हमेशा क़ायम नहीं रहतीं ‘सरहदें’ : सुबोध

15-08-2019

हमेशा क़ायम नहीं रहतीं ‘सरहदें’ : सुबोध

प्रो. ऋषभदेव शर्मा

समीक्ष्य पुस्तक : सरहदें (कविता संग्रह)
लेखक : सुबोध श्रीवास्तव
प्रकाशक :अंजुमन प्रकाशन, 942, आर्य कन्या चौराहा, मुठ्ठीगंज, इलाहाबाद – 211003
संस्करण : 2016
पृष्ठ : 96
मूल्य : ₹ 120   
समीक्षक : ऋषभदेव शर्मा

‘सरहदें’ (2016) सुबोध श्रीवास्तव का दूसरा कविता संग्रह है। वे कविता, गीत, ग़ज़ल, दोहे, मुक्तक, कहानी, व्यंग्य, निबंध, रिपोर्ताज और बाल साहित्य जैसी विविध साहित्यिक विधाओं में निरंतर सार्थक सृजन करने वाले बहुआयामी प्रतिभा के धनी क़लमकार है। पत्रकारीय लेखन के अतिरिक्त वे अपने काव्य संग्रह ‘पीढ़ी का दर्द’, लघुकथा संग्रह ‘ईर्ष्या’, बालकथा संग्रह ‘शेरनी माँ’ और ई-पत्रिका ‘सुबोध सृजन’ के लिए पर्याप्त चर्चित है।

विवेच्य संग्रह (सरहदें) में सुबोध श्रीवास्तव की 41 कविताएँ शामिल हैं जिन्हें दो खंडों में रखा गया है – 32 ‘सरहदें’ खंड में और 9 ‘एहसास’ खंड में। ‘एहसास’ में सम्मिलित रचनाओं को ‘प्रेम कविताएँ’ कहा गया है। यह वर्गीकरण न किया जाए, तो सारी कविताएँ मिलकर स्वयं स्वतंत्र पाठ रचने में समर्थ हैं। यह पाठ सरहद के विभिन्न रूपों से संबंधित है। हदें और सरहदें मनुष्य के वैयक्तिक और सामाजिक आचरण को नियंत्रित करती हैं। वैयक्तिकता जहाँ बे-हद और अन-हद की ज़िद करती है वहीं सामाजिकता सर्वत्र और सर्वदा हदों का निर्धारण करती चलती है। ‘सीमित’ और ‘सीमातीत’ के द्वंद्व में से उपजती है मनुष्यों, राष्ट्रों, समाजों और समस्त जगत के आपसी संबंधों की विडंबनाएँ। सुबोध श्रीवास्तव इन विडंबनाओं को पहचानते ही नहीं, जीते भी हैं। इस जीवंत अनुभूति से ही रची गई हैं ‘सरहदें’ की ये कविताएँ।

‘सरहदें’ हमारा समकाल या वर्तमान है। कविमन समकाल का अतिक्रमण करके कभी अतीत में जाता है तो कभी भविष्य में। अतीत स्मृतियों में वर्तमान रहता है तो भविष्य शुभेच्छा में वर्तमान रहता है। अभिप्राय यह है कि वर्तमान का सच होते हुए भी सरहदें स्मृतियों और शुभेच्छाओं को बाधित नहीं करतीं। स्मृतियाँ और शुभेच्छाएँ किसी सरहद को नहीं मानतीं। कविमन भी किसी सरहद को कब मानता है!

सुबोध श्रीवास्तव की कविताओं में एक ख़ास तरह का कथासूत्र विद्यमान रहता है जो कविताओं को संवाद की नाटकीयता प्रदान करता है। अपनी वैचारिकता को स्थापित करने के लिए कवि ने प्रश्नों, तर्कों और सीधे संबोधनों का अनेक स्थलों पर प्रयोग किया है। कवि की अपनी अभिप्रेत दुनिया की व्यवस्था का पता वे रचनाएँ देती हैं जो संभावनाओं और शुभेच्छाओं से भरी हुई हैं। सुबोध बच्चों को मनुष्य में विद्यमान सहजता और दिव्यता के अंश के रूप में देखते हैं और वह उनके लिए भविष्य का भी प्रतीक है। स्वार्थ, हिंसा और आतंक से भरी दुनिया में ज़हरीले कीड़े को बचाता नन्हा बच्चा अपनी निस्संगता में मानवता का संरक्षक बन जाता है। बच्चे और भी हैं। वर्षा के जल में खेलते अधनंगे बच्चे कवि को अतीत में ले जाते हैं – घर और बचपन की स्मृतियों में। ऐसा प्रतीत होता है कि कवि असमय इन दोनों से बिछुड़ गया है। घर, शायद इसीलिए इन कविताओं में पीड़ा और वेदना का स्रोत बनकर उभरा है।

कवि की यह शुभेच्छा अनेक रूपों में व्यक्त हुई है कि एक दिन ‘टूटकर रहेंगी सरहदें’ और सरहद के इस पार के बच्चे जब उल्ल्हड़ मचाते सरहद के करीब से गुज़रेंगे तो उस पार के बच्चे भी साथ खेलने को मचल उठेंगे – “फिर सब बच्चे/ हाथ थाम कर/ एक दूसरे का/ दूने उत्साह से/ निकल जाएँगे दूर/ खेलेंगे संग-संग/ गाएँगे गीत/ प्रेम के, बंधुत्व के/ तब/ न रहेंगी सरहदें/ न रहेंगी लकीरें।” ‘सरहदें’ का विखंडन करने पर यही तथ्य सामने आता है कि कवि बात तो सरहदों की कर रहा है लेकिन सरहदों के ‘न होने’ का प्रबल हामी है। यह तथ्य कवि की मुक्ति चेतना का द्योतक है। यह मुक्ति चेतना हर सरहद को नकारती है, बावजूद इसके कि बार-बार सरहदों की स्वीकृति आ उपस्थित होती है।

कवि जब आह्वान करता है – ‘निकलो/ देहरी के उस पार/ वंदन अभिनंदन में/ श्वेत अश्वों के रथ पर सवार/ नवजात सूर्य के’ ××× ‘उठो निकलो/ देहरी के उस पार/ इंतजार में है वक्त’ तो वह ऐसी बेहतर दुनिया का स्वप्न देख रहा होता है जहाँ सरहदें न हों। इसीलिए आतंक की खेती करने वालों को उनकी कविता सीधे संबोधित करते हुए कहती है – ‘तुम्हें/ भले ही भाती हो/ अपने खेतों में खड़ी/ बंदूकों की फसल/ लेकिन -/ मुझे आनंदित करती है/ पीली-पीली सरसों/ और/ दूर तक लहलहाती/ गेहूं की बालियों से  उपजता/ संगीत।/ तुम्हारे बच्चों को/ शायद/ लोरियों सा सुख भी देती होगी/ गोलियों की तड़तड़ाहट/ लेकिन/ सुनो..../ कभी खाली पेट नहीं भरा करतीं/ बंदूकें,/ सिर्फ कोख उजाड़ती हैं।’

यादों में वह शक्ति है जिसके सामने सरहदें क़ायम नहीं रह पातीं। घर हो या समाज या देश या दुनिया – हृदय की रागात्मकता इनमें से किसी को भी हदों और सरहदों में बाँधने और बाँटने में यक़ीन नहीं रखती – ‘हमेशा/ कायम नहीं रहतीं/ सरहदें.../ याद है मुझे/ उस रोज/ जब/ अतीत की कड़वाहट/ भूलकर/ उसने/ भूले-बिसरे/ सपनों को फिर संजोया,/ यादों के घरौंदे में रखी/ प्यार की चादर ओढ़ी/ और/ उम्मीद की उंगली थामकर/चल  पड़ा/ ‘उसे’ मनाने।/ तेज आवाज के साथ टूटीं/ सरहदें/ और/ रूठ कर गई जिंदगी/ वापस दौड़ी चली आई...’।

कवि को विश्वास है कि सरहदें टूटने से ही चुप्पी की दुनिया का विनाश संभव है क्योंकि इस चुप्पी ने ही ऐसी स्थितियाँ उत्पन्न की है कि यादों को स्थगित करके कवि को नियतिवादी बनना पड़ा है – ‘हम सफर/ गुजरे वक्त को/ याद करके/ विचलित न करो मन को/ मेरा मुजरिम/ तू नहीं/ नियति है/ जिस पर किसी का जोर नहीं।’ सीमाओं और मर्यादाओं को स्वीकार करते हुए भी नियति और विवशता के बहाने हम उन्हें अस्वीकार और स्थगित ही तो करते हैं। अपनी-अपनी हदों में बँधे हम एक दूसरे की ख़ुशी और मजबूरी की दुहाई देते रहते हैं – ‘सरहद, न तेरी थी कोई/ सरहद, न मेरी थी कोई/ वो खुशी थी कल की/ ये विवशता है आज की/ इक सरहद तेरी भी/ है इक सरहद मेरी भी...!’

कुल मिलाकर सरहदें हमें शिद्दत के साथ यह अहसास कराती हैं कि हमें उनका अतिक्रमण करने का पूरा हक़ है। इसीलिए कवि न तो चाँद को चाहता है न सूरज को और न आकाश को। न वह चाँद, सूरज और आकाश जैसा होना चाहता है। वह तो अपने शाश्वत अस्तित्व की समस्त संभावनाओं के साथ बस हर सरहद का अतिक्रमण करना चाहता है, कुछ इस तरह कि -

मैं घुलना चाहता हूँ
खेतों की सोंधी माटी में,
गतिशील रहना चाहता हूँ
किसान के हल में,
खिलखिलाना चाहता हूँ
दुनिया से अनजान
खेलते बच्चों के साथ,
हाँ, मैं चहचहाना चाहता हूँ
सांझ ढले/ घर लौटते
पंछियों के संग-संग,
चाहत है मेरी
कि बस जाऊँ/ वहाँ-वहाँ
जहाँ –
साँस लेती है ज़िंदगी
और/ यह तभी संभव है
जबकि
मेरे भीतर ज़िंदा रहे
एक आम आदमी!


-  प्रो. ऋषभदेव शर्मा
पूर्व आचार्य एवं अध्यक्ष, 
उच्च शिक्षा और शोध संस्थान, 
दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, हैदराबाद.
rishabhadeosharma@yahoo.com
मोबाइल – 8074742572
 

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