अर्थी सुसंस्कारों की
डॉ. रमा द्विवेदी
यूँ तो कहा जाता है “सत्य, धैर्य, क्षमा, दया, सहिष्णुता और सेवा भाव मनुष्य के जीवन को गौरव प्रदान करते हैं लेकिन जब इन्हीं गुणों के कारण अपमान, तिरस्कार और ज़िल्लत भरी ज़िंदगी जीनी पड़े तब भँवर में फँसे उस व्यक्ति को समझ नहीं आता कि वह उसमें फँस कर मर जाए या उससे बाहर निकलने के लिए ख़ुद को वैसा बना ले जैसा कभी न तो सोचा हो और न चाहा हो।” सुभाषिनी के सुसंस्कारों ने उसे बहुत कुछ ज़ुल्म सहने के लिए बाध्य कर दिया।
यह मन भी क्या अजब चीज़ है जिस बात पर लग जाए तो जल्दी वहाँ से हटता ही नहीं और अगर चिन्ता की बात हो तब तो और भी मन वहाँ से नहीं हटता। पता नहीं क्यों आज बार-बार दीपश्री से बात करने को मन उद्विग्न हो रहा था। मैंने उसे फोन किया लेकिन जब बहुत देर तक फोन की घंटी बजती रही और किसी ने फोन नहीं उठाया तब मैं समझ गई कि वह अपनी बेटी के पास गई होगी। आजकल वह अपनी बेटी के पास अक़्सर जाती रहती है। पता नहीं क्यों मेरे मन में यह ख़्याल अक़्सर आता है कि उसकी बेटी के दाम्पत्य जीवन में सब कुछ ठीक नहीं है लेकिन गहरी दोस्ती के बावजूद भी कभी उससे पूछा नहीं। किसी के निजी जीवन में ताक-झाँक करना असभ्यता का सूचक है इसलिए हमेशा इतना ही पूछ कर चुप रह जाती कि सुभाषिनी ठीक तो है न?
कुछ दिन बाद मैंने फिर फोन किया उधर से दीपश्री ने ही फोन उठाया। मैंने कहा, “कैसी हो? कहाँ हो आजकल? मैंने एक दिन फोन किया था किसी ने फोन नहीं उठाया, क्या तुम यहाँ पर नहीं थी?”
उसने कहा, “नहीं मैं आज ही सुभाषिनी के पास से आई हूँ। उसकी तबियत बहुत ख़राब थी इसलिए देखने के लिए गई थी, उसे साथ ले आई हूँ।”
मैंने हाल-चाल जानने के लिए ऐसे ही पूछा, “सुभाषिनी की तबियत कैसी है अब?” मेरा इतना पूछना था कि वह फूट-फूट कर रो पड़ी। शायद मैंने अनजाने दुखती रग पर हाथ रख दिया था। धैर्य का बाँध टूटकर दर्द आँसुओं में बह निकला और वह बताने लगी कि कैसे जलज उनकी बेटी को प्रताड़ित करता है। मैं तो सुन कर अवाक् रह गई। थोड़ी देर तक तो मुझे समझ नहीं आया कि क्या कहूँ? क्या कहकर सान्त्वना दूँ ?
सुभाषिनी को मैं तब से जानती हूँ जब वह बहुत छोटी थी। हमारे सामने वह बड़ी हुई, शादी हुई और अब एक बच्ची की माँ भी बन गई। वह बहुत शान्त-सौम्य, मृदुभाषिनी, घरेलू, सुशील किन्तु डरपोक थी। घर को सजाने-सँवारने और तरह-तरह के व्यंजन बनाने में दक्ष होने के साथ-साथ कई क़िस्म की पेंटिंग्स, स्केचिंग, ग्लासपेंटिंग्स, पॉटरी और साफ़्ट टोयज बनाने एवं कई तरह की सुन्दर लिखावट करने में वह निपुण थी। ऊँची आवाज़ में बात करते मैंने तो कभी नहीं देखा था। बहुत ही शालीन और मिलनसार थी। बड़ों का आदर करना और घर आए अतिथियों का दिल खोल कर आतिथ्य करना; यह सब दीपश्री के गुण उसमें भी आए थे। बहुत ही शालीन-सौम्य और शिष्टाचार में पगा परिवार था। इस युग में भी जब मानवीय संवेदनाएँ चुकती जा रही हैं, लोग मेहमानों की ख़ातिरदारी से बचने लगे हैं तब भी कोई दीपश्री के घर आ जाए तो वह उनका दिल खोलकर स्वागत करती है। इतना आग्रह और मान-मनुहार से अतिथियों को खिलाना मैंने तो अन्य कहीं नहीं देखा। दीपश्री ने अपनी बेटी को भी इन्हीं सुसंस्कारों के कठोर अनुशासन में पाला-पोसा था।
सुभाषिनी अपने नाम को सार्थक करती हुई सयानी हो गई। एम.ए. करके कुछ महीने नौकरी की फिर शादी हो गई। शादी भी कुंडली मिलाकर की गई थी। उनके ख़ानदानी पंडित ने तो कहा था कि बत्तीस गुण मिलते हैं इसलिए दाम्पत्य जीवन सुखपूर्वक बीतेगा लेकिन आज यह सब क्या हो गया? किसको सच माने कुंडली को या जो आँख के सामने है? कोई भी ज्योतिष भाग्य का सही लेखा-जोखा बता सकता है क्या? अगर ज्योतिष सच होता तो हर कोई अपने दुख का समाधान पहले ही ढ़ूँढ़ लेता।
मेरे दिमाग़ में कई ऐसे ही प्रश्नों के हथौड़े पड़ रहे थे और उत्तर तलाशने की नाकाम खलबली मची हुई थी। दीपश्री से मेरी बात हमेशा टुकड़ों में होती रही। धीरे-धीरे दीपश्री ने बताया कि जलज कैसे उनकी बेटी को सताता था। जलज की शादी के बाद पहली नौकरी की नियुक्ति बंगलोर में हुई। दीपश्री जाकर बेटी का घर व्यवस्थित कर आई और तो और टेलीविजन और फ़र्नीचर के लिए पचास हज़ार नगद भी दे आई। इतने पैसे देने के बावजूद भी जलज ने न तो बेड ख़रीदा और न टेलीविजन और तो और नौकरानी भी नहीं रखने दी। घर का पूरा काम सुभाषिनी ही करती इतने पर भी वह उसे चार बातें सुना ही देता। अगर यह सब यहीं तक सीमित रहता तब भी ठीक था लेकिन सुबह उसकी माँ का फोन आता ‘नाश्ता क्या खाया?’ जलज तुरन्त बता देता कि सुभाषिनी ने यह बनाया। तुरन्त सास सुभाषिनी की ख़बर लेती, ’तुमने यह क्यों बनाया वह क्यों नही बनाया’? सुभाषिनी बड़ी ही नम्रता से जवाब देती, ’मम्मीजी मैंने तो जलज से पूछकर ही बनाया था’ लेकिन सास तो एक न सुनती और ग़ुस्से से बोलती- ’तुम अपने मन से अपनी पसन्द का बनाती हो, मेरे बेटे का तुम्हें बिल्कुल ख़्याल नहीं है’। यह सिलसिला सुबह से लेकर रात सोने तक चलता और तो और देर रात भी वह फोन करके अपने बेटे से पूछती कि क्या कर रहे हो? अभी तक सोए क्यों नहीं . . . आदि-आदि।
सुभाषिनी सोचती रहती यह कैसी माँ है कि अपने बेटे की ख़ुशियों में आग लगा रही है या यह नहीं चाहती कि बेटा अपनी पत्नी से आत्मीयता रखे। इतना ही कन्ट्रोल यदि अपने हाथ में रखना था तो शादी ही क्यों की? आज्ञाकारी बेटा अपनी माँ को छोटी सी छोटी बात भी बताता लेकिन एक बार भी यह नहीं कहता कि सुभाषिनी जो भी बनाती है मेरे कहने पर ही बनाती है, उसे आप क्यों डाँटती हैं? सुभाषिनी कभी-कभी जलज से पूछती कि आप मम्मीजी को सच क्यों नहीं बताते कि मैं जो भी बनाती हूँ आपसे पूछ्कर ही बनाती हूँ। जलज उसकी बात सुनकर अनसुना कर देता। सुभाषिनी को तब और डर लगता कि कहीं हमारी अंतरंग बातें भी तो नहीं बता देता है? वह अपने पति का ऐसा रूखा व्यवहार देखकर मन मसोसकर रह जाती और घर में क्लेश न हो यह सोचकर वह ख़ुद को नार्मल रखने की भरसक कोशिश करती।
कुछ समय पश्चात वह गर्भवती हो गई जिसके कारण उसकी तबियत बहुत ख़राब रहने लगी। हर वक़्त उल्टियाँ कर-कर के वह शिथिल पड़ जाती। घर का काम भी अब वह ठीक से नहीं कर पाती तभी जलज के मम्मी-पापा और बहन रहने के लिए आ गए। सुभाषिनी से काम नहीं हो पाता और सास ताने देती कि ’कामचोर है इसलिए हमारे आने पर यह सब नाटक कर रही है’। सुभाषिनी की हालत उनसे छुपी नहीं थी फिर भी उनके व्यवहार में नम्रता नहीं आई और हमेशा यही कहती रहती ऐसा भी क्या आफ़त आ गई? हमने भी तो बच्चे जने हैं, यह अनोखी औरत थोड़े ही है जो बच्चा पैदा करने जा रही है? ख़ूब काम करे तो तबियत अपने आप ही सुधर जाएगी। आजकल की औरतों के नख़रे ही बहुत हैं। अब उन्हें कौन समझाए कि काम करने के लिए ताक़त भी तो होनी चाहिए। जब पेट में खाना नहीं टिकेगा और लगातार उल्टियाँ होंगी तो शरीर की ऊर्जा तो इसी में ख़त्म हो जाएगी। सास का कहना यह भी था जब काम नहीं करती तो खाना भी क्यों खाएगी इसलिए उसके खाने का तनिक भी ख़्याल कोई नहीं रखता था और पति तो माँ के आगे ज़ुबान भी न खोलता।
सुभाषिनी को लगता कि उनकी देखभाल वह ठीक से नहीं कर पा रही है तो अगर वह अपनी पसन्द का खाना, खाना चाहेगी तो सास के तानों से वह ज़िन्दा नहीं बच पायेगी। एक दिन जब उसे तेज़ बुख़ार आया और कमज़ोरी से न वह उठ सकी, न आँखे खोल सकी लेकिन सास ऊँची आवाज़ में बोल रही थी कि देखो महारानी को सूरज सिर पर चढ़ आया और यह अभी तक सो रही है। सास की आवाज़ सुनकर सुभाषिनी ने हड़बड़ा कर उठने की कोशिश की लेकिन उसे चक्कर आ गया और वह गिर पड़ी। जलज ने उसे गिरते हुए देखा और तब उसने उसे छू कर देखा तब उसे पता चला कि उसे तेज़ बुख़ार है। तब बेमन से उसे डाक्टर को दिखाने ले गया। डाक्टर ने कहा इसकी हालत काफ़ी गंभीर है, शरीर में ख़ून की कमी है इसे ग्लुकोज चढ़ाना पड़ेगा। तब जाकर जलज के माता-पिता को विश्वास आया कि यह नाटक नहीं कर रही परन्तु उनका व्यवहार सुभाषिनी के प्रति रूखा ही रहा। वास्तव में जलज की माँ और उसकी मेंटली रिटार्टेड बहन असुरक्षा की हीन भावना से ग्रसित थे उन्हें हमेशा यह डर रहता कि कहीं वे जलज खो न दें।
सुभाषिनी ने बड़ी मुश्किल से ये दिन काटे और सातवें महीने में वह अपने माँ के घर आ गई लेकिन यहाँ पर भी उसे सास की बातें याद आतीं और अचानक वह सहम जाती। उसकी माँ हमेशा पूछती कि “तुम्हें क्या परेशानी है? क्या दुख है? हमें बताओ। अचानक तुम डरी-सहमी सी लगती हो, चेहरा पीला पड़ जाता है। नींद में कुछ बड़बड़ाती हो और उठ जाती हो।” लेकिन वह किसी को कुछ न बताती। माँ ने सोचा कि शायद गर्भवती होने के कारण ऐसा हो रहा होगा इसलिये उन्होंने भी इसे गंभीरता से नहीं लिया। निश्चित समय पर बहुत ख़ूबसूरत बच्ची पैदा हुई तो सास का मुँह अन्दर से तो फूल गया लेकिन उसके माता-पिता के सामने बोली कुछ नहीं।
बाद में जब वापस गई तो कुछ न कुछ कह-कह कर ताने मारती रहती। सुभाषिनी के पास सहने के सिवा कोई चारा भी नहीं था क्योंकि पति भी तो उसके साथ नहीं था। कंपनी ने जलज को दक्षिण अफ़्रीका छ्ह माह के लिए प्रोजेक्ट करने के लिए भेज दिया। सुभाषिनी को जलज ने अपने माता-पिता के पास छोड़ दिया। जलज जब भी माता-पिता को फोन करता और वह सुभाषिनी से भी बात करने के लिए जब भी पूछ्ता तो उसकी माँ व बहन दोनों कुछ न कुछ बहाना बना देते और उससे बात नहीं करने देते और वह बात न कर पाता। आज्ञाकारी बच्चे की तरह जो वे कहतीं उसे ही सच मानकर चुप रह जाता।
पति -पत्नी के बीच फ़ासले बढ़ते गए। जब वापस आया तो कंपनी ने उसे चेन्नैई भेज दिया। वह सप्ताह के अंत में घर आता और चला जाता इस तरह जो लगाव और आत्मीयता दोनों के बीच होनी चाहिए थी वह नहीं बन पाई। अभी पाँच महीने ही गुज़रे थे कि कंपनी ने उसे एक वर्ष के लिए जापान भेज दिया। चूँकि वहाँ उसे खाने की परेशानी होगी इसलिए उसने अपनी माँ के कहने पर सुभाषिनी को आने के लिए कहा। सुभाषिनी का पासपोर्ट और बच्ची का पासपोर्ट बनने में बहुत समय लग गया और जलज के आने के कुछ माह ही बचे थे फिर भी सुभाषिनी बच्ची को लेकर गई। जापान में भाषा का ज्ञान न होने पर कई समस्याओं का सामना सुभाषिनी को करना पड़ा। दुर्घटनावश एक दिन सुभाषिनी फिसलकर गिर गई और एक उँगली में फ़्रैक्चर हो गया असहनीय दर्द से वह कई दिन तक कराहती रही लेकिन जलज ने उसे डाक्टर को इसलिये नहीं दिखाया कि डॉलर ख़र्च हो जाएँगे परिणाम यह हुआ कि उसकी उँगली हमेशा के लिए टेढ़ी और संवेदन शून्य हो गई।
वापस आने के बाद उसकी नियुक्ति पुणे में हुई किन्तु प्रोजेक्ट मुम्बई में मिला इसलिए वह शुक्रवार देर रात पुणे आता था और रविवार को शाम ही वापस चला जाता था। इतने कम समय के लिए आता और सुभाषिनी को हुक्म देता रहता यह खाना बनाओ, मेरे कपड़े धोकर और इस्त्री करके तैयार करो, मेरे हाथ-पैर दबाओ आदि-आदि। बेचारी सुभाषिनी तरस जाती कि कब उसका पति उससे दो मीठे बोल बोलेगा या कब वह पूछेगा कि तुम्हें कोई परेशानी तो नहीं है और तो और यह जानने की भी कोशिश न करता कि उसकी बेटी कैसी है? उसके लिए कुछ लाना तो नहीं है या चलो उसे कहीं घुमा लाते हैं। सुभाषिनी हर सप्ताह इन्तज़ार करती कि शायद इस सप्ताह जलज का मन ठीक रहेगा और वह उसके सुख-दुख की जानकारी लेगा कि वह कैसे अकेले अपनी बेटी के साथ रहती है? जलज इतने पैसे भी न देता कि वह अपनी बेटी को पार्क घुमाने ले जाये या उसे कुछ खाने या खेलने की चीज़ ही दिला दे। एक एक पैसे का हिसाब माँगता। सुभाषिनी यह सोचकर चुप रहती कि घर में क्लेश न हो लेकिन जलज का रवैया दिन प्रतिदिन बदलता जा रहा था। वह बात-बात पर चिल्लाता और मारने-पीटने लगता। अगर वह अपने माता-पिता को फोन करना चाहती तो फोन भी न करने देता। सुभाषिनी ने अपने माता-पिता के घर में कभी ऐसा देखा भी नहीं था इसलिए उसे यह विश्वास करने में भी बहुत समय लगा। सुभाषिनी उसके क्रूरतापूर्ण व्यवहार से अन्दर से भयभीत रहने लगी। माता-पिता को इसलिये न बताती कि डैडी तो हार्ट के मरीज़ हैं भाई की अभी शादी होनी है। क्या करे क्या न करे निश्चित नहीं कर पा रही थी।
सुभाषिनी डरी-सहमी-सी रहने लगी। उसकी तबियत जल्दी-जल्दी ख़राब होने लगी। अचानक हाथ-पैर काँपने लगते। जलज का जब फोन आता तो भय से आँखें फैल जातीं और हाथ से फोन छूट जाता। एक बार दीपश्री ने जब यह देखा तो उसने ख़ुद फोन उठा के सुना कि जलज क्या बोल रहा है? तब उसे पता चला कि जलज गंदी-गंदी गालियाँ बक रहा है तब उसने उसे डाँटा कि वह इस तरह क्यों गालियाँ बकता है तो वह दीपश्री से भी ऊँची आवाज़ में अशिष्टता से बात करने लगा। दीपश्री ने बेटी से पूछा, “यह सब कब से चल रहा है?”
सुभाषिनी ने बताया, “दो साल से इतना उत्पात बढ़ गया है कि असहनीय हो गया है।”
दीपश्री ने सुभाषिनी से कहा, “अभी इसी वक़्त मेरे साथ घर चलो, इसकी इतनी बदतमीज़ियाँ तुमने कैसे सहीं? तुम कोई अनाथ हो जो वह तुम्हें गाली-गलौज करता है और मारता-पीटता है। तुम अपना सामान पैक करो हम अभी ही हैदराबाद वापस जा रहे हैं। मैं तुम्हें एक मिनट के लिए यहाँ पर नहीं छोडूँगी।”
सुभाषिनी पहले तो घबराई कि पता नहीं उसके ऐसे चले जाने से जलज कैसे रियेक्ट करेगा लेकिन फिर माँ के समझाने पर साहस जुटा पाई और कुछ ज़रूरी सामान लेकर बस पकड़ने से पहले जलज को फोन कर दिया कि उसकी तबियत बहुत ख़राब है इसलिए वह मम्मी के साथ हैदराबाद जा रही है। जलज को निकलने से पहले ही इसलिए सूचित किया ताकि वह आ न सके और हंगामा न कर सके। जलज समझ गया कि वह ग़ुस्से से गई है और अब उसके माता-पिता नहीं भेजेंगे क्योंकि उसकी करतूतों का उन्हें पता चल चुका है। अपने को अच्छा साबित करने के लिए उसने सारे रिश्तेदारों को फोन करके बता दिया कि सुभाषिनी मुझे बिना बताए घर छोड़कर अपने माता-पिता के घर चली गई है। क्या कोई ऐसे करता है क्या? जाना था तो चली जाती पर मेरे आने तक तो इन्तज़ार कर लेती। ऐसी भी क्या आफ़त आ गई थी कि इन्तज़ार न कर सकी।
वायरल बुख़ार से सुभाषिनी कई दिन से तड़प रही थी लेकिन जलज का आना तो दूर फोन करके हाल-चाल भी नहीं पूछता था कि तबियत कैसी है? यहाँ तक कि सुभाषिनी का फोन भी नहीं उठाता। उसे इतनी भी चिन्ता नहीं थी कि इतनी बीमार है तो छोटी बच्ची को कौन सँभालेगा? हार कर सुभाषनी ने अपनी मम्मी को बुलाया लेकिन नए शहर में वे भी अनजान थी कि सुभाषिनी को किस डाक्टर को दिखाएँ? सुभाषिनी गंभीर अवसाद की शिकार हो गई। उसके माता-पिता ने उसका बहुत इलाज करवाया लेकिन दवा का असर जितना होना चाहिए था नहीं हुआ। कभी तो वह ठीक व्यवहार करती और कभी अचानक सब पर चिल्लाने लगती। घर में सबको पता नहीं क्या-क्या बोल जाती, घरवाले तो अपने थे इसलिए वे समझते थे कि यह डिप्रेशन में बोल रही है इसलिए कोई भी उसकी बात का बुरा न मानता और सुनकर चुप रहते। ऐसे ही छह माह गुज़र गए लेकिन उसका पति जलज न लिवाने आया और न फोन ही किया। इधर सुभाषिनी असुरक्षा की भावना से हर वक़्त घिरी रहती। तभी एक दिन जलज का फोन आया कि वह ‘गुड़िया’ के जन्मदिन पर एक दिन के लिए आ रहा है। घर में कुछ देर के लिए हर्ष की लहर दौड़ गई कि देर से ही सही उसे अपनी बेटी की तो याद आई लेकिन सुभाषिनी ख़ुश नहीं थी उसे लग रहा था कि उसे बुलाने के लिए यह कोई षड़यंत्र तो नहीं फिर भी उसने अपनी शंकाओं को झटक कर और माँ के कहने पर जलज को लेने एयरपोर्ट गई।
ड्राइवर गाड़ी चला रहा था इसलिए वे दोनों पास-पास बैठे होने के बावजूद अपने अहं की परिधियों में क़ैद न जाने क्या-क्या सोचते रहे तभी घर आ गया। जैसे ही जलज ने घर के अन्दर प्रवेश किया गुड़िया पापा-पापा कहके लिपट गई और बहुर देर तक वह अपने पापा की गोद में ही रही। लाख कहने पर भी वह पापा को छोड़ने को तैयार न थी, वह यही बोलती जा रही थी कि पापा चले जाएँगे इसलिए मैं पापा को नहीं छोड़ूँगी। बेटी की यह बात सुनकर जलज का भी मन पसीज गया और अपनी बेटी को जी भर कर प्यार किया।
दीपश्री ने बेटी दामाद और गुड़िया को बाहर घूमने भेज दिया ताकि दोनों पति-पत्नी को एकान्त मिलें और वे आपस में बात कर सकें। सुभाषिनी ने कहा चलो हम गुड़िया के जन्म दिन के लिए एक अच्छी सी ड्रेस ले लेते हैं और कुछ चॉकलेट भी। सुभाषिनी ड्रेस देख रही थी और जलज से पूछ रही थी कि ड्रेस कैसी है? लेकिन जलज कोई उत्तर न देकर फोन के बहाने दुकान के बाहर चला गया ताकि उसे ड्रेस के पैसे न देने पड़ें। सुभाषिनी समझ गई कि पैसा नहीं ख़र्च करना चाहते इसलिए ऐसा कर रहे हैं उसे बहुत दुख हुआ कि यह कैसा पिता है जो अपनी दो वर्ष की बेटी को जन्मदिन पर एक अच्छी ड्रेस भी नहीं दिलाना चाहता जबकि पैसे की कोई कमी भी नहीं है। कैसा पाषाण दिल है! ग़रीब से ग़रीब भी अपने बच्चे की ख़ुशी के लिए क्या-क्या नहीं करते? वह समझ गई कि इसका दिल नहीं बदला बस दिखावा करने के लिए आया है। उसके दिमाग़ में फिर वही सारे प्रश्न हथौड़े के समान पड़ने लगे कि मेरा और मेरी बेटी के भविष्य का क्या होगा?
सुभाषिनी को माता-पिता के घर रहते दो वर्ष बीत गए थे। जलज कभी एक दिन के लिए आता और चला जाता। बेटी की ज़रूरतों की चीज़ें लेने के लिए सुभाषिनी जब भी उससे पैसे माँगती तो वह पैसे देने से मना कर देता और साफ़ कह देता मैं पैसे कभी नहीं दूँगा, नहीं तो तुम कभी वापस नहीं आओगी। सुभाषिनी को आने के लिए बोल कर चला जाता पर यह कभी न कहता कि मैं अब दुर्व्यवहार कभी नहीं करूँगा।
सुभाषिनी के माता-पिता ने शादी बचाने की भरसक कोशिश की और सुभाषिनी को समझा-बुझाकर दो तीन बार जलज के पास भेजा भी लेकिन जलज का व्यवहार तो न बदलना था न बदला।
सुभाषिनी के माता-पिता को मजबूरन तलाक़ की अर्ज़ी देनी पड़ी। इससे जलज का अहं बहुत घायल हुआ और वह ग़ुस्से से पागल हो गया। प्रतिशोध की आग में झुलसकर उसने मन ही मन तै कर लिया कि मैं सुभाषिनी को इतनी आसानी से नहीं छोड़ूँगा और उसने अदालत में सुभाषिनी पर बदचलनी के और न जाने क्या-क्या आरोप लगाए। अदालत के कठघरे में खड़ी सुभाषिनी जलज के घिनौने-अश्लील प्रश्नों का उत्तर न दे सकी और वहीं विक्षिप्त होकर गिर पड़ी और उसके सुसंस्कारों की अर्थी उठ गई।