भैयामाय

01-09-2024

भैयामाय

प्रो. (डॉ.) प्रतिभा राजहंस (अंक: 260, सितम्बर प्रथम, 2024 में प्रकाशित)

 

अपनी बड़ी माँ—ताई को हम भैयामाय कहते थे। अर्थात् हमारे भैया लोगों की माँ। बचपन की उम्र में हमें माँ से ज़्यादा भैयामाय अच्छी लगती थीं; क्योंकि, वे हमें हमारी माँ से अधिक प्यार करती थीं। वे हमारी ग़लती होने पर भी हमें माँ की डाँट और मार से बचा लेती थीं। बचा ही नहीं लेती थीं, बल्कि उल्टे माँ को ही डाँट देती थीं और झपटकर हमें अपने आँचल में छिपा अपने ओसारे पर अपने संरक्षण में ले जाकर रखती थीं। हम तीनों भाई-बहन डेढ़-दो साल के छोटे–बड़े थे, क़रीब एक-से उम्र के। सो हमें सँभालने में परेशान हो जाती थी, अकेली माँ। 

हमारा जुड़ाव माँ से अधिक भैयामाय से ही था। इसके कई कारण थे। एक तो माँ को घर के कामों को निबटाते हुए हमें पढ़ाना भी पड़ता था और पढ़ाई में हमारी रुचि ज़रा कम ही हुआ करती थी। संयुक्त परिवार के बड़े-से घर-आँगन में हमेशा कोई-न-कोई रोचक नज़ारा होता रहता था, जो पढ़ाई से हमारा ध्यान बरबस खींच लेता और नहीं पढ़ने पर माँ से मार खानी पड़ती थी। आज भी वे दृश्य याद आते हैं कि गोयठा चूल्हे में डालते हुए और कभी साग-सब्ज़ी छौंकते या माँड़ पसाते हुए जब माँ हमारी तरफ़ भी देखने की कोशिश करतीं और ध्यान बँट जाने पर माँ का हाथ कभी चूल्हे या गर्म बरतन से छू जाता या माँड़ हाथ पर से बहने लगता था तो जलन से छटपटाई माँ ग़ुस्सा उठती थीं। इधर माँ को हम काम में उलझी देखकर किताब या स्लेट के बदले मुँडेर पर कौओं की लड़ाई देखने में व्यस्त हो जाते थे कि अचानक पीठ पर ‘धम्म’ की आवाज़ के साथ माँ का मुक्का पड़ता था। मुक्के की धमक से माथा तक झन्ना उठता था और जल्दी-जल्दी से छूटा हुआ पाठ ज़ोर-ज़ोर से पढ़ने की कोशिश में हमारी रुलाई फूट पड़ती थी। दो-एक बार तो भैयामाय बरदाश्त कर लेती थीं। उसके बाद हमला बोल देती थीं—“हड़ासंख नैतिन, बच्चा क मारी देभौ की?” वे झपटकर हमें पीछे खींच लेतीं और भर पाँजा उठाकर अपने ओसारे पर ले जाती हुई माँ के लिए गालियों की बौछार करती जातीं। माँ हतप्रभ रह जातीं। फिर हम पढ़ाई से मुक्त होकर खेल में व्यस्त हो जाते। तब हमें भैयामाय की झिड़की खानी पड़ती—‘भले चालीं नी धूनै छह मैयां। कखनूँ पढाय में मने नै लागै छह है बुतरू बच्चा के।’ 

माँ कभी भैयामाय को कोई जवाब नहीं देती थीं। वे उनका अदब मानती थीं। कभी-कभी किसी बात पर नाराज़गी भी होती थी। पर, हार माँ की ही होती थी। भैयामाय बड़ी जो थीं। 

भैयामाय का स्वभाव अजीब था। वे हमें बहुत प्यार करती थीं। अच्छी-अच्छी चीज़ें भी देती थीं खाने के लिए। पर, उन्हीं खाने की चीज़ों के लिए माँ से झगड़ पड़ती थीं। वे माँ के कमरे से भी दूध-दही, फल-फूल अक्सर उठाकर भैया लोगों को खिला देतीं। जब माँ खाने या खिलाने के समय खोजने जातीं और चीज़ें नहीं पातीं तो ग़ुस्सा जाती थीं। माँ के बिगड़ने का यही कारण था। लेकिन, भैयामाय माँ को इतनी तरजीह ही कहाँ देती थीं कि माँ की बात लगने देतीं। 

भैयामाय बहुत सरल, पर स्वाभिमानी, नम्र पर बहुत ज़िद्दी स्वभाव की किसान परिवार की बहू-बेटी थीं। वे जी-जान से खटने वाली महिला थीं। किफ़ायती थीं। संचयी थीं। स्वभाव से हँसमुख थीं। उनके चेहरे में विशेष आकर्षण नहीं था। दादी उन्हें कुरूप ही कहती थीं। दंतविहीन पोपला मुँह और साधारण क़द-काठी थी उनकी, जबकि, दादी गोरी थीं। उनके लंबे चेहरे पर लंबी नाक और लाल ओंठ बहुत शोभते थे। सुराहीदार गर्दन और इकहरी देह उनको सुंदर बनाते थे। दादी को भरमुँह दाँत भी थे। भैयामाय को देखकर पागुर करती बकरी का मुँह ख़्याल आता था। हम भैयामाय से उनके दाँत के बारे में पूछते होते तब दादी कुढ़ कर कहतीं–‘हमरी सास छिकै, तहीं सें दाँत टूटी गेलै।’ तब हम इसके पीछे छिपा व्यंग्य नहीं समझते थे। बाद में पता चला कि भैयामाय को जवानी में ही त्रिदोष हुआ था, जिसमें उनके दाँत और बाल चले गए थे। भैयामाय के बाल छोटे थे, क़रीब बिता भर के और एक कान से दूसरे कान तक गर्दन पर से डेढ़ इंच ऊपर तक के सारे बाल झड़ गए थे। यह भी हमें अजीब लगता था। रोज़ गिरती बेला में जब वे माथे में तेल चुपड़कर बाल बाँधती थीं तो मुश्किल से उँगली भर लम्बी और उँगली ही जितनी मोटी चोटी बनती थी। उसे गूँथकर डोरे के सहारे जब जूड़े की शक्ल देतीं तो तेल की शीशी के ढक्कन जितना बड़ा जूड़ा बनता था। उनका बालों को झाड़कर सँवारना, उनको गुहकर चोटी और फिर जूड़ा बनाते देखना हमारे लिए कौतूहल का विषय होता था। परन्तु, अंत में इतना छोटा जूड़ा देखकर हमारा मन भी छोटा हो जाता था। बाल सँवार कर वे बड़े ख़्याल से मुँह-हाथ धोतीं, फिर अपने हाथ में छोटा-सा आईना लेकर माँग में क़ायदे से सिंदूर भरतीं और माथे पर गोल-गोल सिंदूर का टीका लगाती थीं तो बड़ी भरी-भरी लगने लगतीं और हमारा संकुचित मन भी उन्हें देख भरा-भरा हो उठता था। 

भैयामाय को कुछ ही कहानियाँ मालूम थीं और मेरे लिए तो बस एक ही। जब-जब कहानी सुनाने के लिए कहते हम मचल पड़ते थे, तब-तब वे शिव-पार्वती की वही कहानी सुनातीं, जिसमें भगवान शिव ने कोढ़ी का रूप धारण कर पार्वती जी की परीक्षा ली थी तथा पार्वती ने सेवा-सुश्रूषा कर उन्हें प्रसन्न किया था। शिव-पार्वती की उस कहानी को बार-बार सुनना हमें अत्यंत प्रिय था। उसका कारण बाद में पता चला। भैयामाय कहानी के पात्रों, घटनाओं और परिवेश का ऐसा सजीव चित्रण करती थीं कि हमारा बालमन उन्हें अपनी आँखों के सामने बिलकुल स्पष्ट देखता था। यही नहीं, तदनुरूप अनुभव भी करता चलता था। जब वे शिव के मक्खी भिनभिनाते दुर्गंध से भरे कोढ़ी रूप का वर्णन करती तो कथा सुनने के लालच के बावजूद हम बड़ी मुश्किल से अपनी उल्टी रोकते। फिर सुंदर युवा रूप में शिव के द्वारा पार्वती को सोने के झूले में झुलाने का दृश्य प्रफुल्लित कर देता। जब भगवान शिव पार्वती के लिए सितारों और घुंघुरुओं से भरी पटोरी पहनाते व सुंदर सज्जा करते थे, तब मैं कल्पना लोक में उस सुंदर पटोरी को देखने में मस्त हो जाती थी। लेकिन, पटोरी में घुंघुरु उस उम्र तक नहीं देखे होने के कारण ठीक से उनका होना समझ नहीं पाती थी। भैयामाय बतलाती थीं कि जिस तरह साड़ी कि किनारी पर पाड़ लगे होते हैं, उसी तरह देवियों कि साड़ी की किनारी सितारों और घुंघुरुओं से सजी होती हैं। मैं कल्पना में पटोरी देखने की कोशिश करती। पर, चित्र स्पष्ट नहीं होने पर जल्दी से हूँ करके कथा को आगे बढ़ाती जाती थी। इसके अलावा उन्हें सप्ता-विपदा और सूर्य के डोरे की ही कथाएँ मालूम थीं। 

भैयामाय के जीवन की कहानी बड़े होने पर हमें पता चली, वह बड़ी अजीब थी। शादी के लिए उन्हें देखने जब हमारे छोटे बाबा गए थे, तब उनकी उपयोगितावादी बुद्धि ने दरवाज़े पर दर्जन भर मवेशी, पुआल के बड़े-बड़े टाल, बड़ी-बड़ी केले की खानी और दर्जनों गुड़ से भरे टिन इत्यादि देखकर शादी पक्की कर ली थी। वापस आने पर जब दादी ने होने वाली बहू के रूप के बारे में पूछा तो उन्होंने बतलाया कि मिठाई परोसते वक़्त उन्होंने लड़की का हाथ भर ही देखा था और हाथ अच्छा था। चेहरा देखने का उन्हें ख़्याल ही नहीं रहा। फिर बोले–‘ख़ैर, चिंता की कोई बात नहीं है। समधी सम्पन्न हैं।’ . . . और वे भावी समधी की संपन्नता के बखान में मस्त हो गए। भावी बहू की ऐसी अस्पष्ट तस्वीर ने दादी को उलझन में डाल दिया। छोटे भाई द्वारा शादी की बात पक्की कर लेने के बाद मेरे दादा जी का लड़की देखना ही मुनासिब नहीं था तो मना करने का सवाल कैसे उठ सकता था? मन मसोसकर दादी ने अपने सोलह वर्षीय बेटे को सारी बातें कहीं और शादी के लिए विदा करते वक़्त समझा कर कहा था कि दुलहिन पसंद नहीं आने पर दूल्हा मण्डप से उठकर भी आ सकता है। अगर, लड़की नहीं जँचे तो वे शादी नहीं करेंगे। पर, बचपन की बुद्धि और शायद बड़े-बुजुर्गों के लाज-डर से वे ऐसा नहीं कर पाए। उस दिन उन्हें साहस होता तो ज़िन्दगी भर पछताना नहीं पड़ता और न भैयामाय को परित्यक्ता की-सी ज़िन्दगी ही बितानी पड़ती। 

कहते हैं, शादी में बहू को देखकर दादी रो पड़ी थीं और वापसी के समय बहू के सूप भर गहने उतरवा लिए थे कि बेटे की दूसरी शादी करवा देंगी। कई वर्षों तक बहू का द्विरागमन नहीं करवाया गया। पर, सामाजिक दबाव से दादी के मन की बात मन में ही रह गई। बहू का गौना करवाना पड़ा। तब तक वे जवान हो चुकी थीं और उम्र के अनुसार चेहरे पर आकर्षण भी आ गया था। लेकिन, माता-पुत्र को वह सुहाता नहीं था। फिर भी, अनचाहे या अधूरे मन से ही हमारे बड़े बाबूजी रात के अँधेरे में उनके कमरे में जाते थे। जल्दी ही उनकी गोद भी भरी थी। पर, दिन में? दिन में वे उनकी छाया से भी दूर भागते थे। इससे खिन्न भैयामाय उनको चिढ़ाने का कोई मौक़ा हाथ से नहीं जाने देती थीं और नाहक़ मार खा बैठती थीं। 

भैयामाय को सभी मानते थे। बड़े प्यार और छोटे इज़्ज़त करते थे। मानते शायद बड़े बाबूजी भी थे। लेकिन, दादी या औरों के सामने हमेशा विपरीत व्यवहार करते थे। यानी कि रात की सुहागसेज की रानी दिन में बाँदी हो जाती थी, तिलस्मी क़िस्से-कहानियों के पात्रों की तरह। यही उपेक्षाभाव भैयामाय के मन में ग्रंथि बना गयी और उन्हें बड़े बाबूजी को चिढ़ाने में मज़ा आने लगा। ग्रंथि बड़े बाबूजी के मन में भी थी। घर के लोग कहते हैं—अगर संयुक्त परिवार नहीं होता तो बहुत सम्भव था कि दोनों के सम्बन्ध सामान्य हो जाते। क्योंकि, जिस तरह बड़े बाबूजी समाज में प्रतिष्ठित एक सम्पन्न और कुशल किसान थे, उसी तरह भैयामाय चार बेटों और एक बेटी की माँ होकर सुलक्षणी और कुशल गृहिणी थीं। गोरे न तो बड़े बाबूजी थे, न ही भैयामाय। इसके अलावा भी कई विशेषताएँ थीं उनमें। वे कम तेल-मसाले में सुस्वादु खाना बनातीं, घर के लोगों के अलावे जन-मजदूर तक का ध्यान रखतीं और घर से बाहर तक के काम में दिनभर तन-मन से भिड़ी रहतीं। जिस मेहनत और लगन से बड़े बाबूजी खेती में खटते थे, उसी मेहनत और लगन से भैयामाय घर आए फ़सल सहित सारे घर को सँभालती थीं। भैयामाय का सामाजिक पक्ष भी वैसा ही महत्त्वपूर्ण था। गाँव में बड़े बाबूजी सबसे बड़े थे। इसलिए भैयामाय गाँव भर की ‘भाउज’ थीं। इस नाते सबके सुख-दुख में शरीक होतीं और सबों से सम्मान पाती थीं। घर में हमारे बाबूजी सबसे अधिक पढ़े-लिखे, ऊँचे ओहदेवाले और इलाक़े भर में सबसे प्रतिष्ठित व्यक्ति थे। वे स्वयं उन्हें माँ का मान देते थे। इसलिए भी सभी उनकी इज़्ज़त करते थे। दादी के बाद घर पर भैयामाय का रोब चलता था। पर, मन का वह कोना, जहाँ पति का प्यार होना चाहिए था, भरे घर में पति की स्वीकार्यता से मिली इज़्ज़त होनी चाहिए थी, वह तो ख़ाली ही रह जाता था। यही उनके मन को कचोटता था। उन्हें जब भी किसी काम के लिए पैसों की आवश्यकता होती और बाबूजी से कहतीं तो बाबू जी दुगुना पैसा इज़्ज़त के साथ देते थे। लेकिन, बड़े बाबूजी नहीं। उल्टे दुत्कार देते। भैयामाय यह सह नहीं पाती थीं। उन्हें दादी से ईर्ष्या होती थी। क्योंकि, दोनों बेटे—बाबूजी और बड़े बाबू जी अपनी कमाई उन्हें ही देते। उन्हें मालिकिन बनाकर रखते थे और भैयामाय को अपनी आवश्यकतानुसार कामों के लिए पैसा माँगना पड़ता था। कभी-कभी बड़े अधिकार से धान-चावल बेचकर भी अपना काम पूरा कर लेती थीं। वैसे उनकी ज़रूरतें थीं भी बहुत सीमित। बीड़ी या इसी तरह की छोटी-मोटी चीज़ों की ही उन्हें चाहत होती थी। लेकिन, चाहत तो चाहत है और मालिकिन की दावेदारी वे अपना हक़ मानती थीं। 

उनकी आधी ज़िन्दगी इसी तरह की नहीं ख़त्म होने वाली खींचा-तानी में बीत गई। जब बेटे बड़े हुए, तब उन्हें उम्मीद होने लगी कि दादी जैसी ही इज़्ज़त उन्हें उनके बेटे देंगे। आख़िर चार बेटों की माँ थी वो। लेकिन, तब तक वह ज़माना बीत चुका था और उनके बेटे अपनी कमाई पत्नियों को देने लगे थे। भैयामाय मन मसोसकर रह गई थीं। फिर से उन्हें बड़े बाबूजी से ही उम्मीदें होने लगी थीं, जिनके पूरा होने की न कभी अतीत में गुंजाइश रही थी, न भविष्य में होने वाली थी। अक्सर ऐसे मौक़े पर हास्यापद हो जाती थीं वे और माँ बढ़कर उन्हें सँभाल लेती थीं। बड़े बाबू जी उन्हें चिढ़ाने के लिए आँगन में खड़े हो दादी से कहते थे कि वे साठ की उम्र में भी दूसरी शादी कर सकते हैं। यानी पाँच बच्चों के पिता का शादी हेतु अपनी उम्मीदवारी का प्रदर्शन। यह उस ज़माने में कोई कठिन काम था भी नहीं। सोचकर लगता है कि कैसा लगता होगा भैयामाय को? हालाँकि यह कहने भर की बात रही। चरित्र के धनी थे दादा। 

कई सारे प्रसंग हैं भैयामाय से जुड़े, जिनका वर्णन यहाँ सम्भव नहीं। सबसे अंतिम और महत्त्वपूर्ण प्रसंग इस प्रकार है—भैयामाय को क़रीब पचपन की उम्र के आसपास बच्चेदानी का कैंसर हो गया था। जब गाँव से आए भाईजी से बाबूजी को इसकी सूचना मिली तब वे इसे मानने को जैसे तैयार ही नहीं हुए थे। वे जल्दी से गाँव जाकर उनसे मिलने व डॉक्टर से उन्हें दिखाने के लिए रवाना हो गए थे। उन्हें शहर लाकर बाबूजी ने अपने से डॉक्टर को दिखलाया और कैंसर की पुष्टि होने पर रो पड़े थे। 

कितना भरोसा था लक्ष्मण जैसे देवर पर और आज? . . . वे भी निरूपाय हो गए? एकदम बेबस . . . !

अपनी ‘भाउज’ से चारों धाम तीर्थ करवाने का वादा पूरा भी नहीं हो पाया था और वे जाने लगी थीं। अब तक तो उनके और अपने बच्चों की पढ़ाई-लिखाई भी पूरी नहीं हो पाई थी। न उनके मनमुताबिक पक्का घर ही बनवा पाए थे। बाबूजी को पहली बार लोगों ने रोते देखा था तब। 

डॉक्टर ने उनकी ज़िन्दगी के अधिकतम नब्बे दिन बाक़ी बतलाकर उनके क्रियाकर्म में लगने की सलाह दी थी। शायद यह बात भैयामाय ने सुन ली थी या उन्हें अपनी अंतिम यात्रा का आभास हो गया था। जब उन्हें वापस गाँव लाकर बिस्तर से उठने से मनाकर बहुओं ने तीमारदारी शुरू कर दी और गाँव के लोग एक-एककर मिलने आने लगे तो वे अच्छी तरह से समझ गई थीं। लेकिन, तब उनकी आँखें किसी और का इंतज़ार कर रही थीं। कई दिनों तक नहीं बोलीं। जब उन्हें मृत्यु की आहट पास महसूस हुई तब दादी से बोलीं—सब्भे त भेंट करै ल ऐबे करै छह, एक आदमी नै आवै छह। दादी उस आदमी का संकेत समझकर बड़े बाबूजी के पास गईं। टूटी आवाज़ में संवाद देकर जब आँसू भरी आँखें पोंछने लगीं, तब बड़े बाबूजी ने जानें क्यों अनायास ही पूछ लिया था, “हम्में की कहबै?” पर, दादी बिफर पड़ी थीं–आभूँ हम्मै सिखाय देबौ? सकुचाते हुए-से बड़े बाबूजी आकर उनके सिरहाने खड़े हो गए थे। 

ज़िन्दगी भर दिन के उजाले में जिनसे आँखें नहीं मिला सकी थीं, उन्हें कनखी से एक बार देखने का दुस्साहस किया था भैयामाय ने और शायद डर या कि संकोच से मुँह फेर लिया था तो दादा हड़बड़ाकर बोल पड़े थे— “राम नाम कहौ।” वे धीरे से बोली थीं—“कहै छियै।”

अंतिम बार या सबके सामने पहली बार पति-पत्नी में यही संवाद हो पाया था। तब किसी के पास कोई उपाय नहीं था यह जानने का कि दिन में बड़े बाबूजी का मिलने आना, सबके सामने बात करना उन्हें कितना सुखी कर सका था या इससे अभाव की कचोट कम हुई थी कि नहीं या कि ये बातें उनकी महायात्रा के सामने अति नगण्य हो गई थीं। बड़े बाबूजी की आँखों में आँसू आ गए थे शायद। वे जल्दी से देहरी से उतर आँगन के पार द्वार पर चले गए थे। भैयामाय ने मानो तृप्त होकर अपनी आँखें बंद कर ली थीं, जैसे सो रही हों। आँगन में आज पहली बार सबके सामने बड़े बाबूजी उनके पास आए थे। गाँव-गाँव के लोग, जिन्होंने यह देखा था, आज भी आँखों में आँसू भरकर चर्चा करते हैं। नियत समय में भैयामाय ने दुनिया से विदा ली। बेटों ने कंधा दिया। समाज के लोग साथ गए। पर, बड़े बाबूजी हमेशा की तरह द्वार पर बैठे ही रह गए थे। निर्द्वंद्व से। दिल में उठ रहे हिलकोरों को सख़्ती से दबाए हुए-से। 

एक अनिर्णीत लड़ाई या कि प्यार का साथी चला गया था। किसी ने नहीं जाना कि सबसे मज़बूत कलेजे के आदमी ने वह पल कैसे झेला? जीवन भर की लड़ाई का ऐसा अंत तो बड़े बाबूजी ने भी नहीं सोचा होगा। समानांतर ही सही, लेकिन दिशाएँ तो दोनों की एक ही रही थीं। 

कहते हैं, उसके बाद ज़िन्दगी भर रहे संकोची बड़े बाबूजी अपनी माँ-बहनों के पास या हमउम्रों के पास भैयामाय की प्रशंसा में बोलते ही रहते थे। सुनने वाला सोचता—काश! ये शब्द उसने सुने होते, जिसके लिए कहे जा रहे हैं तो वह जीते जी स्वर्ग का सुख पा गई होती। 

उम्र के अंतिम पड़ाव में बहुत अकेले पड़ गए थे बड़े बाबूजी। अति संयमित व्यक्ति का संयम कभी-कभार छूट ही जाता है। अकेले उदास आँखों से छप्पर के एक-एक बाँस-बल्लियों को देखते-गिनते उनकी आँखों से आँसू कब बह जाते, उन्हें पता भी न चलता था। कभी बोल पड़ते थे—“केकरा से बात करियै, दीवालो त नै बोलै दे कुच्छू?” 

“शायद तब उन्हें भैयामाय की सबसे अधिक ज़रूरत हो गई थी।” 

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