संन्यासिनी-सी साँझ
आचार्य संदीप कुमार त्यागी ’दीप’साँझ क्यों संन्यासिनी-सा रूप बनाया।
भेष-भगवा भा गया क्यों देख जग की धूप-छाया॥
नील नभ में पंछी बन मन घूमता दिन भर रहा जो,
क्रूर कोलाहल तपन से दूर ना पलभर रहा जो।
साँझ आँचल में तुम्हारे, नीड़ क्यों उसको है भाया॥
घिर गईं गहरी अंधेरी जब निराशा की निशाएँ,
राह सब धुंधला गईं और सो गईं सारी दिशाएँ।
साँझ तब "सत्यंशिवंशुचि सुन्दरं" क्यों गुनगुनाया॥
हो गई काषाय क्यों ये पश्चिमी आशा सुनहरी,
सहमी-सहमी, ठहरी-ठहरी क्यों हुई मानस की लहरी।
कर तिरोहित सूर्य-भौतिक, "दीप" क्यों आत्मिक जलाया॥
0 टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
- कविता
-
- अनुपमा
- अभिनन्दन
- उद्बोधन:आध्यात्मिक
- कलयुग की मार
- कहाँ भारतीयपन
- जवाँ भिखारिन-सी
- जाग मनवा जाग
- जीवन में प्रेम संजीवन है
- तुम्हारे प्यार से
- तेरी मर्ज़ी
- प्रेम की व्युत्पत्ति
- प्रेम धुर से जुड़ा जीवन धरम
- मधुरिम मधुरिम हो लें
- माँ! शारदे तुमको नमन
- राष्ट्रभाषा गान
- संन्यासिनी-सी साँझ
- सदियों तक पूजे जाते हैं
- हसीं मौसम
- हिन्दी महिमा
- हास्य-व्यंग्य कविता
- गीत-नवगीत
- विडियो
-
- ऑडियो
-