अवसाद गीति

01-01-2024

अवसाद गीति

प्रो. ऋषभदेव शर्मा (अंक: 244, जनवरी प्रथम, 2024 में प्रकाशित)


 (1) 
मन डरा डरा सा रहता है

हर ओर चिताएँ सुलग रहीं
घनघोर दिशाएँ बिलख रहीं
उस छोर क्षितिज अँधियारा है
इस छोर हवाएँ सिसक रहीं

बस धुँआँ धुँआँ सा बहता है
मन डरा डरा सा रहता है

बारूदों भरी सुरंगें हैं
बस मारकाट हैं, दंगे हैं
सड़कों पर गीध नाचते हैं
आसन पर राजा नंगे हैं

सच बुझा बुझा सा रहता है
मन डरा डरा सा रहता है

शंखों में कालकूट भारी
अंधे गूँगे सब नर नारी
घुट्टी में ज़हर पिलाते हैं
यों नाच नाश का है जारी

दिन छिपा छिपा सा रहता है
मन डरा डरा सा रहता है

 

 (2) 
सूर्य मर गया धूप खो गई

 

अंबर से काल बरसता है
धरती की काया डसता है
सब शिखर भूमि पर लोट रहे
हिमगिरि सागर में धँसता है

दिन उगते ही साँझ हो गई
सूर्य मर गया धूप खो गई

राजा का रथ आता देखो
राजा आग लगाता देखो
दुनिया लपटों में जलती है
पर राजा हर्षाता देखो

गाँजा पीकर प्रजा सो गई
सूर्य मर गया धूप खो गई

अंधकार के प्रेत नाचते
युद्ध युद्ध के मंत्र बाँचते
सभी शिकारी एक हो गए
अंधकूप में धेनु हाँकते

 ब्लैक होल यह धरा हो गई
 सूर्य मर गया धूप खो गई

 (3) 
अब नहीं दिशाएँ दिखती हैं

 

वे बैठे सोने के रथ में
हम खड़े हुए धूमिल पथ में

वे भी अंधे हम भी अंधे
दोनों पर बिजली गिरती हैं

अब नहीं दिशाएँ दिखती हैं

यह हथियारों की मंडी है
वह नाच रही रणचंडी है

 

इन बड़े बड़े बाज़ारों में 
मुल्कों की बोली लगती हैं

अब नहीं दिशाएँ दिखती हैं

कमज़ोरों को मरना होगा
ताक़तवर से डरना होगा

 

सिंहासन तक बिक जाते हैं
सत्ताएँ भी तो बिकती हैं

अब नहीं दिशाएँ दिखती हैं

 (4) 
तुम कहते चिंता क्यों करनी

 

तुम योग क्षेम के वाहक थे
हमने सब तुम पर छोड़ दिया
हम जयकारों में व्यस्त रहे
पर तुमने वादा तोड़ दिया

अब अपनी करनी है भरनी
तुम कहते चिंता क्यों करनी

जिस ठौर प्रजा का ख़ून गिरा
उस ठौर महा सूखा होगा
सैरंध्री की यदि लाज लुटी
तो कीचक को डरना होगा

फिर काँपेगी सारी धरणी
तुम कहते चिंता क्यों करनी

वनवासी रामों को फिर से
अब धनुष हाथ धरना होगा
सोने के सारे हिरणों को
अब एक एक मरना होगा

डूबे न कहीं सच की तरणी
तुम कहते चिंता क्यों करनी

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