चाहे जो इल्ज़ाम लगाए
शकुंतला अग्रवाल ‘शकुन’
चाहे जो इल्ज़ाम लगाए, दुनिया मुझ पर आज।
अपने लिए मुझे जीना है, हो कोई नाराज़।
बहुत यहाँ कर्त्तव्य निभाए, चाहूँ अब अधिकार।
छिप-छिप कर अब भरना आहें, नहीं मुझे स्वीकार।
करे उपेक्षा कोई मेरी, बन जाऊँ तलवार।
हाथ लगाए जो दामन को, कर दूँ टुकड़े चार।
मनमानी अब करना छोड़े, पुरुष प्रधान समाज।
अपने लिए मुझे . . .
पंख लगा कर, उम्मीदों के, नाप रही आकाश।
भिड़ जाती हूँ विपदा से मैं, होती नहीं निराश।
नेह-भरे मैं दीप जलाऊँ, अपने आँगन द्वार।
पथ के रोड़े डिगा न पाए, प्रभु तेरा आभार।
रख बुलंद हौसले जीत के, पहनूँगी मैं ताज।
अपने लिए मुझे . . .
तोड़ बेड़ियाँ सारी मैंने, देखो भरी उड़ान।
शक्ति-स्वरूपा बन कर मैंने, पाया है सम्मान।
स्वर्ग बनाया निज जीवन को, मन में रख विश्वास।
तोड़ पुरानी परम्पराएँ, रचा नया इतिहास।
अगर ठान लो तो होता कब, मुश्किल कोई काज?
अपने लिए मुझे . . .