लेखनी
भावना सक्सैना
एक मेज़, एक क़लम,
कोई डायरी या काग़ज़
मन की आवाज़
शब्दों की धार,
चलती अपनी धुन पर
बुनती रही शब्दों के तार।
कहीं से आया फिर मंच
सजे हुए फूलों के साथ,
पूछा उसने लेखनी से:
“कितने लोगों ने सुने तुम्हारे विचार?”
लेखनी सकुचाई बोली:
“मैंने तो बस गुना . . . कुछ बुना”
मंच हँसा—
“लिखने से क्या होता है?
क्या तुमने साझा किया?
लय में, मुखर आवाज़ में
किसी पटल पर आकर
हुई नहीं वायरल?”
लेखनी चुप!
सोचती हुई
उसने जो लिखा था,
शब्दों में भावों को पिरो
उसे ऊँचे स्वर में
कैसे गाया जा सकता है
उसकी कोमलता
समझने की बात है
शायद इसीलिए
वो आज भी दराज़ में है,
जहाँ शब्द चमकते नहीं,
पर देर तक टिके रहते हैं।
मंच ने पूछा—
“तुम्हारे हिस्से क्या आया?”
लेखनी बोली—
“मैंने संतोष पाया
अपनी बात कही,
अच्छी है या बुरी ये फ़ैसला
कभी माँगा ही नहीं।”
तभी एक संस्था ने दस्तक दी,
पोस्टर थामे,
अपने ही शब्दों की गूँज में खोई हुई।
बोली: “हमने लेखनी को मंच दिया!”
लेखनी फिर भी चुप,
अबकी बार ज़रा और थकी।
शायद इस बार वह
किसी कोने में जाकर
फिर बिना नाम के लिखेगी।
सोच रही है—
क्या मंच ज़रूरी है?
मंच को नाम चाहिए,
उसे . . .
बस समझने वाला सन्नाटा।