महत्वाकांक्षा का बोझ
डॉ. रमा द्विवेदी“ललित कल रंजन भैया की शादी में आना,” अरुणिमा ने अपने पड़ोसी के सोलह वर्षीय लड़के से कहा।
“आंटी मैं शादी में कैसे आ सकता हूँ मुझे तो पढ़ना है न?” ललित ने अत्यंत संजीदगी से कहा।
“ठीक है बेटा।”
उसके जाने के बाद अरुणिमा बहुत दुखी मन से मुझे बताने लगी, “ललित बहुत ही मेधावी छात्र एवं माँ-बाप का इकलौता लड़का है। कक्षा में हमेशा अव्वल रहता था लेकिन दसवीं की परीक्षा में कुल छियासी प्रतिशत अंक ही आये। वह माता-पिता की महत्वाकांक्षा में खरा न उतर सका इसिलए उन्होंने उसे बहुत ही बुरी तरह डाँटा। लड़का रो-रो कर बिना कुछ खाए सो गया। उसी रात उसे बहुत तेज़ बुखार चढ़ा और वह कँपकँपाते हुए बेहोशी की हालत में बड़बड़ाने लगा, ’मेरे अच्छे नंबर नहीं आये इसिलए मुझसे मम्मी-पापा नाराज़ हैं। मुझे पढ़ाई करनी चाहिए।’ उसकी दादी ने जब यह सुना तो उसके पापा-मम्मी को बताया। छूकर देखा तो उसे बहुत तेज़ बुखार था। तुरंत अस्पताल में एडमिट करवा दिया गया। बच्चा बच तो गया लेकिन मानसिक संतुलन गड़बड़ा गया। डॉक्टर ने बताया इसे किसी बात का गहरा सदमा लगा है। अब वह किसी से बात नहीं करता और हमेशा गुमसुम रहता है। अगर कोई उससे बात करे तो वह यही जवाब देता है ’मुझे तो पढ़ना है न’।”
उसकी दादी ने बताया कि घर में भी वह बहुत सहमा-सहमा रहता है और कुछ पूछो तो बस यही बोलता है।
मेरे मुँह से इतना ही निकला, “माँ-बाप को अपनी महत्वाकांक्षा का बोझ बच्चों पर इतना नहीं डालना चाहिए कि उसका मानसिक संतुलन ही बिगड़ जाए।”