फागुन पर गीत
शकुंतला अग्रवाल ‘शकुन’
दहक रहा टेसू पिया, फूल रहा कचनार।
फागुन की पदचाप से, झंकृत मन के तार।
थिरके मेरे पाँव अब, सुन ढोलक की थाप।
मनवा भी करने लगा, पिउ-पिउ का जाप।
चहुँ-दिश प्रिय! होने लगी, रंगों की बौछार।
फागुन की पदचाप से, झंकृत मन के तार।
बैरन पुरवा बन गयी, उर से खींचे चैन।
पथ-निहारते थक गए, साजन मेरे नैन।
काया कजली पड़ गयी, बहती कजरा-धार।
फागुन की पदचाप से, झंकृत मन के तार।
आती मुझको लाज है, कहते मन की बात।
करवट में ही बीतती, प्रिय! मेरी हर-रात।
अगन लगाए साजना, देखो मदिर-बयार।
फागुन की पदचाप से, झंकृत मन के तार।
ताने देती सास भी, देवर करें मख़ौल।
सिसक रहा यौवन पिया, अब तो आँखें खोल।
कलियाँ भी मुस्का रही, भ्रमर करें गुंजार।
फागुन की पदचाप से, झंकृत मन के तार।