्य व्यास उपन्यास में यह बताने का प्रयास करते हैं कि जिसकी केवल लड़की होती है, उसकी सम्पत्ति पर उस लड़की का अधिकार न होकर रिश्तेदार अपना अधिकार जमाने लगते हैं और स्त्री जाति पर लांछन लगाना अपना पौरुष समझते हैं। ऋषि की नौकरी बंगाल पुलिस में लग जाती है। उसके बाद दो बार वह मोगा मनु से मिलने और छाबड़ा साहब से उसका हाथ माँगने जाता है, पर वह ऋषि को ख़ाली हाथ भेज देते हैं। एक दंगे ने कितना कुछ बदल दिया था। कहीं शहर कलंकित हुआ, तो कहीं मानवता शर्मसार हुई। किसी का घर-व्यापार छूटा, तो किसी का प्रेम छूटा। चिट्ठी के माध्यम से ही दोनों एक-दूसरे के बारे में जान पाते थे। मनु की आख़िरी चिट्ठी ऋषि को मिली, जिसमें लिखा था, “सरदार मेरे, बुआ का अब-तब लगा है। उन्हें गंगा सागर की आस है। 14 को एक आख़िरी बार निकल रही हूँ। अगर भूला न हो तो हाथ थाम लेना और जो भूल चुका हो तो वहीं उसी समंदर से मुझे छान लेना। क्योंकि लौटकर मैं फिर नहीं आने की। तेरी ही . . .” (पृष्ठ154)     

उपन्यास का अंतिम अध्याय ‘सखी, अब विदा की बेला’ में छाबड़ा साहब अपनी बहन की अंतिम इच्छा पूरा करने गंगा सागर आते हैं। वहीं पर बार-बार छाबड़ा साहब की पत्नी को अहसास होता है, मानो गंगा सागर की उस भीड़ में ऋषि भी है। अचानक समुद्र में ज्वार आ जाता है और भगदड़ मच जाती है। उस भगदड़ में मनु खो जाती है। खोया-पाया केंद्र से इस घोषणा के साथ उपन्यास का अंत होता है—“एक लड़की। जिसका रंग गोरा, क़द मैझोला और नाम मनजीत छाबड़ा है; खो गई है। लड़की ने हरे फुलकारी की क़मीज़ पहन रखी है। हिंदी और पंजाबी बोल सकती है। जिस किसी सज्जन को मिले वह कृपा कर उसकी सूचना खोया-पाया केंद्र दें। सूचना देने वाले को उचित इनाम दिया जाएगा।” उपन्यास के अंत में अनुमानत: पाठक इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि मनु की माँ ने जिस ऋषि को भीड़ में देखा था, वह मनु को अपने साथ ले गया होगा। एक सकारात्मक सोच वाले पाठक को उपन्यास अंत अवश्य सुखद लगेगा। मुख्य पृष्ठ पर जिस ऋषि और मनु का चित्र है, वह भी उनके मिलन की कहानी कहता है। 

इस उपन्यास में लेखक का दृष्टिकोण पूर्णता स्पष्ट है। वह 1984 के दंगों, इंदिरा गाँधी की हत्या, बोकारो में आगजनी, लूटपाट एवं 69 सिखों की हत्या, सिखों का बोकारो से पलायन आदि घटना को माध्यम बनाकर ‘चौरासी’ उपन्यास की रचना करते हैं। ऐतिहासिक दृष्टि से उपन्यास की घटना तालमेल खाती है मिश्रा कमीशन रिपोर्ट के अध्याय 12 में जो लिखा है, लेखक ने उसे पुस्तक के आरंभ में ही साक्ष्य के रूप में दिया है—“श्रीमती इंदिरा गाँधी की मृत्यु का समाचार 31 अक्टूबर की शाम को बोकारो पहुँचा . . . सुबह में कर्फ़्यू लगाए जाने के बावजूद कई घटनाएँ हुई। यह निर्विवाद है कि महज़ कुछ घंटों के अंदर 69 सिखों की हत्या हुई। कई घर लूटे और जलाए गए तथा अनेक लोग हताहत एवं ज़ख़्मी हुए।” (पृष्ठ10) 

दंगे की भीड़ विवेकहीन हो जाती है। लेखक उसे भीड़ के बारे में कहते हैं, “भीड़ जिसके सिर पर ख़ून सवार है। भीड़ जो भेड़ियों का समूह है। भीड़ जो उन्मादी है। भीड़ जिसे बदला लेना है। भीड़ जिसे तुम्हें तुम्हारी औक़ात दिखानी है। भीड़ जिसे अपट्रॉन का टीवी चाहिए। भीड़ जिसे कुकर चाहिए, भीड़ जिसे ज़ेवर चाहिए। भीड़ जिसे लड़की चाहिए। भीड़ जिसे पगड़ी चाहिए। भीड़ जिसे ख़ून चाहिए।” (पृष्ठ119) 

आख़िर यह भीड़ कहाँ से और क्यों आई मेरे विचार से इन सभी प्रश्नों का उत्तर लेखक ने उपन्यास के अंदर ही दे दिया है। दंगे के जन्म लेने का सबसे बड़ा कारण बेरोज़गारी, शिक्षा, नशा, मानवीय गुणों की कमी, नेताओं की भ्रमित भाषण-शैली, ग़रीबी, दूसरे क़ौमों के प्रति घृणा तथा साहित्य से दूरी है। जब बच्चे साहित्य को पढ़ते हैं, तो समाज की विविध समस्याओं से अवगत होते हैं तथा उस समस्या के मूल जड़ को समझते हुए समाधान की ओर अग्रसर होते हैं। लेखक सत्य व्यास को ‘चौरासी’ उपन्यास से यह सफलता अवश्य मिलती है कि कुछ हद तक वह युवा पाठकों को दंगों के दुष्परिणामों से परिचित कराते हुए भविष्य में इससे दूर रखने में सफल होंगे। 

इस उपन्यास की अच्छी बात यह है कि यह मात्र विशुद्ध प्रेम प्रसंग पर आधारित न होकर समाज के उस समस्या पर आधारित है, जो समय-समय पर मानवता को कुचलना का प्रयास करता है। दंगे के समय किस तरह से आज पड़ोस शत्रु बन जाता है। इसका उदाहरण रमाकांत ठाकुर और प्रभु दयाल हैं। रमाकांत को अपनी दुकान बड़ी करनी थी इसलिए सतनाम सैनी का मरना ज़रूरी था। सो रमाकांत अप्रत्यक्ष रूप से सतनाम सैनी और उसके भतीजे की हत्या करवा कर अपना सपना पूरा करते हैं। प्रभु दयाल लाले के पिता के दोस्त थे और लाले के पिता ने ही प्रभु दयाल को अपने बग़ल की ज़मीन दिलाई थी, पर उनकी नियत इस दंगे में लाले की ज़मीन पर थी। सो लाले की हत्या में उन्होंने अपना योगदान दिया। उपन्यास पढ़कर मन में यह प्रश्न उठता है कि मनुष्य कैसे इतना स्वार्थी हो सकता है कि किसी के लाश से अपने स्वप्न को पूरा करता है। हँसते-खेलते और 1972 में जन्मे बोकारो शहर को इंसानों ने मात्र 12 साल, वर्ष 1984 में कलंकित कर इतिहास के पन्नों में सदैव के लिए दर्ज कर दिया। इतिहास में सिर्फ़ दो तरह की घटनाओं को याद रखा जाता है। पहली वह घटना, जो मानव जाति के लिए आदर्श हो और दूसरी वह घटना, जो मानव जाति के लिए लज्जापूर्ण या कलंकित हो। 

उपन्यास की भाषा बेहद प्रभावी एवं स्थानीय है। मनु का बीच-बीच में पंजाबी बोलना “ओ तेरी दी, आए बड़े’ आदि शब्द उपन्यास की भाषा शैली को रोचक बनाते हैं। कहीं-कहीं पर लोकोक्ति का प्रयोग किया गया है। जैसे—सब तीरथ बार-बार गंगासागर एक बार। एक-दो जगहों पर उन्मादियों के ज़ुबान से गाली जैसे अपशब्द भी सुनाई देते हैं, जो दंगे की वास्तविकता को प्रकट करते हैं। जिस तरह से सत्य व्यास की 1984 के दंगों की स्थिति पर गहरी पकड़ है, ठीक उसी प्रकार प्रेम-प्रसंग के शब्दों पर भी उनकी गहरी पकड़ है। जब ऋषि मनु को पढ़ाता है, तब कई पहेलियों का प्रयोग करता है। सत्य व्यास की भाषा बहुत सहज और बोलचाल की हिंदी है। इसमें ठेठ हिंदी के साथ-साथ हल्का बिहारी टोन भी झलकता है, जो इसे और वास्तविक बनाता है। उनके संवाद जीवंत हैं। 

‘चौरासी’ पुस्तक की कमी की बात की जाए, तो मेरे विचार से इसे 159 पृष्ठ की जगह और बड़ा किया जा सकता था। दंगों में शामिल लड़कों, नेता तथा आसपास के लोगों के बारे में, दंगों के प्रभाव एवं स्टील कंपनी के बारे में और विस्तृत जानकारी दी जा सकती थी। सिखों के मन में इंदिरा गाँधी के प्रति नकारात्मक भावना क्यों आती है? इसे भी उपन्यास की कथा-वस्तु में रखना चाहिए था। 

निष्कर्षतः ‘चौरासी’ एक ऐसा उपन्यास है, जो प्रेम और सांप्रदायिकता के द्वंद्व को बेहद मार्मिक तरीक़े से प्रस्तुत करता है। यह उपन्यास हमें सोचने पर मजबूर करता है कि दंगों और राजनीतिक उथल-पुथल का व्यक्तिगत जीवन पर क्या प्रभाव पड़ता है। दंगे भले ही हिन्दू-सिख या हिन्दू-मुस्लिम के बीच होता है लेकिन उसकी सज़ा संपूर्ण इंसानियत को झेलनी पड़ती है। उपन्यास का अंत पाठकों को भावनात्मक रूप से झकझोर कर रख देता है। कुल मिलाकर ‘चौरासी’ उपन्यास आज की युवाओं को अवश्य पढ़ना चाहिए क्योंकि उनमें जो ऊर्जा होती है, कई बार उसका उपयोग कोई दूसरा अपने स्वार्थ पूर्ति के लिए करता है। कम से कम युवा पीढ़ी ऐसे लोगों के प्रति जागरूक हो सकेगी। ‘चौरासी’ उपन्यास हिंद युग्म में नोएडा से प्रकाशित है। 159 पृष्ठ के उपन्यास का आवरण डिज़ाइन राजेश बारिक ने की है तथा कला निर्देशन विजेंद्र एस विज ने की है। 

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