अंतिम संवाद
फाल्गुनी रॉययशोधरा-
यह कैसी बेचैनी है प्रियवर?
जो अकस्मात्
आज इस मुखमंडल पर
यूँ उतर आयी है,
सदैव मुस्कान बिखेरते ये अधर
आज एकाएक
गंभीर और शब्द-विहीन,
मेरा मन भयभीत हुआ जा रहा है
कहो कारण क्या प्रियवर है?
सिद्धार्थ-
तुम कहती हो ज़रा सा हँसते क्यों नहीं?
ये विश्व नाना प्रकार के दुःखों से
भरा पड़ा है यशोधरा !
इन अधरों पर हँसी आकर
ठहरती ही नहीं है।
एक यंत्रणा से मुक्त होता नहीं कि
दूसरी यंत्रणा
आकर क़तार में खड़ी हो जाती है
ज्वार की भाँति
भीतर उठती हुई
ये अंतहीन वासनायें कभी शांत होती ही नहीं
कामनाओं के साँकल में जकड़ा मेरा मन
चीखता–चिल्लाता, विद्रोह करता है
तब एक अनजान सी बेचैनी
उतर कर
बिखेर देती है एक गंभीरता
इन अधरों पर मेरी।
ये राज्य-साम्राज्य,
राजनीति, कूटनीति
ये भोग, विलासिता, ऐश्वर्य
ये रिश्ते-नाते, ये बंधन
और तो और ये जीवन भी
आज एकाएक माया सा लगता है
छलावा सा प्रतीत होता है
भुलावा भर लगता है
क्या ये सभी 'सच' हैं जीवन के?
यशोधरा! आज जैसे
एक दिशा मिल गई हो
इस भटके मन को
एक गति मिल गई हो ठहरे से ठिठके
जीवन को।
जाने क्यों?
अनायास ही विचलित हो उठा है,
यशोधरा! आज अकस्मात् ही
एक अनुसंधान मन में,
आ उठा है।
-फाल्गुनी रॉय
3 टिप्पणियाँ
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बहत ही खबसूरत कविता लिखी है, कविता को पढ़कर मेरे मन को अनेकानेक खुशियां मिल रहीं हैं। ऐसे ही खूबसूरत कविताएं लिखते रहिये। मैं आपकी कविता का बहुत प्रेमी हो गया हूँ।
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अति सुन्दर.... लाजवाब...
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सुंदर रचना