लोभी गुरु, लालची चेला
डॉ. रमा द्विवेदी“सुचित्रा, आजकल हमेशा ऑनलाइन रहती हो, क्या करती रहती हो?”
“हाँ साधना! मैं कविता लिखना सीख रही हूँ। कविता की इतनी सारी विधाएँ हैं और उससे भी अधिक गुरु हैं। सबसे सीखने में समय लगता है। कोई ऐसा बताता है, कोई कैसा बताता है। कोई इन-बॉक्स में दौड़ा चला आता है और कहता है मैं आपको लिखना सिखाऊँगा और मैं फिर उस ओर आकर्षित हो जाती हूँ। आख़िर मुझे भी तो गुरु ही बनना है वह भी रातों-रात ताकि मेरे भी चेले बनें और मैं प्रसिद्ध हो जाऊँ।”
“क्या! तुम भी गुरु बनना चाहती हो? भला इतना लोभ क्यों?”
“अरे साधना! तुम्हें पता नहीं, आजकल का यही ट्रेंड है। गुरु बनो और चेले बनाओ, मुफ़्त में नाम कमाओ। आभासी दुनिया में गुरु-चेला का खेल मुफ़्त है, इसलिए इस खेल में सभी शामिल होना चाहते हैं। नो गुरु दक्षिणा।”
“सुचित्रा सच बताओ-क्या वे चेले सच में गुरु का सम्मान करते हैं?”
“नहीं करते क्योंकि वे भी गुरु बन जाते हैं।”
साधना बोली, “धन्य हो लोभी गुरु, लालची चेला, पड़ें नरक में ठेली ठेला।”