किस अधिकार से?
धर्मेन्द्र सिंह ’धर्मा’
संध्या में मुस्कुराती वह,
लहराती, शरमाती
विभिन्न प्रकार की हरकतों से
अपनी ओर आकर्षित कर . . .
पुकार रही हो जैसे अपने गुलज़ार में,
अलग क़िस्म की महक से भरपूर
अपनी चमक से आतुर करने में सक्षम . . .
गुलाब, चमेली, बेला या अन्य
न जाने किस डाली का हिस्सा?
अनजान वह, पूर्ण रूप से अनभिज्ञ . . .
प्रयासरत था . . .
तोड़ लेने की ख़ातिर . . .
किन्तु! किस अधिकार से?
यकायक पनप उठा . . .
एक सुकोमल व्यक्तित्व
भीतर ही कहीं।
थाम लिये जिसने आतुर हाथ।
सफल हुआ वह . . .
उस कुमुद की चमक को
बरक़रार रख पाने में . . .
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