जब साँझ ढले पिय आ जाना
भव्य भसीन
जब साँझ ढले पिय आ जाना
ये रात बिरहा की नहीं कटती।
देखूँगी दर पे दिख जाना
ये प्यास दरस की नहीं मिटती।
ललित छवि अरु कुंतल कारे
प्राणपति मेरे कितने न्यारे
निशि दिन हिय में वास करो तुम
इन नैनन के अंजन प्यारे
जब रोती पुकारूँ सुन आना
ये अगन हृदय की नहीं मिटती।
जब साँझ . . .
अगणित जनम की व्यथा कहानी
प्रीतम क्या तुमने नहीं जानी
क्या कहूँ कैसी अधम हूँ प्यारे
जो दर्शन अधिकारी न जानी
जब प्राण मैं देऊ ले जाना
मेरी तुम बिन पीड़ा नहीं घटती।
0 टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
- कविता
-
- अति प्रिय सुंदर
- अब मोसे और रहा नहीं जाए
- कभी आना मुझसे मिलने
- कहूँ कैसे?
- कोई मुझे प्रेम सिखा दे
- क्या तुम आओगे
- जब साँझ ढले पिय आ जाना
- बावरा कन्हैया
- मायूसी
- मेरा ख़्याल तो करते होंगे ना
- मेरे मित्र बनो न
- मैं और तुम
- मैं कुछ कविताएँ लिख रहा हूँ
- मैं तुमसे ज़रूर मिलूँगी
- मैं श्मशान हूँ
- मोहे लाड़ लड़ाये कान्हा जी
- ये श्याम सखी बड़ी अटपट री
- रसिक सुंदर साँवरे
- सजनी मैं राह तकूँ
- सदा प्रेमाश्रु से ही स्नान करोगे क्या?
- नज़्म
- विडियो
- ऑडियो
-