मातृभाषा सरनामी को आजीवन समर्पित रहा कवि सो गया मातृभाषा दिवस पर 

01-03-2024

मातृभाषा सरनामी को आजीवन समर्पित रहा कवि सो गया मातृभाषा दिवस पर 

भावना सक्सैना  (अंक: 248, मार्च प्रथम, 2024 में प्रकाशित)


(सूरीनाम के डॉ. जीत नाराइन बलदेवसिंह की स्मृति में) 

22.02.2024 

अपनी मातृभाषा सरनामी को समर्पित एक कर्मी कल मातृभाषा दिवस को अपनी मातृभूमि व मातृभाषा को अलविदा कह गया। आज जब यह समाचार मिला तो मन में असंख्य स्मृतियाँ घुमड़ पड़ी हैं। आँखें नम हैं, हृदय द्रवित है अपने उस भाई को खो देने पर जिसने परदेस में यह कहा था कि अपने को अकेला मत समझना यहाँ। हम हैं, तुम्हारे साथ। सूरीनाम प्रवास के दौरान वर्ष 2009 की दिवाली से दो दिन पहले मेरे घर में चोरी हो गई थी और ख़बर पाते ही वह अपनी पत्नी मारी के साथ सामने खड़े थे इस दुख के साथ कि भारत से आई एक बहन का उनके देश में नुक़्सान हो गया . . . वह पूर्ति करना चाहते थे उस नुक़्सान की। बहुत मना करने पर भी मुश्किल ही माने थे . . . और वह सबसे पहला वह दिन जब भारत के राजदूतावास पारामारिबो में ‘अताशे हिंदी व संस्कृति’ के रूप में कार्यभार ग्रहण कर सूरीनाम के सभी हिंदी-कर्मियों व हिंदी-प्रेमियों से परिचय के क्रम में, उनको फोन कर, उनसे पहली बार बात की थी और उन्होंने कहा था “हम तो सरनामी में लिखल बा।” राजदूतावास के कार्यक्रम में आने में उनकी बहुत रुचि नहीं थी, वह दिखावे से बहुत दूर, एक संवेदनशील, सच्चे, स्नेही व्यक्ति थे। फिर भी मेरे आग्रह पर हमेशा आते थे और 2008 की प्रेमचंद जयंती पर जब मंच से उन्होंने कहा कि हम इधर सिर्फ़ श्रीमती सक्सैना के बुलाने पर आए हैं तो वह मेरे लिए हृदयस्पर्शी क्षण था जब मुझे लगा कि शायद मैं अपना काम सही ढंग से कर रही हूँ, और यह उसी का प्रतिफल है। मेरा सौभाग्य था कि उन्होंने मेरे कार्य को सराहा और उनका मन और उनका द्वार मेरे लिए सदैव खुला रहा। सूरीनाम से लौटने पर भी यह नाता बना रहा। 

मैं याद कर रही हूँ डॉ. जीत नराइन बलदेवसिंह जी को जो कहते थे “हिंदी जानीला ता हम राजा रही, सब कोई उस समय हिंदी ना जानी रहन।” 

उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में शर्तबंधी मज़दूरों के साथ सूरीनाम पहुँचे मुरलि बलदेव सिंह के पौत्र थे डॉ. जीत नाराइन जिनका जन्म डच शासकों के अधीन रहे सूरीनाम के लिवोर्नो में सन् 1948 में हुआ। तीसरी पीढ़ी के डॉ. जीत धर्म, जाति, संस्कृति के प्रति समर्पण का बेजोड़ उदाहरण रहे। उन्होंने अपने पिता सूर्य नाराइन से घर पर ही हिंदी सीखी, नाथूराम की पहली पुस्तक से . . . उस समय में बच्चों को छह महीने तक सिर्फ़ क, ख, ग, घ, सिखाया जाता था। इसी सशक्त आधार का परिणाम है कि उन्हें आज भी क से ह तक पूरे वर्णाक्षर याद थे। उस समय नाथूराम की पुस्तक घर में होना गौरव की बात थी और इसी गौरव से डॉ. जीत नराइन ने बताया था कि उनके घर में पुस्तक थी जिसे पढ़–पढ़ कर वह हिंदी सीखे। जब दस बरस के थे तब वह आल्हा गाते थे। 

1969 में अध्ययन के लिए वह नीदरलैंड गए। लेइदन में चिकित्सा की पढ़ाई करने के बाद, उन्होंने बारह वर्षों तक हेग में एक सामान्य चिकित्सक के रूप में काम किया किन्तु 1991 में हमेशा के लिए सूरीनाम लौट गए, जहाँ सरमक्का ज़िले में चिकित्सा प्रैक्टिस के साथ-साथ खेती भी करते रहे। उनकी 20 हेक्टेयर की केले, नारंगी, ग्रेपफ्रूट की लहलहाती खेती को देखना सुखद अनुभव था। 

1980 के दशक में उनके द्वारा किए गए प्रयासों ने सरनामी को सरकारी स्तर पर मान्यता दिलाई। उनका मानना था कि हिंदी रही तो सरनामी रहेगी और सरनामी रही तो हिंदी भी रहेगी। वह कहते थे यह सह-अस्तित्व आवश्यक है। आरंभ में उनकी लड़ाई सरनामी के लिए थी और हमेशा सरनामी के लिए ही रही लेकिन वह मानते थे कि उसके लिए दूसरे को बचाना पड़े तो वह बचाएँगे क्योंकि उनकी लड़ाई उस ग़रीब की लड़ाई थी जिसे ज़बरदस्ती ग़रीब बनाया गया है। 

परतंत्र सूरीनाम में जन्मे कवि की युवावस्था आज़ादी के लिए संघर्षरत रही और 1975 में स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद जब वह पढ़ाई के लिए हॉलैंड पहुँचे तब उपजा देश के प्रति अनुराग और उन्होंने वह अनुभव किया जो उनके आजा-आजी ने झेला था, देश से बिछुड़ने का दर्द, और वह भी उस देश से जो अभी तक उनका अपना नहीं हुआ था। 

हॉलैंड पहुँचकर संस्कृति के प्रति उनका प्रेम बढ़ा क्योंकि उस देश में वे बेगाने थे और दूसरे देश में रहने के लिए व्यक्ति को मज़बूती चाहिए और यह मज़बूती मिलती है अपनी संस्कृति से, वह कहते हैं कि मिलकर रहने के लिए व्यक्ति संस्कृति खोजता है और इसीलिए हम भाषा और संस्कृति के क़रीब हुए। अपनी सांस्कृतिक पहचान के लिए। उनके शब्दों में . . . याद जब तोर आइल, खोज चले इतिहसवा . . . 

और इतिहास की इस खोज में जब वह अपने पुरखों के साथ हुए अत्याचार को याद करते तो बहुत संवेदनशील हो जाते। सरनामी भाषा के पक्षधर और प्रचार प्रसार के लिए समर्पित और प्रतिबद्ध, विश्व पटल पर प्रतिष्ठित व ख्यातिप्राप्त कवि डॉ. जीत नाराइन एक चिकित्सक होते हुए भी मन से अपनी धरती से गहराई से जुड़े रहे और उसके लिए चिंतित रहे। अपने हिंदुस्तानी समाज की उन्नति के लिए एक क्लीनिक के साथ-साथ साइबर कैफ़े और पुस्तकालय भी चलाते रहे। वे सूरीनाम की हिंदुस्तानी युवा पीढ़ी को वे सब सुविधाएँ उपलब्ध कराना चाहते थे जिनसे वह स्वयं वंचित रहे क्योंकि उन्हें “कुछ भूला नहीं।” और इसीलिए कविता रहन में वह कहते हैं “अपन समाज में खड़ा भइले हम, एके बचावे के खात।” 

अपने समाज, अपने पुरखों पर हुए अत्याचार के प्रति उनकी वेदना स्वर पाती रही उनकी कविताओं में। रहन को मिलाकर सरनामी में आपके दस कविता संग्रह हैं। कुछ संकलन व अनुवाद भी हैं। इन संग्रहों से गुज़रकर यह कहा जा सकता है कि डॉ. जीत नाराइन वेदना और विद्रोह की भावनाएँ लिए हुए एक सहृदय कवि हैं। उनकी कविताएँ सही अर्थ में जनवादी हैं। उनमें मानवीय मूल्यों की गहरी समझ है, समाज को बदलने की उत्कंठा है, कविता की यह यात्रा आरंभ हुई 1971 से और आज तक अनवरत चल रही है। अपनी कविता यात्रा के बारे में उनका स्वयं का कहना था कि, “मेरी पहली पुस्तक थी दाल भात चटनी, लेकिन उसे हम बस एक अभ्यास कहेंगे, वहाँ कविता मैच्योर नहीं है। इसके बाद आई हिंसा परसाद, इसमें प्रत्यक्ष लड़ाई की बात है, क्योंकि धर्म वाले हमें नहीं बताते कि धर्म क्या है, क्यों है, बस तोते की तरह रटते जाते हैं, वह ज्ञान को साझा नहीं करते, हम सनातन कुल में पैदा हुए पर जब मतलब माँगे तो कोई ना बतइये, यही ग़ुस्सा है। 1981 में छपी जतने उज्जर जोति उतना गहरे झलका, भी एक तरह से अभ्यास ही था। कविता मैच्योर हुई 1984 में “माँगे घाट पे जीवन झेले काहे नाव समंदर खेवे” से। ये सभी दी हेग में छपीं। 1987 में पारामारीबो में छपी बाटे हुआँ तू कहाँ। इन चारों संकलनों से चुनी हुई कविताएँ देवनागरी लिपि में छपी जिसका संपादन माताप्रसाद त्रिपाठी ने किया और फिर 1991 में आई अग्नि के याद, याद के राखि। बीच में एक डच में और फिर कुछ कविताओं के अनुवाद छपे थी। 2004 में दोस्ती की चाह छपी जो अंग्रेज़ी। हिंदी, डच व सरनामी में छपीं। 

2017 के अंत में, तेरह वर्षों के बाद, डॉ. जीत नाराइन की कविताओं का एक नया संग्रह प्रकाशित हुआ है—रहन। इस संग्रह की योजना वह काफ़ी पहले से बना रहे थे। सूरीनाम प्रवास के दौरान जब डॉक्टर जीत से अक़्सर मुलाक़ात हो जाती थी तब ऐसी ही एक मुलाक़ात के दौरान उनका औपचारिक साक्षात्कार लिया और उसी चर्चा में उन्होंने बताया था कि “पिछले तीन बरस से हम कुछ ना लिखे हैं, अब हम कविता बनाएँगे। लेकिन ऐसी कविता जो शब्दों से बनाई जाती है वह पागलपन की ओर जाती है, हँसते हुए बोले थे–psycopathy! it is a deviation from normal life . . . पर यह सरनाम भी एक पगला देश है, इसी के बारे में हम लिखेंगे।” 

और 2017 में रहन और 2022 में आया कविता संग्रह हमारी डारी माँगे है रहे। 

अपनी मातृभाषा सरनामी को समर्पित डॉ. जीत कहते थे कि जब से मैं नीदरलैंड से सूरीनाम लौटा, मैंने डच भाषा बहुत कम बोली। उनका क्लिनिक सरनामी पर ही चलता था। वह अक़्सर डच बोलने वाले लोगों को सुधारते, और कहते कि “यदि आप डच बोलना चाहते हैं, तो आपको इसे ठीक से बोलना होगा। मैंने देखा है कि महिलाएँ अक़्सर अपने बच्चों के साथ भी डच बोलना चाहती हैं। लेकिन वे बहुत सी ग़लतियाँ करती हैं और बच्चे उन्हें पकड़ लेते हैं। इससे बेहतर है वप उनसे सरनामी में बोलें।” 

सरनामी को लेकर उनकी कई योजनाएँ थी, कुछ के लिए वह अभी भी नीदरलेंड से जुड़े थे। उनका जाना सरनामी भाषा के लिए बहुत बड़ी क्षति है। 

डॉ. जीत नाराइन के लिए माताप्रसाद त्रिपाठी जी ने ठीक ही लिखा था–“सृजनात्मक स्तर पर मन प्राण से समर्पित कवि जीत नाराइन स्वभाषा सरनामी के प्रचार-प्रसार में कुछ उसी प्रकार निरंतर संलग्न हैं जिस तरह ‘निज भाषा उन्नति अहै’ के संकल्प के साथ कभी समर्पित थे हिंदी के ज्योति स्तंभ भारतेंदु बाबू हरिश्चंद्र। परतांत्रिक त्रासदी और तज्जनित मानवीय विसंगति को तीन पीढ़ियों से झेलने वाले, रक्त की भाषा के तेवर लिए कवि ने जिस मर्मांतक पीड़ा का एहसास अपनी छंदहीन अतुकांत कविताओं में पिरोया है उसे महसूस करते हुए मैं इतना ही कहना चाहूँगा कि जीत नाराइन का दायित्व आधुनिक परिप्रेक्ष्य में भारतेंदु से भी बड़ा है।” 

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