शिकायतें
फाल्गुनी रॉयकहीं बैठ कर एकांत में आज
सोच रही होगी
वो मेरे ही बारे में ज़रूर,
खिझलाकर
पलट रही होगी अतीत के पन्नों को
या समेट रही होगी बैठे-बैठे दर्द कहीं
शायद तभी मन मेरा भी बैठा जा रहा है।
शिकवा तो बहुत होगा कल्याणी
बड़ी लंबी चौड़ी होगी शिकायतों की फ़ेहरिस्त है न!
सहेज रखी होगी सीने में ज़रूर भर-भर कर
नाराज़गी अरसे की
तेरा शिकवा जायज़ है कल्याणी
जायज़ है तड़पकर एकांत में भेजना
तुम्हारी ग़मगीन आहें
मेरी ओर।
पर अफ़सोस न कर
आज वक़्त के इस पड़ाव पर आकर लगता है
विभाजन और विरह ही
वास्तविक परिणति है प्रीत की
एक टीस का उठना रह-रह कर
खिझला कर बैठ जाना,
खिन्न होकर पलटना
एकांत में अतीत के पन्नों को,
समेटना दर्द,
उतरना फिर छाती में यंत्रणाओं का
एक -एक कर बारी-बारी -
रंजिश,
नफ़रत,
और नाराज़गी,
अंतिम परिणति है प्रीत की
कुछ और नहीं कल्याणी!
यह प्रीत ही तो है
जो तुझमें, मुझमें न जाने क्या-क्या बन कर
आ उतरता है बार-बार
तब छटपटा कर भेज देती हो
अपनी झुँझलाहट भरी आहें तुम मेरी ओर
ख़ुद को हल्का करने के लिए
और कर देती हो मुझे भारी और गंभीर हर बार।