कुल-गोत्र?
डॉ. रमा द्विवेदीपंडित भोलानाथ की बिटिया मिठी विवाह योग्य हो गई थी। पंडित जी ने सभी परिचितों एवं नाते-रिश्तेदारों से बोल रखा था। रिश्ते आते थे, जहाँ घर-बर अच्छा होता था वहाँ ’कुंडली-कुल गोत्र’ नहीं मिलता था और दहेज़ की माँग भी होती थी। पंडित जी पुराने ख़्यालों के व्यक्ति थे। वे कुंडली-कुल-गोत्र के मिलान में अडिग विश्वास रखते थे और दहेज़ देने की स्थिति भी नहीं थी। एक रिश्ता ऐसा आया जब कुंडली-कुल-गोत्र तो मिल गया लेकिन उनकी माली हालत बहुत ख़राब थी और पंडित जी के पास दहेज़ के नाम पर सिर्फ़ कन्या ही थी। मिठी इस शादी के लिए राज़ी नहीं थी लेकिन बाबू जी की बात नहीं टाल सकती थी, फिर शादी की उम्र भी निकली जा रही थी। उसे यह भी पता था कि बिना दहेज़ कोई उससे शादी नहीं करेगा। अतः मन मार कर शादी कर ली।
पति रामाधार पुरोहिती करता था, गाँव में छोटी-छोटी पूजा करवा कर या सत्यनारायण की कथा बाँच कर थोड़ा धन कमा लेता था। दो साल सूखा पड़ने से उसकी यह आमदनी भी बहुत ही कम हो गई लेकिन पेट की भूख तो कभी कम नहीं होती बल्कि जब खाने के लाले पड़े हों तो भूख और बढ़ जाती है। एक दिन मिठी पेट की भूख मिटाने के लिए महुआ भून रही थी, उसी समय अचानक पंडित भोलानाथ पहुँच गए और पूछा, “मिठी बिटिया क्या कर रही हो?”
मिठी ने कडुआहट से उत्तर दिया, “कुल-गोत्र को भून रही हूँ ।”
पंडित भोलानाथ निरुत्तरित अवाक् से देखते रह गए।