चूहों की दौड़

01-09-2025

चूहों की दौड़

फाल्गुनी रॉय (अंक: 283, सितम्बर प्रथम, 2025 में प्रकाशित)

 

अमूमन हर दूसरे मिनट में 
एक मेट्रो ट्रेन आकर खड़ी हो जाती है
प्लैटफ़ॉर्म पर
झट से दरवाज़ा खुलता है
और एक भीड़ 
उतरकर हाहाकार मचाती हुई 
बिखर जाती है
शहर की सड़कों पर 
 
हम—
कंधे पे लाद कर बैग अपना
सरपट भागते हुए 
चढ़ते–उतरते हैं सीढ़ियाँ 
धक्के खाते हुए बदलते हैं ट्रेन 
सीट के लिए करते हैं 
जद्दोजेहद 
और थके क़दमों से नाप जाते हैं
हर दिन पूरा शहर
 
वही एक सा दिन
एक सी रात 
एक सी निर्धारित दिनचर्या
और अजीब सी दोहराव में घिसती ज़िन्दगी
तेज़ भागती हुई 
एक यांत्रिक लय में 
 
वही अनियंत्रित भीड़
लंबी–लंबी क़तारें 
अजनबी चेहरे 
और चुप्पी साधे ख़ुद में बड़बड़ाते हुए लोग
 
दम घोंट के ख़्वाहिशों का हम 
सहमे–ठिठके से हरदम
ढँक कर चेहरे को चेहरों से
हो जाते हैं शामिल
होड़ में
रोज़ चूहों की दौड़ में।

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