विष्णु प्रभाकर के नाटकों का सामाजिक परिदृश्य

15-06-2024

विष्णु प्रभाकर के नाटकों का सामाजिक परिदृश्य

प्रो. (डॉ.) प्रतिभा राजहंस (अंक: 255, जून द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)

 

गाँधीजी के जीवन मूल्यों और आर्यसमाज के सुधारवादी दर्शन से प्रभावित विष्णु प्रभाकर ने तत्कालीन परिस्थितियों में राष्ट्रीयता और मानवता के हित के उद्देश्य से साहित्य सृजन किया है। उन्होंने साहित्य की लगभग सभी विधाओं में बेहतरीन रचनाएँ कीं। उन्होंने नाटक, एकांकी, कहानियाँ, कविताएँ, उपन्यास, निबंध तथा बालसाहित्य की रचना की। अनुवाद तथा संपादन किया। आकाशवाणी, दूरदर्शन, पत्र-पत्रिकाओं के प्रकाशन आदि में ख्याति प्राप्त की। देश-विदेश की अनेक यात्राएँ कर यात्रावृत्तांत भी लिखे। इसके लिए उनको अनेक विशिष्ट पुरस्कार प्राप्त हुए; यथा: सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार, पाब्लो नेरुदा सम्मान, पद्मभूषण पुरस्कार, शलाका सम्मान, साहित्य अकादमी पुरस्कार, मूर्तिदेवी पुरस्कार इत्यादि। 

विष्णु प्रभाकर के बहुविषयक नाटकों में ऐतिहासिक, राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक-साम्प्रदायिक, सांस्कृतिक इत्यादि सभी हैं। 

‘नवप्रभात’, ‘सत्ता के आर पार’, और ‘गान्धार की भिक्षुणी’, उनके ऐतिहासिक नाटक हैं। राजनीतिक नाटकों में ‘केरल का क्रांतिकारी’, ‘कुहासा और किरण’, और ‘गान्धार की भिक्षुणी’ हैं। 

विष्णु प्रभाकर के सामाजिक नाटकों का फलक अत्यंत विस्तृत है। उनमें तत्कालीन समाज की सभी तरह की समस्याओं—लिंग-भेद, वर्ण-भेद, वर्ग-भेद, धार्मिक अंधविश्वास, सांप्रदायिकता, पारिवारिक विघटन, नयी पीढ़ी द्वारा पारंपरिक मान्यताओं का तथा माता-पिता का विरोध, परंपरा से मुक्ति की चाहत और पाश्चात्य संस्कृति का पोषण, विवाह संस्था का विरोध, अविवाहित सहजीवन का समर्थन, पत्नी और बच्चों का निषेध कर उन्मुक्त यौनसुख का समर्थन इत्यादि को यथार्थ रूप में प्रस्तुत किया है। कहा जा सकता है कि विष्णु प्रभाकर वर्षों पूर्व नवयुवकों की समाज को विकृति की ओर ले जाने वाली रुझान को पहचान रहे थे और तद्‌नुसार उसका चित्रण भी कर रहे थे। 

उनके सामाजिक नाटकों में ‘डॉक्टर’, ‘टगर’, ‘प्रकाश और परछाइयाँ’, ‘बारह एकांकी’, ‘अब और नहीं’, ‘टूटते परिवेश, ‘बन्दिनी’, इत्यादि उल्लेखनीय हैं। 

वर्ग-वैषम्य के अन्तर्गत उच्च, मध्यम और निम्न—तीनों वर्गों में विभक्त समाज है। समाज का पूँजीपति वर्ग अपनी स्वार्थपूर्ति हेतु कूटनीतिक चालों को बढ़ावा देता है। उनके पहले ही नाटक ‘हत्या के बाद’, में कामरेड आदित्य पूँजीपतियों के प्रति विद्रोह को मुखर करता है—“पूँजीपतियों के पास धन है, बुद्धि है और सबसे बढ़कर ईश्वर और धर्म की ढाल है। पर यह सब ढोंग है। हमारी सच्ची शक्ति के सामने वे अधिक दिन टिक न सकेंगे।” 

‘गाँधीजी का सपना’, नाटक में समानता की भावना की अभिव्यक्ति हुई है—“उन्हें सोचना चाहिए कि जो कुछ हमारे पास है वह अकेले हमारा नहीं है।” ‘सर्वोदय’, ‘अस्पृश्यता’, ‘सबमें एक प्राण’, जैसे नाटकों में उच्च और निम्न वर्ग की विषमता को दूर कर समान रूप से रहने का संदेश दिया है। ‘सर्वोदय’, नाटक में कहलाया गया है—“अमीर की अमीरी और ग़रीब की ग़रीबी दोनों रोग हैं। इस रोग का नाश ही सर्वोदय का लक्ष्य है— ये नाटक विनोबा भावे के सर्वोदय आंदोलन से प्रभावित है। 

मध्यमवर्गीय समाज के अंतर्गत लिंगभेद, पारिवारिक विघटन, परंपरा से मुक्ति की चाहत, पाश्चात्य संस्कृति की ओर रुझान, विवाह संस्था का विरोध, अविवाहित सहजीवन का समर्थन, पत्नी से अधिक प्रेयसी का मान इत्यादि बातें उद्घाटित हुई हैं। वे ऐसा समाज चाहते हैं, जहाँ नारी-उत्पीड़न न हो। उनके अनेक पात्र स्त्री-पुरुष समानता के पक्षधर हैं। ऐसा न होने पर वे कई स्थानों पर विद्रोह करते हैं। उनके नाटकों में दो श्रेणी के स्त्री-पुरुष मिलते हैं: 1. परंपराजीवी और 2. नई चेतना व आधुनिकताबोध से युक्त। समाज में नारी अधिकार की माँग कोई नवीन बात नहीं है। ‘अर्धनारीश्वर’, नाटक स्त्री-पुरुष के सम्बन्धों पर है। नर और नारी दोनों से बने समाज में दोनों के बराबर हिस्से हैं। उनके अधिकांश नारी पात्र शिक्षित हैं। उनके नाटकों में स्त्री-पुरुष अपने विवाह के संदर्भ में माता-पिता की अनुमति लेना ज़रूरी नहीं समझते। ‘टूटते परिवेश’, नाटक की मनीषा, विवेक, दीप्ति, ‘प्रकाश और परछाई’, नाटक की सुधा, ‘साँकलें’, नाटक का दीपक, ‘युगे-युगे क्रांति’, के प्रदीप और शारदा, ‘दरारों के द्वीप’, की शालिनी, ‘श्वेत अंधकार’, के विमल, ‘दो किनारे’, की अलका विवाह हेतु वर के चयन की स्वतंत्रता को अपना अधिकार मानती हैं। वे स्त्री स्वतंत्रता का हनन करने वाले पुरुष से सम्बन्ध-विच्छेद में संकोच नहीं करती हैं। ‘सम रेखा विषम रेखा’, नाटक की रेवा, ‘कापुरुष’, नाटक की मंजू, ‘डरे हुए लोग’, नाटक की मंजुला, ‘तीसरा आदमी’, नाटक की सुचेता ऐसी स्त्री पात्र हैं, जो पुरुषों के द्वारा उनकी स्वतंत्रता का विरोध किए जाने पर उनसे अलग होने में कोई संकोच नहीं करतीं। 

नारी स्वातंत्र्य और नारी-स्वावलम्बन के समर्थक विष्णु प्रभाकर ने अपने नाटकों में नारी जीवन की अनेक समस्याओं को अपेक्षाकृत अधिक तल्ख़ी से उठाया है। वे कहते भी हैं—“मेरे साहित्य का मूल स्वर ‘नारी मुक्ति’ और धार्मिक शोषण का विरोध है। मैं सामाजिक और आर्थिक समानता का पक्षधर हूँ।” अपने नाटकों में सजग और जागरूक नारी पात्रों को परंपरागत रूप धारण करते हुए भी दिखाया है। 

‘मनोवृत्ति’, शीर्षक नाटक में पुरुष की दोहरे मापदंड वाली दृष्टि पर कहा है—“आजकल युवक फ़ॉरवर्ड स्त्रियों को पसंद करते हैं लेकिन अपनी पत्नी को कोई फ़ॉरवर्ड नहीं देखना पसंद करता।” ‘भोगा हुआ यथार्थ’, नाटक में पिता-पुत्री के सम्बन्धों में बिखराव है। पिता पारसनाथ उच्च कुलीन योग्य वर से अपनी पुत्री के विवाह की योजना बनाते हैं, किन्तु पुत्री उन्हें किसी अन्य युवक से अपने विवाह की सूचना देकर दुखी करती है। 

विष्णु प्रभाकर ने पारिवारिक विघटनशीलता को भी नाट्य-विषय बनाया है। वे परिवारों में लगातार हो रहे विघटन का मूल रुचि भिन्नता, शहरीकरण, स्वार्थ, शिक्षा, पाश्चात्य प्रभाव बतलाते हैं। नाटक ‘टूटते परिवेश’, में विश्वजीत के परिवार के सभी सदस्य अपनी इच्छा के अनुसार जीवन जीना चाहते हैं। रुचि-भिन्नता ही इस परिवार को विघटित कर देती है। इस नाटक का शिक्षित युवक विवेक बाहर जाते समय पिता द्वारा टोके जाने पर कहता है—“आप हमारे पिता हैं इसमें कोई संदेह नहीं। लेकिन इसलिए ही आप हमें नहीं रोक रहे हैं। आप हमें इसलिए रोक रहे हैं कि आप हमें पैसे देते हैं। मैं आप पर आश्रित हूँ।” पिता जब परंपरा की बात करते हैं तब वह ढिठाई से उन्हें निरुत्तर कर देता है—“पापा तब न लोग चाँद पर पहुँचे थे, न टेरलीन पहनते थे। यह न्यूक्लियर टेक्नॉलोजी की एज है।” नई पीढ़ी पुरानी पीढ़ी को असफल पीढ़ी मानती है। उनके व्यापक अनुभव, विश्वास, धार्मिकता व उदारता का निषेध करती है। इससे आपसी निर्भरता टूटती है। ‘शतरंज के मोहरे’, नाटक में प्रेमविवाह के कारण घर टूटता है। मध्यमवर्गीय युवा पीढ़ी द्वारा विवाह संस्था का विरोध अन्य नाटकों में भी हुआ है। ‘टूटते परिवेश’, ‘साँकलें’, ‘युगे युगे क्रांति’, ‘दो किनारे’, ‘युग संधि’, नाटकों में युवक-युवतियाँ अपने विवाह में वर/वधू के चयन में स्वतंत्रता चाहते हैं। साँकलें का दीपक अपने विवाह में माता-पिता का हस्तक्षेप ग़ैरज़रूरी मानता है। ‘टूटते परिवेश’, और ‘दो किनारे’, की मनीषा और दीप्ति व अलका अपनी इच्छा से विवाह का निर्णय लेती हैं। ‘युगे युगे क्रांति’, में अन्विता दीपक से प्यार करती है, लेकिन विवाह चित्रकार के साथ करने का निर्णय लेती है। ‘युग संधि’, नाटक का हरीश अपनी माँ की इच्छा के विरुद्ध अपने से छोटी जाति की राधा से विवाह ही नहीं करता है, बल्कि अपने कृत्य की पुरज़ोर वकालत भी करता है, “मैं राधा से कहूँगा तेरे कारण मेरे कुल की बदनामी होती है इसलिए मैं तुझे अपने कुल की बहू नहीं बनाऊँगा बल्कि तेरे कुल का वर बनूँगा।”

यद्यपि यहाँ परंपरा का विरोध है। तथापि यह एक क्रांतिकारी क़दम भी है। ‘सांकलें’, और ‘दो रेखाएँ’, के परेश और कुमुद कहते हैं कि हमने विवाह को जीवन का सर्वस्व मान लिया है। तभी यह विडम्बना है। कई संगिनियों को बदल चुका विवाह में विश्वास नहीं करने वाला अनिरुद्ध ‘युगे युगे क्रांति’, में अपने पिता से कुतर्क करता है—“विवाह हमारे समाज में मात्र एक परंपरा का पालन है। उसके पीछे अब जीवन की कोई अनुभूति नहीं रह गई है और अनुभूति के अभाव में परंपराएँ सड़ जाती हैं। इन सड़ी-गली परंपराओं से चिपके रहने से समाज रोगी हो जाता है। इसके अतिरिक्त आपके शास्त्र में क्या और कोई विकल्प नहीं है?” 

‘धुआँ’ विवाहेतर प्रेम सम्बन्ध की वकालत करता है। अपने मित्र की पत्नी मंजरी से प्रेम करने वाला प्रमोद कहता है—“मंजरी का प्रेम मुझे दासता की ज़ंजीरों में नहीं बाॅंधता। मैं उसे बहुत प्यार करता हूँ क्योंकि मैं उसे पा नहीं सकता।”  ‘तीसरा आदमी’ की सुचेता, ‘उपचेतना का छल’ की ‘तारा’, ‘अभया’ की नायिका अभया पति को छोड़कर पूर्व प्रेमी से शादी करना चाहती हैं। ये मातृत्व को जीवन का अनुपम सुख नहीं, बल्कि अपने व्यक्तित्व का बाधक मानती हैं। 

प्रायः सभी पात्र प्रेम करना अपना अधिकार समझते हैं। किन्तु, इनमें प्रेम-संबंधों का परिवर्तित दृष्टिकोण सामने आता है। इस प्रेम में अनन्यता या स्थिरता का अभाव है। ‘धुआँ’ नाटक भी प्रेम संबंधों पर आधारित है। प्रमोद विवाह पूर्व आनंद की पत्नी मंजरी से प्यार करता है। उसके विवाह के बाद भी उससे प्रेम बनाए रखता है। इसके लिए वह तर्क देता है—“मंजरी का प्रेम मुझे दासता की ज़ंजीरों में नहीं बाँधता। वह मुझे आज़ाद रखता है। उसे मैं बहुत प्यार करता हूँ क्योंकि मैं उसे पा नहीं सकता। नीरजा . . . नीरजा को भी मैं कम प्यार नहीं करता। बस उसके प्रेम में आवेश नहीं है। क्योंकि, प्रेम पात्र सदैव पास रहता है।” यहाँ पत्नी से अधिक प्रेयसी को महत्त्व दिया गया है और कहा गया है कि वह अलभ्य है, अप्राप्य है, इसीलिए अधिक प्रिय है। विवाहेतर प्रेम-प्रसंगों के कई उदाहरण इन नाटकों में मिल जाते हैं। ‘तीसरा आदमी’ की सुचेता ‘उपचेतना का छल’ की तारा ‘अभया’ की अभया पति को छोड़कर पूर्व प्रेमी से शादी करना चाहती हैं। अभया मातृत्व को जीवन का अनुपम सुख नहीं, बल्कि अपने व्यक्तित्व में बाधक मानती है। ‘लिपस्टिक की मुस्कान’ की रीता कहती है—“आजकल बच्चों की बिल्कुल भी ज़रूरत नहीं है। विवाह की भी ज़रूरत नहीं है। विवाह करो, अंधाधुंध संतान पैदा करो, जीवन की साँसें पूरी करो और ग़ुलामी में मर जाओ, यह कोई ज़िन्दगी है।”

इन नाटकों में अविवाहित सहजीवन को प्रश्रय मिला है। यद्यपि तत्कालीन परिवेश में यह सहज नहीं था। फिर भी, दांपत्य-जीवन की खटास की वजह से विकल्प की तलाश शुरू हो चुकी थी। यह नवीनता की परिचायक है। 

इन विसंगतियों के अलावा समाज में धार्मिक अंधविश्वास और पाखंड का पर्दाफ़ाश ‘बंदिनी’ में किया गया है। कालीनाथ सपने में सुने काली माँ के आदेश को सत्य मानकर छोटे भाई सुरेन्द्र की पत्नी उमा को देवी मान बैठता है। उमा भी भ्रमित हो जाती है। जिससे बीमार पड़ने पर उमा की बेटी को डॉक्टर से न दिखाकर देवी के भरोसे छोड़ दिया जाता है और बच्ची की मृत्यु हो जाती है। 

‘वापसी’ नाटक में हिन्दू-मुस्लिम वैमनस्य है। शत्रु सेना के सैनिक असगर को कश्मीर के उसी गाँव पर आक्रमण का आदेश मिला है, जिसमें विभाजन के पहले वह रहता था। वह असमंजस में पड़ जाता है। उसे चौधरी की बात याद आती है, जो जाते समय उसने कही थी, “याद रखना हम दोस्त हैं दोस्त ही रहेंगे”। वह सोचता है—“सच तो यह है कि साथ रहते थे तब भी दुश्मन माने जाते थे, अलग हैं तो भी दुश्मन . . .। क्या यह माहौल बदल नहीं सकता? क्या हम कभी एक-दूसरे को प्यार नहीं कर सकते? . . . हिन्दू जाट, मुसलमान जाट आख़िर दोनों जाट ही तो हैं।” 

‘समंदर’ में भी देश के विभाजन का दर्द है। सांप्रदायिक दंगों और भीषण रक्तपात के चित्रण के साथ हिन्दू, मुस्लिम और सिखों के बीच के भेदभाव को मिटाकर एकता की स्थापना का प्रयास भी हुआ है। 

विष्णु प्रभाकर के समाजवादी नाटकों में यथार्थ और आदर्श का सुंदर समन्वय है। वे श्रेष्ठ विचारक, चिंतक और समाज सुधारक हैं। उनका मानवतावाद पाठकों को जाति, धर्म, संप्रदाय से ऊपर उठाते हैं। वे मानते थे कि व्यक्ति की संवेदना जब मानव की संवेदना में रूपायित होती है तभी कोई रचना साहित्य की संज्ञा पाती है। साहित्य समाज का दर्शन ही नहीं, बल्कि समाज को पहचानने की दृष्टि भी है। 

सारंश है कि नाटककार विष्णु प्रभाकर ने तत्कालीन समय के सभी महत्त्वपूर्ण विषयों पर विचारोत्तेजक नाटक लिखे। समसामयिक मुद्दों पर विचार करते हुए समाधान की ओर पाठकों का ध्यानाकर्षण भी किया है।

प्रो. (डॉ.) प्रतिभा राजहंस
मारवाड़ी महाविद्यालय, भागलपुर
pratibha.rajhans40@gmail.com

1 टिप्पणियाँ

  • मेरे आलेख को अपनी विशिष्ट पत्रिका साहित्य कुंज में स्थान देने के लिए संपादक महोदय का आभार।

कृपया टिप्पणी दें