संन्यासिनी-सी साँझ

31-05-2008

साँझ क्यों संन्यासिनी-सा रूप बनाया।
भेष-भगवा भा गया क्यों देख जग की धूप-छाया॥
 
नील नभ में पंछी बन मन घूमता दिन भर रहा जो,
क्रूर कोलाहल तपन से दूर ना पलभर रहा जो।
साँझ आँचल में तुम्हारे, नीड़ क्यों उसको है भाया॥
 
घिर गईं गहरी अंधेरी जब निराशा की निशाएँ,
राह सब धुंधला गईं और सो गईं सारी दिशाएँ।
साँझ तब "सत्यंशिवंशुचि सुन्दरं" क्यों गुनगुनाया॥
 
हो गई काषाय क्यों ये पश्चिमी आशा सुनहरी,
सहमी-सहमी, ठहरी-ठहरी क्यों हुई मानस की लहरी।
कर तिरोहित सूर्य-भौतिक, "दीप" क्यों आत्मिक जलाया॥

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