''माँ पर नहीं लिख सकता कविता''

27-10-2018

''माँ पर नहीं लिख सकता कविता''

प्रो. ऋषभदेव शर्मा

पुस्तक :     चंद्रकांत देवताले की कविता
लेखिका :    डॉ.उषस् पी. एस.
प्रकाशक :    जवाहर पुस्तकालय, सदर बाज़ार, 
           मथुरा-  २८१ ००१            
संस्करण :   २००८
मूल्य :     १७५ रु०/[सजिल्द]
पृष्ठ :     १२६ 

 "जब कोई भी माँ छिलके उतार कर 
चने, मूंग फली या मटर के दाने
नन्ही हथेलियों पर रख देती है
तब मेरे हाथ अपनी जगह पर 
थरथराने लगते हैं। 
माँ ने हर चीज़ के छिलके उतारे मेरे लिए 
देह, आत्मा, आग और पानी तक के छिलके उतारे
और मुझे कभी भूखा नहीं सोने दिया।
मैंने धरती पर कविता लिखी है
चन्द्रमा को गिटार में बदला है
समुद्र को शेर की तरह
आकाश के पिंजरे में खड़ा कर दिया।
सूरज पर कभी भी कविता लिख दूँगा,
माँ पर नहीं लिख सकता कविता। "
[माँ पर नहीं लिख सकता कविता]

  "माँ " पर कविता लिखने में स्वयं को ईमानदारी के साथ असमर्थ घोषित करने वाले इस समर्थ कवि का नाम है- चंद्र कान्त देवताले। इस कवि के अभिव्यक्ति-सामर्त्य का प्रमाण है वह विशद काव्य-सृष्टि जिसमें शामिल हैं --दीवारों पर खून से[१९७५], लकड़ बग्घा हँस रहा है[१९८०], रोशनी के मैदान की तरफ़[१९८२], भूखंड तप रहा है[१९८२], आग हर चीज़ में बताई गई थी[१९८७], पत्थर की बैंच [१९९६], उसके सपने[१९९७], इतनी पत्थर रोशनी[२००२] तथा उजाड़ में संग्रहालय जैसे वैविध्य पूर्ण अनुभव जगत का पता देने वाले कविता-संकलन। 

 समकालीन कविता के सुचर्चित हस्ताक्षर चंद्रकांत देवताले की कविता का गंभीरतापूर्वक रेशा-रेशा विवेचन करते हुए मलयालम भाषी हिन्दी  लेखिका डॉ. उषस पी. एस.   ने अपनी शोध - कृति में ठीक ही लिखा है कि देवताले जी की कविता में समय और सन्दर्भ के साथ ताल्लुकात रखने वाली सभी सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक प्रवृत्तियाँ समा गई हैं। यह कह सकते हैं की उनकी कविता में समय के सरोकार हैं, समाज के सरोकार हं। आधुनिकता के आगामी वर्षों ी सभी सर्जनात्मक प्रवृत्तियाँ इनमें हैं। उत्तर आधुनिकता को भारतीय साहित्यिक सिद्धांत के रूप में न मानने वालों को भी यह स्वीकार करना पड़ता है कि देवताले जी की कविता में सम कालीन समय की सभी प्रवृत्तियाँ मिलती हैं। सैद्धांतिक दृष्टि से आप उत्तर आधुनिकता को मानें या न मानें, ये कवितायेँ आधुनिक जागरण के परवर्ती विकास के रूप में रूपायित सामाजिक सांस्कृतिक आयामों को अभिहित करने वाली है।

 चंद्र कान्त देव ताले की कविता का यह अध्ययन समकालीनता को निकष  मानकर किया गया है। लेखिका ने स्थितियों और संवेदनाओं के बदलाव के सन्दर्भ में कविता की समकालीनता पर विचार करते हुए यह जतलाया है कि कल चेतना से सम्पान कविता ही तात्कालिकता के अतिक्रमण में सक्षम होती है। आज के कवि कर्म के बरक्स देव ताले की कविता को यहाँ कई कोणों देखा गया है। समय की अंधेर गर्दी से लेकर पारिवारिकता तक के अनेक सरोकार देवताले की कविता को प्रासंगिकता प्रदान करते हैं। वह उत्तर आधुनिक विमर्शों की कविता है। इसीलिये उसमें स्त्री पक्षीयता, आदिवासियों, दलितों तथा पर्यावरण के यथार्थ के साथसाथ सत्ता केन्द्रों के विखण्डित होने के सच को भी निर्ममतापूर्वक व्यंजित किया गया है। किस्सा कोताह यह कि वे केन्द्र की अपेक्षा हाशिये को उभारने वाली कवितायेँ हैं।

 कविता का भाषा पक्ष  ही सही माने में किसी कथन को 'कविता' बनाता है। इस पक्ष पर भी यहाँ पर्याप्त ध्यान दिया गया है और सपाट बयानी से लेकर बिम्ब तथा फंतासी के गठन तक पर सोदाहरण चर्चा की गई है।  चर्चा शैली गत विशेषताओं की भी है, परन्तु कविता-पाठ के शैलीय उपकरणों का विवेचन छोट गया है, यही इस कृति की सीमा भी है। परन्तु वह पक्ष इतना विशद है कि उसके लिए एक और स्वतंत्र ग्रन्थ लिखा जा सकता है। अतः कहा जा सकता है कि समय की अभिव्यक्ति की कसौटी पर चंद्रकांत देवताले की कविता का यह विवेचन बड़ी सीमा तक स्वतः पूर्ण है। निश्चय ही हिन्दी जगत इसका स्वागत करेगा।

 अंततः पाठकों के विमर्श के लिए  चंद्र कान्त देवताले का यह कवितांश निवेदित है.....

 "जबड़े जो आदमी के मांस में 
गड़ा देते हैं दाँत
यदि उन पर चोट करती है कविता 
तो मैं कविता का अहसानमंद हूँ.....
यदि भूख को पहचानने में 
समय की आँख बंटी है कविता 
तो मैं इस आँख का अहसानमंद हूँ। " 
[कविता का अहसानमंद]। 
 

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