पीड़ा को विश्व का साम्राज्य दो
डॉ. रमा द्विवेदीजाओ हवाओ देश प्रिय के,
विरह के गीत गाओ तुम,
जाओ घटाओ जाओ जाओ,
विरहाग्नि न भड़काओ तुम।
इस विरह के ताप से
जर-जर के मैं ठठरी भई,
श्वास यूँ तो चल रही पर
श्वास अनगिन चुक गई।
झर रहे हैं अश्रु आँखों से
उन्हें बतलाओ तुम॥
दिन-रात में अन्तर नहीं
इक से मुझे दोऊ लगे,
दिन में अँधेरी रात है
और रात में तारे गिने।
मेघों ने पी चाँदनी ली,
चाँद को बतलाओ तुम॥
गीली-सुलगती लकड़ी सी
यह रात भी जल गई,
रात से सुबह हुई फिर
शाम में वो ढल गई।
जल रहा है तन-बदन प्रिय को
जरा बतलाओ तुम॥
इस विरह की अग्नि में
देखो दिवाकर जल गया,
चांद झुलसा, श्वेत बादल
आज काला पड़ गया।
कर रहा पीऊ-पीऊ पपीहा
स्वाति-घन बरसाओ तुम॥
इस विरह की पीड़ा को
तुम विश्व का साम्राज्य दो,
सब जुड़े बस दर्द से
तब मानव का कल्याण हो।
साथ सब रोएँ-हँसे सबको
जरा समझाओ तुम॥